Tuesday, 31 January 2017

Trump bans Muslims of seven nations

Keeping his election promise, the US President Donald Trump has under the plans to stop terrorism, ordered to be stricter towards those coming to the US from Pakistan. Now a Pakistani may enter the US only after a thorough investigation and inquiry. Saudi Arabia and Afghanistan are also included in this category. President Trump has stayed the entry for those coming from the seven Muslim countries during the day. Entry scheme for refugees has been postponed for 120 days. The nations from which the refugees have been stayed are Iran, Iraq, Syria, Libya, Yemen, Sudan and Somalia. The US administration initiated its action just after Trump’s executive decision on Saturday. Though a court there has ruled against this order of Trump hearing the petition of an Organization working for human rights. Trump said he isn’t against the Muslim community; he just wants to stop the Muslim terrorism. It is true that Islamic terrorist incidents are happening since 9/11 against which the Americans are very angry. It is this anger that has elected Trump the president, so he doesn’t want to spare any chance to cash it. There is resistance from all quarters for Trump’s step. Though Trump may have cleared that he isn’t against the Muslim community but what he said in terms of the refugees that the Christians would be given preference, it makes clear that some people don’t  justify his step on humanitarian grounds. It is no secret that some Islamic terrorist groups like Al Qaida, Islamic State are continuously active against the US and they have succeeded in misleading the Muslim youths, as such the US has the exclusive rights to take steps for its security. It is no secret that the IS has sent its fighter terrorists along with innocent refugees in Syria in Europe and other Arabian countries and these elements are continuously  attack in Europe these days. It is no secret that just after the 9/11 terrorist attack a large section in the US has been screening the Muslims with suspicion. They feel that they provide shelter to the terrorists of the Muslims nations in the US and all of them are full of hatred against the US. Therefore, so many Muslims in the US from various countries feel themselves insecure. A federal court in the eastern district of New York has ordered on Saturday to stay the government’s decision to repatriate the refugees to their nations. The court believes that it will cause them an irredeemable loss. It may also be seen whether it’s right and constitutional.

ANIL NARENDRA

सात देशों के मुस्लिमों पर ट्रंप का प्रतिबंध

अपने चुनावी वादे के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आतंकियों पर रोक की योजना के तहत पाकिस्तान से अमेरिका आने वालों पर सख्ती बरतने के आदेश दिए हैं। अब कड़ी छानबीन और पूछताछ के बाद ही किसी पाकिस्तानी को अमेरिका में प्रवेश मिलेगा। इस श्रेणी में सऊदी अरब और अफगानिस्तान को भी रखा गया है। राष्ट्रपति ट्रंप ने सात मुस्लिम देशों से किसी के भी आने पर दिन की रोक लगा दी है। शरणार्थियों को प्रवेश देने की योजना 120 दिन के लिए स्थगित कर दी गई है। जिन देशों के शरणार्थियों पर रोक लगाई गई है, वे हैं ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, यमन, सूडान और सोमालिया। शनिवार को इससे संबंधित ट्रंप के कार्यकारी फैसले के बाद ही अमेरिकी प्रशासन ने कार्रवाई भी शुरू कर दी। हालांकि नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले एक संगठन की याचिका पर वहां की अदालत ने ट्रंप के आदेश के विरुद्ध फैसला सुना दिया है। इस पर ट्रंप ने कहा कि वे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि सिर्फ मुस्लिम आतंकवाद को रोकना चाहते हैं। यह सही है कि 9/11 के बाद से ही इस्लामिक आतंकी घटनाएं चलती आ रही हैं जिन्हें लेकर अमेरिकियों में बहुत गुस्सा है। इस गुस्से ने ही ट्रंप को राष्ट्रपति बनाया है, लिहाजा इसे भुनाने का कोई मौका वे नहीं छोड़ने वाले हैं। ट्रंप के इस कदम का चौतरफा विरोध हो रहा है। हालांकि ट्रंप ने भले ही सफाई दी हो कि वे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नहीं हैं पर शरणार्थियों के मामले में जिस तरह उन्होंने कहा कि ईसाइयों को प्राथमिकता दी जाएगी, उससे जाहिर है कि उनका कदम कुछ लोगों को मानवीय आधार पर उचित नहीं लगा। यह किसी से छिपा नहीं कि कुछ इस्लामिक आतंकी संगठन, अलकायदा, इस्लामिक स्टेट अमेरिका के विरुद्ध लगातार सक्रिय हैं और वे मुस्लिम समुदाय के युवाओं को बरगलाने में सफल भी रहे हैं, ऐसे में अमेरिका को अपनी सुरक्षा हेतु कदम उठाने का पूरा अधिकार है। यह किसी से छिपा नहीं कि यूरोप में सीरिया व अन्य अरब देशों में निर्दोष शरणार्थियों के साथ-साथ आईएस ने अपने लड़ाकू आतंकी भी भेज दिए हैं और यह तत्व यूरोप में आए दिन हमले करते रहते हैं। यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि 9/11 के आतंकी हमले के बाद से ही अमेरिका में एक बड़ा तबका मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखता आ रहा है। उन्हें लगता है कि मुस्लिम देशों के आतंकियों को अमेरिका में यह पनाह देते हैं और वे सब अमेरिका के खिलाफ नफरत से भरे हैं। इसलिए विभिन्न देशों से अमेरिका गए बहुत सारे मुसलमान खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। न्यूयार्क के पूर्वी जिले में स्थित संघीय अदालत ने शनिवार को शरणार्थियों को उनके देश वापस भेजने के सरकार के फैसले पर रोक लगाने का आदेश जारी किया। अदालत का मानना है कि इससे उन्हें अपूर्णीय क्षति पहुंचेगी। यह भी देखना है कि संवैधानिक दृष्टि से यह सही भी है?

-अनिल नरेन्द्र

सपा-कांग्रेस दल तो मिले पर क्या दिल भी मिले हैं?

दावा भले ही बिहार की तर्ज जैसा किया जा रहा हो पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच वैसा गठबंधन हुआ नहीं। बिहार में दलों के साथ उनके दिल भी मिले थे इसलिए नतीजे भी अच्छे आए लेकिन क्या यही वास्तविक स्थिति यूपी में भी है? सपा-कांग्रेस के बीच हुए इस समझौते से कांग्रेस के कई नेता और कार्यकर्ता अपने को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। चूंकि फैसला हाई कमान का है इसलिए भारी मन से स्वीकार करना मजबूरी है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि राहुल और प्रियंका के इतने अपमान के बाद हुए इस समझौते को कांग्रेस के समर्थक और कार्यकर्ता जमीन पर कैसे उतारेंगे? प्रदेश कांग्रेस के नेता सपा के साथ ऐसे किसी समझौते के लिए तैयार नहीं थे जो झुककर किया गया हो। अमेठी और रायबरेली की सीटों पर रार बनी हुई है। कांग्रेस इन दोनों जिलों की सभी सीटों पर अपना दावा ठोक रही है जबकि सपा 2012 में जीती हुई अपनी सीटों को छोड़ने को तैयार नहीं है। अलबत्ता वह गठबंधन की मजबूरी को देखते हुए कुछ सीटें छोड़ने के लिए तैयार है। इस रार का असर साझा चुनाव अभियान पर भी पड़ सकता है। फिलहाल चुनाव के लिए सियासी कैमेस्ट्री तैयार करने में दोनों को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। महागठबंधन रोकने के लिए कहते हैं कि भाजपा के रणनीतिकारों ने पहले अजीत सिंह के रालोद को बाहर निकलवाया। इससे कांग्रेस का दबाव कमजोर हुआ। परिवार और पार्टी में यादवी घमासान में विजेता होने के बाद अखिलेश का सियासी ग्राफ एकाएक खासा ऊपर चला गया। इस घमासान में कांग्रेस ने परोक्ष रूप से अखिलेश का समर्थन किया। कांग्रेस-सपा की यह दोस्ती दोनों भाजपा और बसपा के लिए खतरे की घंटी है। कांग्रेस की नजर 2019 के लोकसभा चुनाव पर टिकी है। पार्टी को लग रहा है कि सपा के कंधे पर सवार होकर अगर इस बार यूपी में अपनी ताकत में इजाफा कर लेती है तो 2019 में उसे इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी जितनी 2014 में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए करनी पड़ी थी। वहीं सपा को उम्मीद है कि कांग्रेस के साथ आने से जो मुस्लिम वोट बसपा की ओर झुक रहा था वह अब इस गठबंधन के साथ आ जाएगा। इसके साथ सपा को यह उम्मीद भी है कि सपा का यादव वोट भी जहां-जहां कांग्रेस उम्मीदवार खड़ा है उसे मिल जाएगा। इससे कांग्रेस का वोट शेयर और सीटें दोनों बढ़ जाएंगी। पर क्या यह गठबंधन जमीनी स्तर पर उतरेगा? क्या दोनों दलों के कार्यकर्ताओं का मन भी मिलेगा यह बड़ा सवाल है। अभी भी कुछ सीटें बची हैं जिन पर फैसला होना बाकी है। अखिलेश ने गठबंधन को प्रोजेक्ट करने के लिए जो नया पोस्टर बनाया है उसमें मुलायम, डिम्पल यादव के अलावा राहुल और प्रियंका भी हैं। देखें यह गठबंधन जमीन पर कितना उतरता है?

