Sunday 4 August 2013

हम सब साथ हैं क्योंकि हमारा हर तीसरा नेता दागी है

प्रकाशित: 04 अगस्त 2013
इस हमाम में सभी नंगे हैं। मैं बात कर रहा हूं अपनी राजनीतिक पाटियों की और अपने जनप्रतिनिधि यानि सांसदों की। इन्हें अपने हितों की कितनी चिन्ता है यह मानसून सत्र से पहले ही सर्वदलीय बैठक में साफ हो गया है। वैसे सर्वदलीय बैठकें तो कई हुईं पर सहमति कभी-कभार ही बनती है। यह मुद्दा ऐसा था कि सभी सांसदों को मर्यादाओं, दलील, पारदर्शिता से ज्यादा चिन्ता अपनी थी। इन्हें इस बात की भी कतई फिक्र नहीं कि वह राजनीति के अपराधीकरण के पक्ष में खुलकर खड़े होकर अपने आपको जनता के सामने बेनकाब कर रहे हैं। मुद्दा था-सुप्रीम कोर्ट का 10 जुलाई का आदेश जिसमें जेल जाने या सजा होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गई थी। सर्वदलीय बैठक में जनहित के कई मामले जैसे महिला आरक्षण और लोकपाल विधेयक वर्षों से जिन पार्टियों के मतभेद के कारण अटके पड़े हैं, वही पार्टियां अपराधी नेताओं के पक्ष में बिना शर्त एकमत हो गईं तर्प दिया गया कि अपराधी नेताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संसद की सर्वोच्चता को आंच आ रही है। कटु सत्य जबकि यह है कि वर्तमान विधायकों-सांसदों में से 30 फीसदी पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। पार्टियां यह तर्प भी दे रही हैं कि इस फैसले से कई नेताओं का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। 4807 विधायक-सांसदों में से 1460 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। हर दल में दागी नेता मौजूद है। कांग्रेस से 21 प्रतिशत दागी नेता जीतकर आए। भाजपा से करीब 31 प्रतिशत दागी संसद-विधायक पहुंचे, सपा के कुल 48 प्रतिशत सांसद-विधायकों पर मुकदमे चल रहे हैं। बिहार में 58 प्रतिशत, यूपी में 47 प्रतिशत विधायक दागी हैं। जनप्रतिनिधित्व कानून की उस धारा 8(4) को निरस्त करके शीर्ष अदालत ने सही दिशा में सही कदम उठाया है, जिसमें दो साल से अधिक की सजा पाने वाला जनप्रतिनिधि तो चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाता है पर पहले से सांसद या विधायक तीन महीने के भीतर अपील कर अपने पद पर बना रह सकता है। संसद की सर्वोच्चता का हवाला देने वाले भूलते हैं कि संविधान की अनदेखी कर कोई कानून बनाया जाए तो शीर्ष अदालत के पास उसकी समीक्षा का भी अधिकार है और उसे निरस्त करने का भी। राजनीतिक दल यह दलील दे रहे हैं कि जनप्रतिनिधित्व कानून और सूचना का अधिकार कानून उनके खिलाफ दुरुपयोग हो सकता है। क्या वह ऐसा एक भी कानून बता सकते हैं जिसका दुरुपयोग न होता हो? देश-दुनिया में ऐसा कोई कानून नहीं जिसके दुरुपयोग की आशंका न रहती हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अनैतिकता को संरक्षण दिया जाए। दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक दल ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। निसंदेह संसद सर्वोच्च है, लेकिन न तो लोकतंत्र में जन आकांक्षाओं की अनदेखी हो सकती है और न ही संविधान की। राजनीतिक दल जानबूझ कर ऐसा करने पर आमादा हैं। आखिर ऐसी संसद अपनी गरिमा की रक्षा कैसे कर सकती है जो आपराधिक चरित्र वाले लोगों को संरक्षण देने और राजनीतिक दलों को मनमानी करने की छूट देने वालों की जननी बनने जा रही हो? जैसा मैंने कहा कि इनके पापी पेट का सवाल है, इस हमाम में सभी नंगे हैं।

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