दागी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त करने और उन्हें चुनाव
लड़ने से रोकने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से बचने के लिए सभी पार्टियां और
सांसदों ने माथापच्ची करके आखिर रास्ता निकाल ही लिया। अब दोषी सांसदों और
विधायकों की सीट भी बची रहेगी और वे जेल में रहते हुए चुनाव भी लड़ सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इस पर रोक लगा दी थी।
लेकिन सरकार ने इस फैसले को पलटने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में ही बदलाव कर
दिया। कैबिनेट ने गुरुवार को संशोधन पर मुहर लगा दी। राजनीति में अपराधियों के
बढ़ते प्रवेश को रोकने के लिए अब तक जुबानी चिन्ता प्रकट करती रही हमारी राजनीतिक
जमात की कलई लगातार खुलती रही है। सजायाफ्ता सांसदों-विधायकों की सदस्यता समाप्त
करने और जेल या हिरासत से चुनाव लड़ने पर रोक लगाने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के
फैसलों को पलटने का कैबिनेट ने प्रबंध कर लिया है। दुर्भाग्य से इस पर संसद या
राजनीतिक जमात में कोई विरोधी स्वर शायद ही सुनाई देगा। जनहित के मुद्दों को कभी
सहमति तो कभी संसाधनों का अभाव बताकर टालने वाली सरकार की दागियों को राहत देने की
यह जल्दबाजी हैरत में डालने वाली जरूर है। यह समझ से परे है कि जब इन फैसलों के
सन्दर्भ में सरकार अदालत में पुनर्विचार याचिका दायर कर चुकी है और आगामी दिनों
में इसकी सुनवाई होनी है तो उसकी प्रतीक्षा करने में क्या दिक्कत थी? सम्भवत आगामी
कुछ दिनों में संसद भी इसे पास कर देगी। क्योंकि सभी पार्टियां सुप्रीम कोर्ट के
फैसले का विरोध कर रही थीं। चूंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला 10 जुलाई से ही लागू हो
गया था यानि बैक डेट से। सवा महीने ही टिका राजनीति का शुद्धिकरण। नए संशोधनों के
अनुसार किसी सांसद या विधायक को सजा हो जाती है तो वह 90 दिन के भीतर फैसले के
खिलाफ अपील कर निर्णय पर स्टे हासिल कर लेता है तो अयोग्य घोषित नहीं होगा। इसके
लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 की उपधारा 4 बदली गई है। जेल में रहते कोई भी
व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। तर्प दिया गया कि जेल जाने के बाद भी उसका वोटर लिस्ट
से नाम नहीं हटता, सिर्प वोट देने का हक निलंबित होता है। इसके लिए जनप्रतिनिधित्व
कानून की धारा 62 की उपधारा 2 बदली गई है। हां दिखावे के लिए दो शर्तें जोड़ी गई
हैं। सजा के बाद भी सदस्य तो बना रहेगा, सदन में जाएगा भी लेकिन सदन की कार्यवाही
में वोट देने का अधिकार नहीं होगा। सजायाफ्ता सदस्य अपील के बाद अंतिम फैसले तक
वेतन-भत्ते लेने के अधिकार से वंचित रहेगा। चूंकि तमाम पार्टियां इसके हक में हैं,
इसलिए अब कानून में बदलाव का रास्ता लगभग साफ है। सम्भव है कि इसी सत्र में सदन
में पेश किया जाए और बिना बहस के पारित भी हो जाए। नया कानून लागू होने के बाद
सुप्रीम कोर्ट का फैसला खुद-ब-खुद रद्द हो जाएगा। संसद में इस समय 151 से ज्यादा
बिल लम्बित हैं। सरकार आम राय का बहाना बनाकर इस पर फैसले नहीं ले पा रही है।
लेकिन दागी नेताओं पर संकट आया तो फौरन कानून बदला गया। साफ है कि हमारी राजनीतिक
जमात शुचिता, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर नागरिकों के बदलते मिजाज और
अपेक्षाओं को समझ नहीं पा रही या समझना नहीं चाहती और यह स्थिति बेहद चिन्ताजनक
है।
-अनिल नरेन्द्र
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