Monday, 12 August 2013

जिम्बाब्वे माडल की ओर भारत

 भारत की जो गंभीर हालत अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा की है उससे ज्यादा नाजुक तो अर्थव्यवस्था की हो चुकी है। जो हालत भारतीय अर्थव्यवस्था की 1991 में थी उससे भी नाजुक हालत 2013 में हो गई है। 1991 में तो विदेशी मुद्रा के अभाव में भुगतान संतुलन का संकट पैदा हुआ था किन्तु 2013 आते-आते यह संकट और अधिक बढ़ गया क्योंकि आज तो विदेशी मुद्रा के साथ-साथ देशी मुद्रा का भी संकट पैदा हो गया है यानि देश कंगाली की तरफ बढ़ रहा है। डालर के मुकाबले रुपए की कीमत 62 तक पहुंच गई है। पिछले तीन महीनों में रुपए की कीमतों में 12 प्रतिशत की गिरावट आई है और तीन महीने में ही पेट्रोल की कीमतों में 8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दरअसल विदेशी मुद्रा की खपत अब नियंत्रण से बाहर हो गई है। लेकिन सरकार बार-बार वही आजमाए नुस्खे आजमा कर विदेशी मुद्रा की खपत पर नियंत्रण लगाने की असफल कोशिशें कर रही है। सरकार विदेशी मुद्रा की खपत रोकने के लिए दो तरीके यानि प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके अपनाती रही है। डॉ. मनमोहन सिंह और उनके परम सहयोगी वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम भी उसी लकीर को फकीरी अंदाज में पीट रहे हैं। विदेशी पूंजी की खपत को नियंत्रित करने के लिए सरकार आयात को रोकने एवं महंगा करने पर विचार कर रही है और यही है विदेशी मुद्रा की खपत पर नियंत्रण का प्रत्यक्ष तरीका। जबकि विदेशी मुद्रा की खपत पर नियंत्रण के लिए अप्रत्यक्ष तरीके हैं विदेशी निवेश और देशी उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देना।
असल में इस सरकार ने अपने शुरुआती शासन काल से ही लापरवाही बरती। इसने अर्थव्यवस्था के प्रति गंभीरता का रवैया अपनाया ही नहीं। वित्तमंत्री का `मैं हूं न' का जुमला तो काफी पहले ही पिट चुका  है और बाजार को सरकार पर भरोसा नहीं रह गया अब सरकार इतनी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई है कि अब उसे किसी भी नुस्खे पर भरोसा नहीं रह गया है। इसीलिए सरकार के सामने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से राहत पैकेज की अर्जी लगाने के सिवा कोई विकल्प बचा ही नहीं है। सरकार को यह डर सता रहा है कि कहीं भारत की रेटिंग और न गिर जाए। आर्थिक विश्लेषकों एवं सरकारी आर्थिक संगठनों का अनुमान है कि रुपए में गिरावट 70 तक पहुंचेगी।
इस अनुमान का ठोस आधार है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी कमजोरी व विदेशी मुद्रा के आवक में एवं निकासी में भारी अंतर के चलते रुपए में गिरावट को रोक पाना मुश्किल है।
असल में हमारे देश के अर्थशास्त्राr शासकों की हालत उस व्यक्ति की तरह है जो अपनी लड़की के लिए 20 साल के दूल्हे की तलाश में निकला जरूर किन्तु सफलता न मिलने पर 10-10 वर्ष के दो बच्चों से शादी तय कर दी। इन अर्थशास्त्राr प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष में यदि आर्थिक ज्ञान के साथ-साथ सूझबूझ भी होती तो उन्हें यह चर्चित जुमला जरूर स्मरण आता कि रुपए का असल दुश्मन रुपया ही होता है। घरेलू मुद्रा जितनी गिरती है, उतना ही निवेशकों का भरोसा भी दरकता है।
पिछले दिनों किसी ने एक बेहद रोचक प्रसंग बताया कि देश में जब गुजरात विकास माडल और बिहार विकास माडल की बात हो रही है तो कोई राष्ट्रीय विकास माडल की बात क्यों नहीं करता? सच तो यह है कि राष्ट्रीय विकास के माडल की बात की जाए तो यह कहना बिल्कुल सही है कि भारत जिम्बाब्वे को अपना आदर्श माडल मानकर तेजी से बढ़ रहा है। भारत के सामने जिम्बाब्वे का आदर्श उदाहरण है कि किस तरह लोकलुभावन खैराती व पक्षपाती नीतियों पर चलकर किसी देश का  बेड़ा गर्प हो सकता है। किस तरह तीन दशक तक जिम्बाब्वे के शासकों ने खैराती और कामचलाऊ नीतियां अपनाकर एक जीवंत राष्ट्र को विफल राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। किसी देश में जो भी गलत हो सकता है वह सब जिम्बाब्वे में हुआ। लोकतंत्र उपहास बनकर रह गया। कभी हरा-भरा कृषि क्षेत्र बंजर में तब्दील हो गया। खदानों पर चीन का कब्जा हो गया और देश में जन विरोधी शासन प्रक्रिया का माहौल बन गया। देश की मुद्रा की इतनी दुर्गति हुई कि विवश होकर जिम्बाब्वे के शासकों को अमेरिकी डालर अपनाना पड़ा।
तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार विदेशी निवेश करा पाने में सफल नहीं हो पाई है। अब इसे वाणिज्य मंत्री को सरकार की इस विफलता का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ने का अवसर कहें या खिसियानी बिल्ली खंभा नोचने की कहावत किन्तु सरकार को एक सलाह देना जरूरी है कि उसे विदेशी निवेश के लिए हाथ पैर मारने के बजाय देश में उत्पादकता पर जोर देना चाहिए ताकि आयात पर निर्भरता कम हो सके। एनडीए सरकार द्वारा जिन आयल ब्लाक्स को खरीदा गया था उन्हें विकसित किया जाना चाहिए तथा विनिर्माण क्षेत्र के संसाधनों को खुद विकसित किया जाना चाहिए। यकीनन यह तरीका धीमा व लंबा जरूर है, लेकिन अर्थव्यवस्था का स्थाई समाधान सिर्प यही है।
बहरहाल अर्थव्यवस्था की दुर्दशा इसी तरह कायम रही या फिर बढ़ती रही तब भी देश के लोग परेशान होंगे और यदि रुपए की निरंतर गिरावट व उसे बचाने की कोशिश की गई तो महंगाई खूंटा तोड़कर भागेगी। दोनों ही परिस्थितियों में देश के लोगों को परिणाम भुगतना पड़ेगा। मजे की बात तो यह है कि आने वाली सरकार के सामने अर्थव्यवस्था का जो जोखिम होगा उसका सामना करना अत्यंत दुष्कर होगा।
लब्बोलुआब यह है कि देश इस वक्त जिम्बाब्वे माडल की ओर तेजी से बढ़ रहा है और इसके लिए हमारी सरकार ही पूरी तरह जिम्मेदार है। एक अनुमान के मुताबिक डालर के मुकाबले में जब एक रुपया कमजोर होता है तो देश को 60 हजार करोड़ का नुकसान होता है कल्पना की जा सकती है कि लगातार डालर के मुकाबले कमजोर होते रुपए का सरकारी खजाने पर क्या असर पड़ेगा? आश्चर्य की बात तो यह है कि सरकार आईएमएफ से पैकेज लेने के अलावा कोई ठोस उपाय भी नहीं कर रही है। ऊपर से तमाम खैराती योजनाएं बनाती जा रही है। इससे लगता है कि देश जिम्बाब्वे की दशा में जल्द ही पहुंचा जाएगा।

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