Sunday, 29 January 2017

गोवा में कई कोणीय मुकाबले की संभावना

गोवा में चार फरवरी को विधानसभा के लिए मतदान होगा। गोवा में इस बार कांग्रेस की ज्यादा उम्मीदें इस बात पर टिकी हुई हैं कि कई कोणीय मुकाबले में किसी दल को बहुमत नहीं मिलेगा। कांग्रेस का अनुमान है कि आम आदमी पार्टी और आरएसएस से अलग हुआ धड़ा जो शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है, चुनाव को काफी प्रभावित करेगा। इन दलों ने खनन, जुआ घर (कैसिनो), भ्रष्टाचार और गोवा के सम्मान को मुद्दा बनाया है जिस पर कांग्रेस और भाजपा कोई खास जवाब नहीं दे रहे हैं। दरअसल भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस की पुरानी सरकारों और भाजपा सरकारों पर समान रूप से लगाते रहे हैं। अंदरूनी गुटबाजी की शिकार कांग्रेस मुख्य रूप में मुकाबला करने की बजाय अलग-अलग धड़ों में विभाजित होकर चुनाव लड़ रही है। भाजपा के प्रदेश प्रमुख विनय तेंदुलकर ने गोवा की अगली सरकार के मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में काम करने के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बयान के एक दिन बाद दावा किया कि लोग चाहते हैं कि रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर को वापस गोवा लाया जाए। तेंदुलकर ने दावा किया कि आरएसएस चुनाव के लिए भाजपा के साथ है। 40 सदस्यीय गोवा विधानसभा के लिए चार फरवरी को मतदान होना है। भाजपा और मनोहर पर्रिकर ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है पर उन्हें अपने पुराने साथियों की वजह से पसीना आ रहा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रचार में भी कर रहे हैं कि भाजपा न गोवा में अपने ही मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत परसेकर को खारिज कर दिया है और वो उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बताकर वोट नहीं मांग रहे हैं। कांग्रेस का चुनावी गणित यह है कि बहुमत के आसार नहीं है, इसलिए छोटे दलों का महत्व रहेगा और जोड़तोड़ से सरकार बनेगी। आम आदमी पार्टी भी गोवा में टक्कर देगी। पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने दावा किया कि भाजपा मुख्यमंत्री पद के दावेदार एल्विस गोम्स की लोकप्रियता से घबरा गई है, इसलिए भगवा पार्टी मनोहर पर्रिकर को उनके गृह राज्य में वापस लाने के संकेत दे रही है। एल्विस एक जिम्मेदार, ईमानदार, स्वच्छ चरित्र वाले और प्रशासनिक अनुभव वाले हैं केजरीवाल ने दावा किया। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रही हैं। ऐसी स्थिति में आप मतदाताओं के लिए एक व्यावहारिक विकल्प बनकर सामने आई है और मतदाता अब इसके साथ आ रहे हैं। कांग्रेस गोवा में छात्रों को हर महीने पांच लीटर मुफ्त पेट्रोल देने का वादा कर रही है। इनके जरिये पार्टी युवाओं और नए मतदाताओं को लुभाना चाहती है। इसलिए उसने युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया से घोषणा पत्र जारी करवाया। इसका मतदाताओं पर कितना असर होता है चार फरवरी को पता चल जाएगा। भाजपा के लिए गोवा में दोबारा सरकार बनाना टेढ़ी खीर नजर आ रही है। उनके घर में ही भारी विभाजन है।

-अनिल नरेन्द्र

इस सफेद आतंक की भारी तबाही

जम्मू-कश्मीर में सीमा पार का आतंक अलग है पर जो यह सफेद आतंक है यह हमारे जवानों पर कहर ढा रहा है। सफेद आतंक यानि बर्फ ने कश्मीर में दो दिनों के भीतर 22 लोगों की जान ले ली है। मरने वालों में 15 सैनिक और सात नागरिक हैं और अभी यह संख्या बढ़ भी सकती है। क्योंकि कई अन्य इलाकों में भी एवलांच के कारण सैनिक चौकियों तथा लोगों के घरों को क्षति पहुंची है और वहां अभी तक राहत दल नहीं पहुंच पाए हैं। मिलने वाली जानकारी के मुताबिक एक सौ से ज्यादा घर पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। गुरेज सेक्टर में  बुधवार को एक दिन में दो जगहों पर एवलाचों ने सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। सेना के अनुसार इस तरह के हादसे आमतौर पर सियाचिन में होते हैं। हालांकि सियाचिन समेत कश्मीर में ऊंची पहाड़ियों, जहां ज्यादा बर्फबारी होती है, पर हिमस्खलन की घटनाओं को लेकर मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) जारी किए जाते हैं। ऐसे में नियमित गश्त को कुछ समय के लिए स्थगित किए जाने का भी प्रावधान है। लेकिन बर्फबारी को लेकर सही अंदाजा या पूर्वानुमान नहीं होने के कारण चूक हो जाती है जिसकी चपेट में गश्ती दल आ गया। हालांकि मौसम विभाग बर्फबारी आदि को लेकर कुछ इनपुट देता है, लेकिन अभी क्षेत्रवार और जरूरत के मुताबिक नहीं है। इसी प्रकार पहाड़ों में सेना के जो शिविर होते हैं, वे ढलान पर होते हैं। यहां हिमस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। 900 जवान शहीद हो चुके हैं जम्मू-कश्मीर के सियाचिन इलाके में 1984 से लेकर अब तक। बुधवार को ही गांदरबल के सोनमर्ग इलाके में एवलांच में सेना का एक अफसर शहीद हो गया। करीब आठ जवानों को बचा लिया गया। दरअसल सेना का कैंप एक पहाड़ी के नीचे था। बुधवार को बर्फ का एक बड़ा हिस्सा सेना के कैंप पर आ गिरा। सोनमर्ग के पहाड़ी इलाके में पिछले दो हफ्ते से भारी बर्फबारी हो रही है। करीब छह से सात फुट बर्फ गिरी है। पिछले चार दिनों में भारी बर्फबारी के बाद आए एवलांच में अब तक सात नागरिकों की भी मौत हो चुकी है। गुरुवार को बारामूला सेक्टर के उड़ी इलाके में 60 साल के एक शख्स की मौत हो गई। मौसम विभाग ने जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अगले 24 घंटों में भारी हिमस्खलन और बारिश की चेतावनी दी है। कहीं-कहीं बर्फबारी के साथ ही 45 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से आंधी, ओलावृष्टि और भारी बारिश होने का अनुमान लगाया है। कहा गया है कि कुपवाड़ा, बांदीपोरा, अनंतनाग, बारामूला, गांदरबल, कुलगांव, बड़गाम, पुंछ, राजौरी, रामवन, रेयासी, डोडा, किश्तवाड़ और कारगिल जिलों में हिमस्खलन का खतरा है। हम इन बहादुर जवानों के यूं शहीद होने पर अपना शोक प्रकट करते हैं और उनके परिवारों के इस दुख की बेला में साथ खड़े हैं। इस सफेद आतंक ने तो भारी तबाही मचा रखी है।

