Wednesday 22 February 2012

ऐसी स्थिति में तो हम लड़ चुके आतंकवाद की चुनौती से

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 22th February  2012
अनिल नरेन्द्र
यह दुःख की बात है कि आतंकवाद से प्रभावी ढंग से लड़ने के लिए तैयार किए जा रहे राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र (एनसीटीसी) पर भी राजनीतिक ग्रहण लग गया है। उल्लेखनीय है कि सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी (सीसीए) ने इस साल 11 जनवरी को आतंकवाद से निपटने के लिए शक्तिशाली राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र (एनसीटीसी) के गठन की घोषणा की। यह एजेंसी एक मार्च 2012 को अस्तित्व में आ जाएगी। यह आतंकी खतरों का पता लगाने के अलावा सर्च ऑपरेशन और सन्देह के आधार पर लोगों को गिरफ्तार कर सकेगी। इसको यह शक्तियां गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून से प्राप्त होंगी। आतंकी मॉड्यूल का पता लगाना, आतंकियों और उनके सहयोगियों का पता लगाना इसका मकसद है। यह सीबीआई, एनआईए, नेटग्रिड समेत सातों केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों से सूचनाएं प्राप्त कर सकेगी। इसका मुखिया डायरेक्टर कहलाएगा जो आईबी एडिशनल डायरेक्टर के समकक्ष स्तर का होगा। एनसीटीसी सूचना एकत्र करने के लिए दूसरी एजेंसी पर निर्भर रहेगी। आधे दर्जन से ज्यादा गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने इस केंद्र के गठन पर आपत्ति जताई है और आशंका है कि आतंकियों के खिलाफ खड़े किए जा रहे इस एकीकृत कमान की कहीं भ्रूणहत्या न हो जाए। इस प्रस्तावित आतंक निरोधी केंद्र को राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप और संविधान की मर्यादा का उल्लंघन बताया जा रहा है। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि एनसीटीसी नाम से चर्चा में आए इस राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ ठीक उस समय आवाज बुलन्द हो रही है जब उसके विधिवत काम करने का समय नजदीक आ गया है। क्या यह महज एक दुर्योग है कि एक मार्च से सक्रिय होने जा रहे एनसीटीसी के खिलाफ राज्य सरकारों की सक्रियता यकायक बढ़ गई है। चन्द दिन पहले तक केवल ममता बनर्जी और नवीन पटनायक को ही यह केंद्र रास नहीं आ रहा था लेकिन अब सारे भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों व तमिलनाडु की मुख्यमंत्री को भी यह लगने लगा है कि राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण होने जा रहा है। हमारी राय में इस केंद्र का विरोध करने वालों के कारणों में भी दम है। कुछ मायनों में तो यह पोटा से भी ज्यादा खतरनाक है। बिना राज्यों को सूचना दिए इसमें किसी को भी गिरफ्तार करने का जो प्रावधान है, उससे राज्यों का भयभीत होना समझ आता है। इस यूपीए सरकार और विशेषकर गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि इन पर अब कोई विश्वास करने को तैयार नहीं। अगर यही करना था तो पोटा को हटाया ही क्यों? 26/11 के हमलो के बाद देश में एक माहौल ऐसा बना था कि अगर उसी समय इस केंद्र को स्थापित किया जाता तो शायद इतना विरोध नहीं होता पर संप्रग सरकार सोती रही और इतने साल निकल गए, अब आकर उसे होश आया है। इस विरोध की असलियत में राज्यों का यह डर छिपा है कि केंद्र सरकार इस कानून के तहत अपना राजनीतिक एजेंडा उन पर थोप सकती है। यह आतंक निरोधी व्यवस्था केंद्र के खुफिया विभाग `इंटेलीजेंस ब्यूरो' के तहत चलेगी और राज्यों को आशंका है कि सीबीआई की तरह इसे भी कहीं केंद्र की सत्ता पर काबिज दल के हित-पोषण का साधन न बना दिया जाए। ऐसी स्थिति में तो हम लड़ चुके आतंकवाद से।
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