प्रकाशित: 13 अप्रैल 2011
-अनिल नरेन्द्र
रविवार को अन्ना हजारे ने नई दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए आंदोलन करेंगे। उन्होंने `राइट टू रिकॉल' यानि तय समय के बाद जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के लिए आंदोलन चलाने का संकल्प दोहराया। सांसदों, विधायकों और पंचायतों तक के जन प्रतिनिधियों को अन्ना से अब अपनी कुर्सी हिलने का खतरा पैदा हो गया है। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कुछ नेताओं ने स्वीकार किया कि अन्ना ने यदि प्रतिनिधियों को वापसी का आंदोलन चलाया तो उस पर जनता का लोकपाल विधेयक से अधिक समर्थन मिल सकता है। दूसरी बात जो अन्ना ने कही कि जन लोकपाल बिल में वह नौकरशाहों पर शिकंजा कसने पर ध्यान देंगे। हम राजनेताओं को तो आए दिन कोसते रहते हैं पर इन नौकरशाहों को कुछ नहीं कहते। जितनी लूट-खसोट इन नौकरशाहों ने मचाई है उतनी किसी अन्य वर्ग ने नहीं।
हमारा मानना है कि भारत का भ्रष्ट अफसरी तंत्र बहुत खतरनाक है। उसमें भ्रष्टाचार का खौफ पैदा करना जरूरी है। अफसर यदि बधेंगे तो अपने आप भ्रष्टाचार बहुत घटेगा। भारत के प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस के बेइमान होने का औसत बहुत कम है। अन्ना हजारे और उनकी समाजसेवी टीम को सौ फीसदी फोकस सचिवों, नौकरशाहों को सख्ती के साथ लोकपाल के दायरे में लाने पर रखना चाहिए। अफसरों के खिलाफ लोकपाल खुद व खुद अपने बूते जांच, कार्रवाई, बर्खास्तगी और सम्पत्ति जब्त के अधिकार से लैश हो तो यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। ऐसा नहीं होने देने के लिए ही 42 सालों से अफसर बिरादरी लोकपाल कानून को इस दलील पर लटकवाती रही है कि इससे राजकाज ठप होगा। प्रधानमंत्री के नाम की आड़ में अफसर अपने को बचाने की साजिश रचते रहे हैं। अफसर कितना शक्तिशाली और बदमाश है इसका ताजा प्रमाण मंत्री समूह के अफसरों के खिलाफ सीबीआई की पूर्व अनुमति की जरूरत बनाए रखने की राय की है। प्रधानमंत्री कार्यालय और कैबिनेट सचिवालय के अफसरों की टॉप प्राथमिकता अफसरशाही को लोकपाल से बाहर रखवाने की है। यह दलील देंगे कि अगर ऐसा किया गया तो सरकार ठप हो जाएगी, गवर्नेंस ठप हो जाएगी। इसके जवाब में अकेला यह तथ्य आंख खोलने वाला है कि दुनिया के सबसे विकसित, आदर्श, ईमानदार, पारदर्शी नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्प, फिनलैंड देशों में लोकपाल की व्यवस्था दशकों से काम कर रही है, वहां तो कोई राजकाज या गवर्नेंस ठप नहीं हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज देश के अधिकतर राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं पर यह कहना भी शायद ठीक नहीं कि तमाम राजनेता भ्रष्ट हैं। ईमानदार राजनेता भी हैं, उदाहरण के तौर पर जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, लाल बहादुर शास्त्राr इत्यादि। हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नौकरशाह प्रवृत्ति के हैं, गैर राजनीतिज्ञ हैं और पूरी तरह अपने अफसरों पर निर्भर हैं। लगभग यही हाल सोनिया गांधी का भी है। मनमोहन तो इन पर इतना निर्भर हैं कि राजनीतिज्ञों से ज्यादा वह अपने अफसरों पर विश्वास करते हैं। हर स्कैंडल में अगर बारीकी से जाएं तो पाएंगे कि इन नौकरशाहों ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यह किसी को जवाबदेही नहीं। यह कभी किसी ने नहीं पूछा कि इन नौकरशाहों की संतानें विदेशों में प़ढ़ रही हैं उन पर महीने का कितने लाखों खर्च हो रहा है। इनको भी अपनी सम्पत्ति और परिवारों की पूरी डिटेल्स सार्वजनिक करनी चाहिए ताकि जनता को इनकी असलियत पता चले।
हमारा मानना है कि भारत का भ्रष्ट अफसरी तंत्र बहुत खतरनाक है। उसमें भ्रष्टाचार का खौफ पैदा करना जरूरी है। अफसर यदि बधेंगे तो अपने आप भ्रष्टाचार बहुत घटेगा। भारत के प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस के बेइमान होने का औसत बहुत कम है। अन्ना हजारे और उनकी समाजसेवी टीम को सौ फीसदी फोकस सचिवों, नौकरशाहों को सख्ती के साथ लोकपाल के दायरे में लाने पर रखना चाहिए। अफसरों के खिलाफ लोकपाल खुद व खुद अपने बूते जांच, कार्रवाई, बर्खास्तगी और सम्पत्ति जब्त के अधिकार से लैश हो तो यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। ऐसा नहीं होने देने के लिए ही 42 सालों से अफसर बिरादरी लोकपाल कानून को इस दलील पर लटकवाती रही है कि इससे राजकाज ठप होगा। प्रधानमंत्री के नाम की आड़ में अफसर अपने को बचाने की साजिश रचते रहे हैं। अफसर कितना शक्तिशाली और बदमाश है इसका ताजा प्रमाण मंत्री समूह के अफसरों के खिलाफ सीबीआई की पूर्व अनुमति की जरूरत बनाए रखने की राय की है। प्रधानमंत्री कार्यालय और कैबिनेट सचिवालय के अफसरों की टॉप प्राथमिकता अफसरशाही को लोकपाल से बाहर रखवाने की है। यह दलील देंगे कि अगर ऐसा किया गया तो सरकार ठप हो जाएगी, गवर्नेंस ठप हो जाएगी। इसके जवाब में अकेला यह तथ्य आंख खोलने वाला है कि दुनिया के सबसे विकसित, आदर्श, ईमानदार, पारदर्शी नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्प, फिनलैंड देशों में लोकपाल की व्यवस्था दशकों से काम कर रही है, वहां तो कोई राजकाज या गवर्नेंस ठप नहीं हुआ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज देश के अधिकतर राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं पर यह कहना भी शायद ठीक नहीं कि तमाम राजनेता भ्रष्ट हैं। ईमानदार राजनेता भी हैं, उदाहरण के तौर पर जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, लाल बहादुर शास्त्राr इत्यादि। हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नौकरशाह प्रवृत्ति के हैं, गैर राजनीतिज्ञ हैं और पूरी तरह अपने अफसरों पर निर्भर हैं। लगभग यही हाल सोनिया गांधी का भी है। मनमोहन तो इन पर इतना निर्भर हैं कि राजनीतिज्ञों से ज्यादा वह अपने अफसरों पर विश्वास करते हैं। हर स्कैंडल में अगर बारीकी से जाएं तो पाएंगे कि इन नौकरशाहों ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यह किसी को जवाबदेही नहीं। यह कभी किसी ने नहीं पूछा कि इन नौकरशाहों की संतानें विदेशों में प़ढ़ रही हैं उन पर महीने का कितने लाखों खर्च हो रहा है। इनको भी अपनी सम्पत्ति और परिवारों की पूरी डिटेल्स सार्वजनिक करनी चाहिए ताकि जनता को इनकी असलियत पता चले।
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