Saturday, 28 January 2017

उत्तराखंड में 77… वोटरों की मर्जी के बगैर बनती सरकारें

पिछले 17 सालों में उत्तराखंड को देश का सबसे अस्थिर राज्य होने का गौरव हासिल हुआ है यह कहना शायद गलत नहीं होगा। इस दौरान यहां आठ बार मुख्यमंत्री बदले जा चुके हैं। आठ मुख्यमंत्रियों में केवल एक नारायण दत्त तिवारी ही पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सके। लेकिन इन पांच सालों में भी ऐसे कई मौके आए जब लगा कि सरकार गिरने वाली है। उत्तराखंड में राजनीतिक अस्थिरता की शुरुआत राज्य के पहले मुख्यमंत्री के साथ 2000 में जब उत्तराखंड नया पर्वतीय राज्य बना तभी से शुरू हो गई थी। वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को बराबर की सीटें मिलीं। इस बार के चुनाव में भाजपा की उत्तराखंड की सीटों की घोषणा ने बगावती सुरों को उभार दिया है। यही फुटौवल कांग्रेस में भी देखने को मिल रही है। टिकट न मिलने से नाराज कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने देहरादून में प्रदेशाध्यक्ष किशोर उपाध्याय और मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ जमकर हंगामा किया, नारेबाजी और तोड़फोड़ की। कांग्रेस कार्यालय में तोड़फोड़ और हंगामे का यह सिलसिला दो घंटे तक चलता रहा। लगता यह है कि उत्तराखंड में चुनाव मोदी बनाम हरीश रावत होगा। भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ने जा रही है। भाजपा के पास वहां मुख्यमंत्री के पद के लिए कई चेहरे हैं, लेकिन पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि चेहरा घोषित करते पार्टी में भीतरघात का खतरा बढ़ जाएगा। इसको देखते हुए ही भाजपा चुनावों में कोई मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं करना चाहती है। यह भी साफ है कि उत्तराखंड में भाजपा की सीधी टक्कर कांग्रेस से है और कांग्रेस का चेहरा भी साफ है कि वहां उनके लिए हरीश रावत हैं। वर्तमान में रावत मुख्यमंत्री भी हैं। इससे पहले बीच में वहां पर राष्ट्रपति शासन भी लागू रहा है। इसे लोकतंत्र की विडंबना कहा जाए या कुछ और, देवभूमि (उत्तराखंड) में जो सरकारें बनी हैं अब तक उन्हें 77 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन नहीं होता। या यूं कहें कि लगभग 15 से 33 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन पाकर सरकारें बनती रही हैं। हालांकि चुनाव दर चुनाव वोटों का प्रतिशत बढ़ रहा है मगर अब तक जो जीता है वह प्रदेश में मतदाताओं के काफी छोटे हिस्से का समर्थन पाकर सत्ता हासिल करने में कामयाब हो जाता है। सीएम कैंडिडेट का ऐलान न करने और मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने से भाजपा को जहां कुछ फायदे नजर आ रहे हैं वहीं इसके नुकसान भी हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने माना है कि भाजपा में नेता इतने ज्यादा हो गए हैं कि उनकी निजी महत्वाकांक्षाएं पार्टी पर भारी पड़ सकती हैं। सीएम पद के दावेदारों की आपसी टकराहट से पार्टी की दिक्कतें बढ़ सकती हैं। इसलिए किसी एक के नाम पर चुनाव नहीं लड़ना चाहती भाजपा। बहरहाल कांग्रेस में हरीश रावत ही एक चेहरा हैं जिनके दम पर कांग्रेस चुनाव लड़ रही है।
-अनिल नरेन्द्र

त्रिकोणीय मुकाबले में नशा एक बड़ा मुद्दा



पंजाब विधानसभा की 117 सीटों के लिए चार फरवरी को होने वाले चुनाव में कुल 1146 प्रत्याशी मैदान में हैं और आम आदमी पार्टी (आप) ने मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया है। वहीं कई छोटे दल भी इस बार मजबूती से ताल ठोंक रहे हैं। पंजाब में अभी तक आमने-सामने का मुकाबला परंपरागत कांग्रेस और शिअद-भाजपा गठबंधन में होता है। राज्य के इतिहास में ऐसा पहली बार है जब अकाली दल-भाजपा गठबंधन के अलावा कोई मजबूत ताकत मैदान में है। 2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों को विधानसभा सीटों के हिसाब से देखें तो बढ़त की स्थिति यूं बनती हैöअकाली-भाजपा 46, कांग्रेस 36, आम आदमी पार्टी 33 और लोक इंसाफ पार्टी दो यानि अकाली-भाजपा, कांग्रेस और आप में लगभग बराबरी का मुकाबला है। लोक इंसाफ पार्टी लुधियाना के बैंस बंधुओं की पार्टी है। लोकसभा चुनाव में वह दो विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में सबसे आगे रही थी। एक विधानसभा क्षेत्र ऐसा था जहां लोक इंसाफ पार्टी और आप का साझा वोट सबसे ज्यादा था। इस बार लोक इंसाफ पार्टी और आप के बीच गठबंधन है यानि दोनों पार्टियां 36 सीटों में साझा लीड के आधार पर उतरी हैं। पंजाब में आप का चुनाव प्रचार करने के लिए दुनियाभर से समर्थक आ रहे हैं। रात्रि दो बजे टोरंटो से अप्रवासी भारतीयों की फ्लाइट ने टर्मिनल-3 पर लैंड किया। इसमें 150 से ज्यादा आप समर्थक मौजूद थे। अप्रवासी भारतीयों का स्वागत करने के लिए हवाई अड्डे पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, डॉ. कुमार विश्वास व प्रदेश के संयोजक दिलीप पांडे समेत पार्टी के कई कार्यकर्ता पहुंचे। एक और विमान लंदन से आया जो सीधा अमृतसर उतरा। दोनों जहाजों में लगभग 250 से 300 समर्थक बताए जा रहे हैं। आप का दावा है कि न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, लंदन, अमेरिका, कनाडा, सउदी व कतर जैसे देशों से हजारों अप्रवासी भारतीय पंजाब पहुंच रहे हैं। पार्टी को अनुमान है कि एनआरआई पंजाबियों के चुनाव में प्रचार के लिए उतरने से पार्टी की जीत में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो सकती है। पुरानी कहावत है कि हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक औरत का हाथ होता है, पंजाब विधानसभा चुनाव में यह कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री की गद्दी पर इस बार वही नेता कब्जा करेगा, जिसे महिलाओं के वोट मिलेंगे। पंजाब में नशे की लत के विरोध में महिलाओं ने जमकर आवाज उठाई है। पंजाब में नशे ने हजारों घरों को बर्बाद कर दिया है और उसका सबसे अधिक नुकसान वहां की महिलाओं को उठाना पड़ रहा है। लजीज खाने के लिए मशहूर पंजाब में नशे की समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है। आज पंजाब की लाखों बेटियां रो रही हैं। इन दिनों पंजाब की 117 सीटों के लिए प्रचार चरम पर है और नशे का मुद्दा भी। ड्रग लेने वालों की अनुमानित संख्या नौ लाख तक पहुंच चुकी है। लगभग 2.32 लाख लोग हेरोइन जैसे ड्रग के आदी हो चुके हैं। त्रिकोणीय मुकाबले में नशा बड़ा मुद्दा है।

Thursday, 26 January 2017

किसान की वोट तो चाहिए पर इनकी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं

उत्तर प्रदेश में सात चरणों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में किसान भाग्यविधाता की भूमिका में हो सकते हैं। राजनीतिक दल विकास और जनसरोकार के मुद्दों को दरकिनार कर जिताऊ उम्मीदवारों को प्राथमिकता दे रहे हैं। कोई सोशल इंजीनियरिंग बनाकर चुनाव में अव्वल आने की जुगाड़ में है तो कोई पार्टी जाति और धर्म के आधार पर मैदान मारना चाहती है। किसी को बहुसंख्यक मतों के सहारे लखनऊ के ताज तक पहुंचना है तो कोई अल्पसंख्यकों को अपनी ओर एकजुट करने की फिराक में है। कोई गठबंधन के सहारे तो कुछ वोटों के बंटवारे के सहारे उम्मीदें लगाए बैठा है। विकास, सुशासन, शिक्षा, महिला सुरक्षा और रोजगार जैसे सुलगते सवाल राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र की शोभा बढ़ा रहे हैं। यूपी में पहले चरण की तो पूरी सियासत ही किसानों पर टिकी है और इस पर सभी पार्टियों का इतना ध्यान नहीं है। पूर्वांचल के पिछड़ेपन की आवाज तकरीबन हर विधानसभा सत्र में उठती रही है पर जब गन्ना किसानों की दुविधा की बात होती है तो पश्चिम के गन्ना किसानों पर सियासत गरमा जाती है। पूरब में गन्ना बेल्ट की बदहाली पर किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है। देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर, संत कबीर नगर आदि की अधिकांश चीनी मिलें बंद हैं। इस क्षेत्र के हजारों किसान परिवारों के लिए गन्ना आर्थिक प्रगति का जरिया होता था अब वहां बदहाली का आलम है। आज उत्पादन के मामले में यूपी देश में नहीं बल्कि एशिया में अव्वल है इसके बावजूद आलू किसानों और कारोबारियों की समस्याएं राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडे में नहीं रहती हैं। इस बार आलू की दुर्गति का हाल यह रहा कि किसानों ने विधानसभा के सामने आलू फेंक कर विरोध प्रदर्शन किया। प्रदेश में आज भी बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है। इनकी बेहतरी के लिए हर वर्ष केंद्र और प्रदेश सरकार के बजट का मुंह खोल दिया जाता है लेकिन जब धान और गेहूं की लागत मूल्य, बीज, कृषि रक्षा रसायन की अनुपलब्धता, गन्ना बकाये का भुगतान न होने और सिंचाई की सुविधा न मिलने के विरोध में किसान आंदोलन करते हैं तो सरकारों के वित्तीय दस्तावेजों की पोल खुलती नजर आती है। राजनीतिक पार्टियां यह तो कहती हैं कि कृषि प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन सरकार की नीतियों में इसे अहमियत क्यों नहीं मिलती यह अपनी समझ से बाहर है। गन्ने की फसल का समय पर भुगतान न मिल पाने के कारण किसान परेशान हैं। लागत भी नहीं मिल पा रही है। ग्रामीण इलाकों में बिजली न मिल पाना भी एक बड़ी समस्या है, नहरों का पानी खेत तक नहीं पहुंच पाता है। दुर्भाग्य से इन सभी दलों को किसानों की वोट तो चाहिए पर इनकी समस्या के प्रति किसी को रुचि नहीं है।
-अनिल नरेन्द्र


पंजाब के चुनाव में इन डेरों का विशेष महत्व होता है

पंजाब विधानसभा चुनावों में हमेशा से डेरों का विशेष महत्व रहा है। पंजाब की राजनीति में डेरों का बहुत असर होता है। ब्यास नदी के किनारे छोटे से शहर ब्यास में यह ऐसा नजारा है जो आपको आसानी से हैरान कर सकता है। यह है पंजाब का सबसे बड़ा आश्रम डेरा ब्यास। कई वर्ग किलोमीटर में फैला विस्तृत इलाका, किसी छावनी की तरह चारों ओर सुरक्षित चारदीवारी, भारी सुरक्षा व्यवस्था, हरियाली और चौड़ी सड़कों के साथ ही बड़ी संख्या में शानदार रिहायशी इमारतें पूरे इलाके की शोभा बढ़ाती हैं। आध्यात्मिक शांति और सत्संग के नाम पर चलने वाले पंजाब के बड़े डेरों का कमोबेश ऐसा ही दृश्य है। पिछले 400 साल से चल रही पंजाब की डेरा परंपरा अब काफी बदल गई है। यहां भव्यता है, भीड़ है और साथ ही राजनेताओं की कतार भी है। मौजूदा धर्मों, उनके प्रतीकों और व्यवस्था का विरोध कर खड़े हुए इन डेरों ने अपने अलग सख्त प्रतीक और परंपराएं तो बना ही ली हैं। अब सत्ता की डोर भी अपने हाथ में रखना चाहते हैं। इन डेरों पर विस्तृत अध्ययन कर चुके पंजाब विश्वविद्यालय के प्रो. रौणकी राय के मुताबिक पंजाब में नौ हजार से ज्यादा डेरे हैं। लेकिन इनमें लगभग 10 ही ऐसे हैं जिनमें श्रद्धालुओं की संख्या लाखों में है। हाल के दिनों में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता इन डेरों के चक्कर लगा चुके हैं। इनमें अकाली दल अध्यक्ष व राज्य के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल भी शामिल हैं। हालांकि अकाली दल सैद्धांतिक रूप से ऐसे डेरों के खिलाफ है। सिख धर्म किसी जीवित गुरु को नहीं मानता। लेकिन हाल के वर्षों में अकाली नेताओं ने डेरों से काफी अच्छे संबंध बना लिए हैं। डेरा ब्यास प्रमुख गुरिन्दर सिंह ढिल्लों के करीबियों को अकाली दल ने न सिर्फ टिकट दिए हैं, बल्कि सरकार के प्रमुख पदों पर भी नियुक्त कर रखा है। सुखबीर सिंह बादल के साले और कैबिनेट मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया की पत्नी डेरा प्रमुख की रिश्तेदार भी हैं। ऐसे में डेरा ब्यास यानि राधास्वामी सत्संग ब्यास का लगातार विस्तार लेते जाना हैरान नहीं करता। ऐसी ही भव्यता और श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या डेरा सच्चा सौदा की भी है। यह ऐसा डेरा है जिसकी बाकायदा राजनीतिक शाखाएं हैं और इन्हें चुनाव में किसका समर्थन करना है फैसला करती हैं। इसका मुख्यालय भले ही हरियाणा में हो, लेकिन पंजाब की राजनीति में इसका भारी दखल है। हाल के वर्षों में इसने खुलकर भाजपा का समर्थन किया है। मगर इस बार मतदान करीब आने पर ही यह अपने पत्ते खोलेंगे। इसी तरह दलितों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय जालंधर का डेरा सचखंड भी राजनीति को प्रभावित करता है। दोआबा में इसका काफी प्रभाव है। बसपा की स्थापना के समय से यह उसके बेहद करीब रहा है। बाद में कुछ और पार्टियों से भी इसकी करीबी रही, मगर अब खुलकर किसी के पक्ष में बोलने से बच रहा है। इसके अनुयायी खुद को सिख या हिन्दू नहीं मानते, बल्कि रविदासिया मानते हैं। इसी तरह डेरा दिव्य ज्योति जागृति संस्थान को भाजपा के तो निरंकारी को कांग्रेस के करीब माना जाता रहा है। अकाली सिर्फ उन डेरों से जुड़े हैं जो पूरी तरह सिख धर्म के अनुसार चलते हैं। ऐसे डेरों में रायकोट के नानकसार और होशियारपुर के संत बाबा हरनाम सिंह डेरा तो हैं ही, इसके अलावा दमदमी टकसाल से भी सीधे अकाली जुड़े रहे हैं, जिसके प्रमुख कभी जरनैल सिंह भिंडरावाले थे। इन डेरों का पिछले कुछ समय से चुनाव में महत्व बहुत बढ़ गया है और सभी प्रमुख दल इनका समर्थन हासिल करने की रेस में शामिल हैं।

Wednesday, 25 January 2017

शराबबंदी, नशाबंदी के खिलाफ बिहार का कड़ा संदेश

जब बिहार की राजधानी पटना में शनिवार को दोपहर 12.15 बजे से एक बजे तक तीन करोड़ से ज्यादा लोग एक-दूसरे से जुड़े तो 11,400 किलोमीटर लंबी दुनिया की सबसे बड़ी मानव श्रृंखला तो बन ही गई, साथ ही बिहार ने दुनिया को शराबबंदी का बेहद मजबूत संदेश भी दिया। बिहार की आबादी के हिसाब से हर चौथा आदमी शराब और नशे के खिलाफ आयोजित इस मानव श्रृंखला में शामिल था। राजधानी पटना समेत राज्य के सभी जिलों में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच निजी एवं सरकारी विद्यालयों के बच्चे, शिक्षक, राजनेता, व्यापारी समेत समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों ने नशामुक्ति का संदेश देने के लिए सवा बारह बजे से एक बजे तक एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर संभवत विश्व की सबसे बड़ी मानव श्रृंखला का निर्माण कर रिकार्ड बना दिया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दावा किया कि यह न सिर्फ विश्व की सबसे बड़ी मानव श्रृंखला है, बल्कि बड़े सामाजिक बदलाव के समर्थन में पहली बार इतने लोग एक-दूसरे का हाथ थामे खड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि हमारा आकलन था कि इसमें दो करोड़ लोग भाग लेंगे। मगर इससे भी अधिक लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। इसके लिए मैं समस्त जनता को बधाई देता हूं। इतनी बड़ी संख्या में लोगों का शामिल होना, इसका परिचायक है कि बिहारवासी शराबबंदी और नशाबंदी के जबरदस्त पक्षधर हैं। शानदार श्रृंखला और इसकी सफलता लोगों की जनभावना का प्रकटीकरण भी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राजद प्रमुख लालू प्रसाद, विधान परिषद के सभापति अवधेश नारायण सिंह, विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव, स्वास्थ्य मंत्री तेज प्रताप यादव, शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी, मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह, डीजीपी पीके ठाकुर आदि पटना के गांधी मैदान में एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर 50 मिनट तक कतार में खड़े रहे। राजधानी पटना से लेकर राज्य के सुदूरवर्ती इलाकों में बड़े उत्साह से लोगों ने इस मानव श्रृंखला में भाग लिया। अपने-अपने शहर और गांव में लोग सड़क पर आए और एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर नशामुक्ति के समर्थन में अपनी एकजुटता दिखाई। ऊंच-नीच और छोटे-बड़े की खाई इस मानव श्रृंखला ने पाट दी। सभी तबके के लोग एक साथ खड़े हुए और एक-दूसरे का हाथ थामा। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस सामाजिक अभियान में युवा, बुजुर्ग, बालक-बालिकाएं, महिलाएं, मजदूर, व्यवसायी, चिकित्सक अन्य प्रोफेशन और हर वर्ग एवं सभी धर्मों में आस्था रखने वाले लोगों ने जबरदस्त उत्साह के साथ भागेदारी की। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वाकई ही इस अभियान के लिए बधाई के पात्र हैं।

-अनिल नरेन्द्र

सपा-कांग्रेस गठबंधन से लड़ाई त्रिकोणीय बन गई है

आखिरकार टूटते-टूटते समाजवादी पार्टी व कांग्रेस का गठबंधन हो ही गया। दरअसल शनिवार को दिन के 11 बजे `अब गठबंधन नहीं होगा' से लेकर रविवार की सुबह 11 बजे तक गठबंधन फाइनल हुआ। इस बीच लखनऊ से दिल्ली के बीच सुपर सस्पेंस राजनीतिक थ्रिलर की तरह पूरा प्रकरण चला। एसपी ने कांग्रेस को 105 सीटें दी हैं और वह खुद 298 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। दरअसल गठबंधन करना एसपी और कांग्रेस दोनों की मजबूरी थी। एसपी के लिए इसलिए जरूरी हो गया था, क्योंकि पारिवारिक झगड़े के बाद धारणा बनने लगी कि वे मुकाबले से बाहर हो गए हैं। ऐसे में तमाम मुस्लिम वोट बीएसपी में शिफ्ट होने की संभावनाएं ज्यादा दिखने लगीं। इससे एसपी का भट्ठा बैठ जाने का खतरा था। गठबंधन से समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को संदेश देने की कोशिश की है कि एक राष्ट्रीय पार्टी उसके साथ है और दोनों मिलकर भाजपा को हरा सकती हैं। इससे मुस्लिम वोट उसकी झोली से छिटकने से बच गया है? यह जरूर है कि जहां गठबंधन का उम्मीदवार कमजोर होगा, वहां मुस्लिम वोटर बहुजन समाज पार्टी के पाले में जा सकता है। गठबंधन न होने पर मुसलमान एकतरफा बीएसपी की तरफ जा सकते थे। दूसरी ओर कांग्रेस के पास कुछ खोने को नहीं है। कांग्रेस की स्थिति दयनीय बन गई है। राहुल गांधी की एक महीने की यात्रा के बावजूद पार्टी ने एकदम छोटे साझेदार के रूप में उससे समझौता किया है तो उसका कुछ तो अर्थ है। वास्तव में कांग्रेस इतिहास में सबसे कम सीटों पर उत्तर प्रदेश में चुनाव  लड़ने जा रही है। 1996 में बसपा के साथ उसका गठबंधन हुआ था तब भी वह 125 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इतनी कम सीटों पर लड़ना इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में किस दयनीय स्थिति में है। गठबंधन के बाद कांग्रेस-एसपी दोनों खेमों के नेताओं ने राहत की सांस ली है। दोनों के बीच अहम दूर करने में पटना से मुंबई तक के लोग मध्यस्थता कर रहे थे। लालू प्रसाद यादव ने अखिलेश को नरम किया तो अहमद पटेल को भी समझाया। गीतकार जावेद अख्तर भी दोनों दलों के नेताओं को मनाने में लगे रहे। अमर अब्दुल्ला ने भी कांग्रेसी नेताओं को गठबंधन की सलाह दी। शनिवार रात अखिलेश यादव और प्रशांत किशोर मिले। इसके बाद अहमद पटेल ने प्रियंका और राहुल गांधी से बात की। तड़के तीन बजे प्रियंका गांधी और अखिलेश की बात कराई गई। इसके बाद अखिलेश ने सुबह कांग्रेस के नेताओं को बुलाया। वहां बात फाइनल होने के बाद पार्टी लीडरशिप को फाइनल ड्राफ्ट भेजा गया, जिस पर दोनों दलों ने सहमति दे दी। एसपी और कांग्रेस के बीच गठबंधन हो जाने के बाद अब यूपी में लड़ाई का त्रिकोणीय होना बिल्कुल साफ हो गया है। मतदाताओं के सामने मुख्य रूप से तीन विकल्प होंगेöभाजपा, बीएसपी और सपा-कांग्रेस गठबंधन। अब पहले जैसी स्थिति शायद न हो। अगर समाजवादी पार्टी अकेले लड़ती तो लगभग दो-तिहाई मुस्लिम उसके हाथ से निकल जाते और वे शायद बीएसपी को जाते। अब मुस्लिम वोटों की पहली प्राथमिकता भाजपा को हराने की होगी। अब जहां उन्हें सपा-कांग्रेस गठबंधन का उम्मीदवार मजबूत दिखेगा वहां वोट करेंगे और जहां बसपा का होगा वहां वोट करेंगे यानि जहां बीएसपी जीत रही होगी वहां बीएसपी के साथ और जहां गठबंधन जीतता दिखाई देगा वहां गठबंधन के साथ। इसमें भी एक पेंच है। कुछ सीटों पर एसपी-कांग्रेस गठबंधन और बीएसपी दोनों ने मुसलमान उम्मीदवार उतार दिए हैं। यहां मुस्लिम वोट कटने का खतरा है। मुसलमानों के बीच भ्रम होगा कि किसको वोट दें। गठबंधन न होने पर मुसलमानों के बीएसपी के साथ एकतरफा जाने से भाजपा की सत्ता में वापसी की लड़ाई बेहद क"िन हो जाती है। दलित-मुस्लिम समीकरण सब पर भारी पड़ता है। भाजपा मुस्लिम वोटों में बिखराव बनाए रखने की रणनीति के तहत शुरू से ही अपनी लड़ाई समाजवादी पार्टी से बताती आ रही है। वो बीएसपी को कभी मुख्य लड़ाई में मानती ही नहीं है। अब मुकाबला त्रिकोणीय होगा।

Tuesday, 24 January 2017

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटलैंड का महत्व

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की शुरुआत पश्चिमी यूपी से होगी। यहां राज्य के पहले दो चरणों में 136 सीटों पर वोटिंग होगी। इन्हीं सीटों से राज्य में सत्ता के करीब पहुंचने वाली पार्टी का काफी हद तक भाग्य तय होगा। 2012 में मेरठ, मुरादाबाद, सहारनपुर, बरेली, आगरा और अलीगढ़ इलाके की 136 सीटों में से सबसे ज्यादा 58 सीटें पाने वाली समाजवादी पार्टी को बहुमत मिला था। 2012 में इस इलाके में सपा को 58, बसपा को 39, भाजपा को 20 और कांग्रेस को आठ तथा रालोद व अन्य को 10 सीट पर एक निर्दलीय ने जीत दर्ज की थी। 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगें व 2014 में मोदी लहर ने इस पूरे इलाके का समीकरण बदल दिया। जातियों के हिसाब से इस इलाके में सबसे ज्यादा 26 प्रतिशत मुस्लिम हैं। इसके बाद दलित 25 प्रतिशत, जाट 17 प्रतिशत और यादव सात प्रतिशत मतदाता हैं। कुछ सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 30 प्रतिशत से अधिक है। जाहिर है कि इस पूरे क्षेत्र में मुसलमान, दलित और जाट विशेष महत्व रखते हैं। पहले बात करते हैं मुस्लिम वोटों की। साइकिल सिम्बल अखिलेश यादव को मिलने के बाद भी यह तस्वीर साफ नहीं है कि पूरा मुस्लिम वोट सपा को ही मिलेगा। बिगड़ी कानून व्यवस्था, मुजफ्फरनगर दंगे की टीस और बनते-बिगड़ते राजनीतिक गठजोड़ से उत्तर प्रदेश का जाटलैंड शासन-प्रशासन से बेहद खफा है। चुनाव पर इसका सीधा असर पड़ सकता है। चौधरी चरण Eिसह की मजबूत विरासत को उनके लोग संभाल नहीं पाए, जिसके चलते समूचे जाटलैंड की पहचान का संकट पैदा हो गया है। सांप्रदायिक सद्भाव को नजर क्या लगी, सामाजिक तानाबाना ही चटक गया। नए राजनीतिक माहौल में भारतीय जनता पार्टी के प्रति उत्तर प्रदेश के जाटलैंड का ऐसा विश्वास जागा कि बीते लोकसभा चुनाव में अन्य दलों का इस क्षेत्र से सूपड़ा साफ हो गया। यहां के मतदाताओं में ध्रुवीकरण साल-दर-साल और बढ़ा है जो छोटी पार्टियों के लिए संकट पैदा करने वाला साबित हो सकता है। जाटलैंड में सपा कमजोर है तो बसपा के दलित बिखर गए हैं। रालोद का जाट-मुस्लिम फार्मूला सांप्रदायिक दंगे की भेंट चढ़ चुका है। कांग्रेस यहां अपना अस्तित्व तलाश रही है। मुसलमानों का एक वर्ग कहता है कि हम तो विकास चाहते हैं। समझ नहीं आ रहा कि हम किसको वोट दें? वह अखिलेश यादव के काम की सराहना जरूर करते हैं लेकिन बसपा भी उनका मनपसंद दल है। वह चाहते
 हैं कि सभी सेक्यूलर दल एक साथ आकर चुनावी अखाड़े में उतरें। हम चाहते हैं कि मुस्लिम वोटों का बिखराव न हो। एक निवासी का कहना था कि सभी राजनीतिक दल हर चुनाव में युवाओं को रोजगार देने का आश्वासन तो देते हैं लेकिन चुनाव के बाद वह अपने वादे से मुकर जाते हैं। इसलिए वह बदलाव चाहते हैं, इस बार वह बसपा को सत्ता में लाना चाहते हैं। खलीलाबाद निवासी उजम्मा नोटबंदी को लेकर बेहद परेशान हैं। नोटबंदी के असर ने उनके कारोबार को चौपट कर दिया है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किसको वोट दूं? सपा को या पीस पार्टी को, यही दुविधा बनी हुई है। मोहम्मद सिद्दीक कहते हैंöमेरा विश्वास सभी राजनीतिक दलों से उठ गया है। सत्ता में आने के बाद सभी दल अपने मन की करते हैं। मैं तो आजादी के बाद से ही सभी दलों को आजमाता आ रहा हूं लेकिन किसी ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस हो या सपा, बसपा हो या भाजपा सभी ही एक हमाम में नंगे हैं, सिर्फ मुस्लिम मतों को हासिल करने के लिए वो सेक्यूलर का लबादा ओढ़ लेते हैं और फिर वही करते हैं जो उन्हें करना है। मेंहदी खान चाहते हैं कि मुस्लिम मतों का बिखराव रोकने के लिए सभी सेक्यूलर पार्टियों का महागठबंधन बनना चाहिए लेकिन ताजा तस्वीर से स्पष्ट हो रहा है कि ऐसा गठबंधन बनना मुश्किल दिखता है। आज की तारीख में मुसलमानों का झुकाव किसी एक पार्टी नहीं बल्कि कई पार्टियों की तरफ नजर आ रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

जवानों को घटिया खाना और अपराधियों के इतने ठाठ?

दिल्ली हाई कोर्ट ने नियंत्रण रेखा पर जवानों को दी जाने वाली खाद्य सामग्री की कथित खराब गुणवत्ता पर स्थिति रिपोर्ट की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए गृह मंत्रालय से प्रतिक्रिया मांगी है। बीएसएफ के एक जवान ने सोशल मीडिया पर वीडियो पोस्ट कर खाने की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठाए थे। मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी और न्यायमूर्ति संगीता ढींगरा सहगल ने जवानों को दिए जाने वाले भोजन की कथित खराब गुणवत्ता सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी), सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) और असम रायफल्स से भी अपना रुख बताने को कहा है। पीठ ने बीएसएफ को यह भी आदेश दिया कि वह उसके सामने जांच रिपोर्ट जमा करे और यह बताए कि उसने बीएसएफ के जवान तेज बहादुर यादव की ओर से लगाए गए आरोपों के संबंध में क्या कदम उठाए हैं। उसके पास जो भी रिपोर्ट है उसे आगामी तारीख 27 फरवरी को अदालत के समक्ष पेश करे। तेज बहादुर यादव की शिकायत के बाद से जवानों की खाने संबंधी शिकायतों में बाढ़-सी आ गई है। हमें नहीं पता कि जवानों की शिकायतों में कितना दम है या नहीं पर हम इतना जानते हैं कि भारत की जेलों में कैदियों को भी सीमा पर तैनात जवानों से बेहतर खाना मिलता है। सुबह की शुरुआत दूध, ब्रैड और अंडे के साथ। खाने में मौसमी हरी सब्जी, रात को बिस्तर पर सोने से पहले कभी खीर तो कभी मिठाई। यह किसी अच्छे हॉस्टल या जिम जाने वाले युवाओं की डायट नहीं है बल्कि ये उन दुर्दांत अपराधियों का खाना है जो इस समय देश की तमाम जेलों में बंद हैं। यह अलग बात है कि इस समय सीमा पर तैनात जवान खाने की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं और इस विषय पर देश में लंबी-चौड़ी बहस/जांच हो रही है। इस बीच हमने यह पता करने की कोशिश की कि तिहाड़ जेल और विभिन्न राज्यों की केंद्रीय जेलों में आखिर कैदियों को कैसा खाना दिया जा रहा है। इसमें सामने आया कि जेल में बंद कैदियों को कई मायनों में आम आदमी से भी ज्यादा बेहतर खाना मिलता है। तिहाड़ जेल के एआईजी मुकेश प्रसाद कहते हैं कि हम हमेशा जेल मैन्यूअल के हिसाब से कैदियों को खाना देते हैं। राजस्थान में सक्षम कैदियों को प्रतिदिन 600 ग्राम आटा दिया जाता है। तिहाड़ में प्रति कैदी को 400 ग्राम आटा प्रतिदिन देते हैं। तिहाड़ में प्रतिदिन प्रति कैदी एक दिन में 250 ग्राम सब्जी मिलती है। बीएसएफ में करीब 240 ग्राम सब्जी। आम आदमी भी तो एक दिन में करीब 150 ग्राम ही सब्जी खाता है। तिहाड़ जेल में 90 ग्राम दाल दी जाती है। कई जेलों में सातों दिन अलग दालें दी जाती हैं। तिहाड़ में सप्ताह में एक दिन खीर और विशेष मौकों पर छोले-पूरी मिठाई आदि मिलते हैं। हरियाणा की जेलों में मंगलवार को खीर बनती है। छत्तीसगढ़ में रविवार को हलवा बनता है। हरियाणा की केंद्रीय जेलों में सामान्य कैदियों की सुबह 250 ग्राम दूध और 100 ग्राम ब्रैड के साथ होती है। छत्तीसढ़ में सुबह कैदियों को खास तौर पर 100 ग्राम भुने चने दिए जाते हैं। छत्तीसगढ़ में 60 की उम्र से अधिक कैदियों को 500 ग्राम दूध और एक अंडा दिया जाता है। बीमार कैदियों को तो जूस और दूसरे पौष्टिक आहार भी मिलते हैं। अब आप खुद बताएं कि क्या सीमा पर अपनी जान को दांव लगाने वाले हमारे बहादुर सिपाहियों को पेट भरने के लिए घटिया खाना दिया जाता है और इन दुर्दांत अपराधियों को इतना अच्छा खाना दिया जाता है? कितना गलत है और कितना अन्याय है?

Sunday, 22 January 2017

सशस्त्र सैन्य अधिकरण का दूरगामी व ऐतिहासिक फैसला

एक ओर जहां सेना और अर्द्धसैनिक बलों में भेदभाव के कई मुद्दे उछल रहे हैं वहीं एक ऐतिहासिक फैसले में सशस्त्र सैन्य अधिकरण लखनऊ ने एक सैन्य अधिकारी के कोर्ट मार्शल को रद्द करके तहलका मचा दिया है। सशस्त्र सैन्य अधिकरण ने सैकेंड लेफ्टिनेंट रहे एसएस चौहान का कोर्ट मार्शल रद्द ही नहीं किया बल्कि पांच करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगाया। चौहान को बहाल कर सेवा के सभी लाभ देने का भी आदेश दिया। जुर्माने की रकम में से चार करोड़ रुपए याची को बतौर मुआवजा दिए जाएंगे जबकि एक करोड़ रुपए सेना के केंद्रीय कल्याण फंड में जमा किए जाएंगे। राजपूत रेजीमेंट में सैकेंड लेफ्टिनेंट शत्रुघ्न सिंह चौहान श्रीनगर में तैनात थे। 11 अप्रैल 1990 को बटमालू मस्जिद के लंगड़े इमाम के यहां से सोने के 147 बिस्किट बरामद किए गए थे। कर्नल केआरएस पवार और सीओ ने चौहान पर दबाव डाला कि वे इन्हें दस्तावेजों में न दिखाएं। बाकी अफसर भी चुप्पी साध गए। तब याची ने मामला पार्लियामेंट्री कमेटी को भेजा। सेना मुख्यालय ने जांच कराई और कोर्ट ऑफ इंक्वायरी के आदेश दिए गए। जांच के दौरान ही टैंट में सोते समय सेना के अफसरों ने कंबल ओढ़कर याची को पीटकर अधमरा कर दिया। 1991 में शुरू हुए कोर्ट मार्शल में उन्हें सात साल की सजा सुनाई गई। सशस्त्र सैन्य अधिकरण लखनऊ ने अपने फैसले में कई अहम और गंभीर टिप्पणियां कीं। पीठ ने कहा कि सेना ने कोर्ट मार्शल की कार्रवाई के दौरान चौहान द्वारा पेश साक्ष्यों की अनदेखी की। अधिकरण ने कहा कि कोर्ट मार्शल के दौरान चौहान की बातों और साक्ष्यों पर गंभीरता से गौर नहीं किया गया। ऐसा करना साक्ष्य अधिनियम के खिलाफ था। चौहान को कोई मौका भी नहीं दिया गया। यह सेना के नियम-कायदों के खिलाफ है बल्कि उन्हें पागल बताया गया। चौहान पर कई बार जानलेवा हमले भी हुए लेकिन शिकायत के बावजूद अधिकारियों ने कोई सुनवाई नहीं की। अधिकरण ने कहा कि चौहान द्वारा दिए साक्ष्यों की अनदेखी कर दी गई। इस मामले में जल्द ट्रायल की भी जरूरत है। सच और हक की लड़ाई में अंतिम जीत चौहान की हुई। इस लड़ाई में उन्हें 26 साल लग गए। इतने सालों में चौहान और उनके पूरे परिवार ने बहुत कुछ खोया है। मान-सम्मान, लोगों की दुत्कार और न जाने क्या-क्या। एसएस चौहान की कहानी चक दे इंडिया के नायक शाहरुख खान से काफी कुछ मिलती-जुलती है। जो अपने सम्मान को पाने के लिए 26 साल तक लड़ाई लड़ते रहे। एसएस चौहान के पिता भी सेना में कैप्टन थे। हर पिता की तरह एसएस चौहान के पिता का भी सपना था कि वह बड़ा होकर देश की सेवा करे। यह एक ऐतिहासिक और दूरगामी फैसला है। सेना में जिस-जिस से भी अन्याय हुआ है उनके लिए भी रास्ता खुलता है।

-अनिल नरेन्द्र

पंजाब में त्रिकोणीय मुकाबले में हर वोट बेशकीमती है

विधानसभा चुनाव में हर एक वोट जरूरी होता है। इस बात को चुनाव लड़ने वाले नेताओं से बेहतर कोई नहीं समझ सकता। आगामी विधानसभा चुनाव में अगर एक प्रतिशत वोट भी स्विंग हुआ तो कई दर्जन विधानसभा सीटों की राजनीतिक तस्वीर बदल सकती है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर में कई ऐसी सीटें हैं जहां 2012 के विधानसभा चुनाव में हार-जीत का अंतर एक प्रतिशत से भी कम था। इन सीटों पर हार-जीत का फैसला 100 या 1000 में नहीं बल्कि चन्द मतों के अंतर से हुआ था। पंजाब की 117 सीटों में से 12 सीटें ऐसी थीं जहां 2012 चुनाव में हार-जीत का अंतर एक प्रतिशत से भी कम था। पंजाब के बारे में खास बात यह है कि जिन सीटों पर जीत-हार का अंतर इतना कम रहा है उनमें से अधिकांश सुरक्षित सीटें हैं। पंजाब में एक ही दिन यानि चार फरवरी को मतदान होगा। इस बार पंजाब का मुकाबला रोचक हो गया है। कांग्रेस बनाम अकाली-भाजपा गठबंधन बनाम आम आदमी पार्टी त्रिकोणीय मुकाबला है। कई दिग्गज आपस में भिड़ेंगे। लंबी विधानसभा सीट का मुकाबला सबसे ज्यादा चर्चित है। यहां पहली बार सीएम और पूर्व सीएम आमने-सामने हैं। यह सीएम प्रकाश सिंह बादल की परंपरागत सीट है। वह  वहां से कभी नहीं हारे। पहली बार कांग्रेस के पूर्व महाराजा और एक्स सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह बादल को उनके घर में ही चुनौती दे रहे हैं। आप ने भी यहां से दिल्ली के विधायक जरनैल सिंह को उतारा है। पंजाब चुनाव में यह सबसे प्रतिष्ठित मुकाबला है। पटियाला कैप्टन अमरिंदर सिंह की परंपरागत सीट रही है। पिछले चुनाव में कैप्टन की पत्नी परनीत कौर यहां से जीती थीं। इस बार शिरोमणि अकाली दल ने यहां से पूर्व सेना प्रमुख जनरल जेजे सिंह को उतारकर चुनावी लड़ाई को दिलचस्प बना दिया है। अब मुकाबला सेना के जनरल और कैप्टन के बीच है। आप ने यहां से डॉ. बलबीर सिंह को मैदान में उतारा है। जलालाबाद की सीट उपमुख्यमंत्री सुखवीर सिंह बादल आसानी से जीतते रहे हैं लेकिन इस बार आप पार्टी ने भगवंत मान को मैदान में उतारा है। कांग्रेस ने अपने युवा सांसद रवनीत बिट्टू को उम्मीदवार बनाया है। अमृतसर ईस्ट पर नवजोत सिंह सिद्धू ताल ठोक रहे हैं। अभी तक यहां से उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर सिद्धू चुनाव लड़ती रही हैं। भाजपा ने उनके मुकाबले राजेश हनी को टिकट दिया है, जबकि आप ने सरबजीत सिंह धंजल को उम्मीदवार बनाया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी 100 सीटों से ज्यादा जीतने वाली है। ग्रामीण क्षेत्रों में उनके अनुसार आप पार्टी का ही जोर है। केजरीवाल ने बृहस्पतिवार को फिरोजपुर, फाजिल्का व बठिंडा में जनसभा के दौरान बादलों व कांग्रेस पर जमकर निशाना साधा। केजरीवाल ने कहा कि पंजाब में 40 लाख युवा नशे की गिरफ्त में हैं। सरकार बनते ही पहले मजीठिया को जेल भेजेंगे और फिर गांव-गांव में नशामुक्ति केंद्र खोलकर युवाओं को नशे के जाल से बाहर निकालेंगे। दूसरी ओर जिस ड्रग नेटवर्क को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने 6000 करोड़ रुपए का समझा-बताया, पुलिस की स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम (एसआईटी) उसे सिर्फ 60 करोड़ का मान चुकी है। जिन तीन तस्करों की वजह से पूरे ड्रग रैकेट में कैबिनेट मिनिस्टर बिक्रम मजीठिया का नाम आया, एसआईटी रिपोर्ट में उन तीनों में कहीं कोई जिक्र मजीठिया का नहीं है। मजीठिया का नाम आते ही विपक्ष ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बना लिया था। बिक्रम मजीठिया ने कहा कि मैंने पहले ही कह दिया था कि इन मामलों से मेरा कोई लेनादेना नहीं है। यह सिर्फ सियासी रंजिश के चलते प्लांट किया गया है। यह रिपोर्ट आरोप लगाने वाले लोगों के मुंह पर तमाचा है।

Saturday, 21 January 2017

जोधपुर केस में सलमान बरी, राहत की सांस ली

सलमान खान अंतत 18 साल बाद जोधपुर में चल रहे काले हिरण के शिकार के केस से बरी हो गए। सलमान के लिए बुधवार को जोधपुर की अदालत से बड़ी राहत देने वाला फैसला आया। बता दें कि 18 साल पहले राजस्थान में फिल्म हम साथ-साथ हैं की शूटिंग के दौरान काले हिरण के शिकार के मामले में सलमान के खिलाफ दर्ज हुए आर्म्स एक्ट के एक मामले में उन्हें संदेह का फायदा देते हुए बरी कर दिया गया। अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि सलमान के पास हथियार थे। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट दलपत सिंह राजपुरोहित ने कहा कि मामला आर्म्स एक्ट की जिन धाराओं में दर्ज किया गया था, उनमें बनता ही नहीं है। 18 साल से गलत धाराओं में मुकदमा चला। कोर्ट ने कहा कि तत्कालीन कलेक्टर रजत कुमार मिश्र ने बिना दिमाग लगाए सिर्फ सरकारी वकीलों की राय पर मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी थी। मजिस्ट्रेट ने 102 पेज के फैसले में सलमान के खिलाफ मामला दर्ज करने से चार्जशीट दाखिल करने तक की कमियों को गिनाते हुए बरी करने का फैसला सुना दिया। सलमान को 10.30 बजे कोर्ट में पहुंचना था। 11 बजे तक वह नहीं आए तो जज ने कहा कि आधे घंटे में पेश कीजिए नहीं तो लंच के बाद फैसला दूंगा। इसके बाद 11.30 बजे सलमान कोर्ट में पहुंच गए। महज सात मिनट कोर्ट में रहे। जज ने नाम पूछा और सात मिनट में बरी करने का आदेश सुना दिया। कोर्ट में सलमान की बहन अलवीरा भी थीं। कोर्ट से निकलते हुए सलमान कुछ लोगों को ऑटोग्राफ भी देते गए। दोपहर बाद तीन बजे सलमान चार्टर्ड प्लेन से मुंबई चले गए। सलमान अब तक चार केसों में बरी हो चुके हैं पर अब भी एक मामला अंडर ट्रायल है। पहला केस जिसमें वह बरी हुए थे मवाद गांव में 27 सितम्बर 1998 की रात हिरण का शिकार किया। कोर्ट ने दोषी माना और एक साल की सजा सुनाई। हाई कोर्ट ने बरी कर दिया। मामला अब सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। घोड़ा केस में घोड़ा फार्म हाउस में 28 सितम्बर 1998 की रात दो हिरणों का शिकार किया। कोर्ट ने पांच साल की सजा सुनाई। हाई कोर्ट ने बरी कर दिया पर मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है। 2002 में मुंबई में सड़क किनारे सो रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ाई। पांच साल की सजा हुई। हाई कोर्ट ने बरी कर दिया। महाराष्ट्र सरकार फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची और मामला लंबित है। कोर्ट ने सलमान को आर्म्स एक्ट में बरी कर दिया है। सलमान खान के इस केस में बरी होने से उनके करोड़ों समर्थकों ने राहत की सांस ली है। सलमान बहुत से गरीब, अनाथ बच्चों की देखभाल करते हैं। वह एक अच्छे इंसान हैं। गलतियां तो बड़े-बड़ों से हो जाती हैं पर सलमान को राहत उनके अच्छे कर्मों की वजह से मिलती रहती है।

-अनिल नरेन्द्र

अस्तित्व बचाने के लिए उतरेगी बहुजन समाज पार्टी

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है। बहन जी अपने सियासी जीवन के शायद सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। 2007 से 2012 तक पूर्ण बहुमत की अच्छी सरकार चलाने के बावजूद वह सत्ता से बाहर हो गई, जबकि उस दौर में भी कई अन्य राज्यों की सरकारें दोबारा सत्ता पाने में सफल रहीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो पार्टी ने सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ा पर पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल सकी। इस चुनाव के लिए मायावती ने अपने खास सिपहसालारों को छिटके मतदाताओं को अपनी ओर करने की मुहिम चला रखी है और उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंप रखी है। अगर हम पिछले विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो पहले के सभी चुनावों में बसपा का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ रहा था। लेकिन 2012 के चुनाव में पांच प्रतिशत से अधिक वोट कम होने से वह सत्ता से बाहर हो गई थीं। बसपा इस बार ऐसा नहीं होने देना चाहती। इसी वजह से बहन जी ने अपने पारंपरिक दलित और मुस्लिम वोट बैंकों पर इस बार विशेष ध्यान देना शुरू किया है। सपा-कांग्रेस के संभावित गठबंधन ने मायावती की चिन्ता बढ़ा दी है। बसपा के भरोसेमंद सूत्रों की मानें तो मायावती ने अपने करीबी ओहदेदारों को साफ कह दिया है कि इस बार ऐसी कोई गलती न हो जिसका असर उनके वोट बैंक पर पड़े। चुनाव आयोग की ओर से चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले दिल्ली और लखनऊ में हुई आधा दर्जन से अधिक बैठकों में बहन जी इस नतीजे पर पहुंच गईं कि 2012 में पार्टी की जो हार हुई, वह उसके पीछे मुस्लिम वोट बैंक के समाजवादी पार्टी के खाते में ट्रांसफर होने की वजह से हुई। मुसलमानों का एकजुट वोट किसी भी सियासी समीकरण को बिगाड़ सकता है। इसीलिए मायावती ने इस बार मुस्लिमों को ज्यादा से ज्यादा टिकट दिए हैं। मायावती लगभग हर प्रेस कांफ्रेंस में खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के एकमात्र मजबूत विरोधी के तौर पर पेश करती हैं और वे मुसलमानों से कहती हैं कि सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने के लिए मुस्लिम कौम सपा और कांग्रेस को वोट देकर उसे बेकार करने की बजाय बसपा को एकजुट होकर वोट करें। बसपा ने इस बार सभी 403 सीटों पर चुनावी उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। उनमें से 87 टिकट दलितों को, 97 टिकट मुसलमानों को और 106 अन्य सीटें पिछड़े वर्ग से संबंध रखने वाले उम्मीदवारों को दी हैं। पर कुछ महीने पहले से पार्टी के नेताओं व विधायकों के दल छोड़ने या निकालने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अभी तक बंद नहीं हुआ है। ऐसे हालात में बसपा सत्ता की मास्टर चाबी पाने की लड़ाई लड़ रही है।

Friday, 20 January 2017

कानपुर रेल हादसे के पीछे आईएसआई?

कानपुर में पिछले साल 20 नवम्बर को हुई रेल दुर्घटना महज एक हादसा था या किसी ने सुनियोजित साजिश रची थी? 20 नवम्बर को कानपुर से 57 किलोमीटर दूर पुखरायां में सुबह तीन बजे इंदौर-पटना एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी। इसमें 152 की मौत हुई और 200 से अधिक यात्री घायल हुए थे। वैसे तो हादसे के कारणों का रेलवे की जांच रिपोर्ट से पता लगेगा पर बिहार के मोतिहारी में गिरफ्तार तीन बदमाशों से पूछताछ के दौरान इस हादसे में पाक कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ होने की बात सामने आ रही है। इन बदमाशों ने कबूला है कि भारतीय रेलवे को निशाना बनाने के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के इशारे पर काम कर रहे थे। आईएसआई का दुबई में बैठा गुर्गा एक नेपाली के जरिये यह काम करा रहा था। तीन शातिर बदमाशों में शामिल मोती पासवान ने बताया कि इस ट्रेन हादसे में वह भी शामिल था। उसके साथ कानपुर में कई अन्य लोग भी थे। इनमें दिल्ली में पकड़े गए बदमाश जुबैर व जियामुल हक शामिल थे। मोती ने बताया कि कानपुर से पहले पूर्वी चम्पारण के घोड़ासहन स्टेशन के पास रेल ट्रैक व चलती ट्रेन को उड़ाने की साजिश भी उसी संगठन ने की थी। इसके लिए नेपाल में गिरफ्तार ब्रजकिशोर गिरी ने आदापुर निवासी अरुण व दीपक राय को तीन लाख रुपए दिए थे। लेकिन दोनों ने आईईडी लगाने के बाद भी रिमोट का बटन नहीं दबाया। इस कारण वह विस्फोट नहीं हो सका। घटना को अंजाम नहीं दे पाने के कारण नेपाल बुलाकर ब्रजकिशोर ने अरुण व दीपक की हत्या कर शव फेंक दिए थे। बिहार के मोतिहारी से गिरफ्तार किए गए तीन बदमाशों द्वारा बिहार पुलिस को दिए बयान में जुबैर व जियामुल हक का नाम बताने पर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने दिल्ली के जामिया नगर स्थित बटला हाउस इलाके से उन्हें ढूंढ निकाला। बदमाशों ने इन दोनों पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम करने के आरोप लगाए हैं। यह अत्यंत गंभीर आरोप हैं। जो भी कसूरवार है उसके सिर पर 152 निर्दोषों की मौत के खून का अपराध है। मामले की गंभीरता से जांच होनी चाहिए। केवल कुछ बदमाशों के बयानों पर इतना बड़ा आरोप लगाना शायद सही नहीं होगा। इस मामले के फोरेंसिक सबूत व पूरी डिटेल्स सामने लाने होंगे। हर हादसे में आईएसआई का नाम लेना फैशन हो गया है। पर अगर यह साबित होता है कि वाकई ही इस ट्रेन हादसे में आईएसआई का हाथ था तो यह तो एक तरह से एक्ट ऑफ वॉर है और इसका जवाब पाकिस्तान को देना पड़ेगा। पाकिस्तान अपनी आदत के मुताबिक इसमें अपना हाथ होने से इंकार कर देगा। साबित तो सबूतों के साथ हमें ही करना होगा।

-अनिल नरेन्द्र

अमेरिका में आठ साल बाद बदलती सत्ता की धुरी

70 वर्षीय डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के सबसे उम्रदराज राष्ट्रपति 20 जनवरी को शपथ लेंगे। अमेरिका में आठ साल के बाद सत्ता की धुरी बदलेगी। दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की कमान डेमोक्रेट राष्ट्रपति बराक ओबामा से रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप के हाथों में आ जाएगी। इससे अमेरिकी नीति के साथ पूरी दुनिया में शक्ति संतुलन भी बदल सकता है। डोनाल्ड ट्रंप के एक निकट सहयोगी ने दो दिन पहले कहा कि व्हाइट हाउस में दाखिल होने के पहले दिन ही ट्रंप वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा के उन कई कार्यकारी फैसलों को पलट देंगे जिनके बारे में उनको लगता है कि इनसे आर्थिक प्रगति और रोजगार दोनों प्रभावित हुए हैं। यह घोषणा ट्रंप के होने वाले व्हाइट हाउस के प्रवक्ता सीन स्पाइसर ने एक टीवी कार्यक्रम में की। उन्होंने कहा कि ट्रंप तत्काल उन कई कदमों को निरस्त करेंगे जिन्हें ओबामा प्रशासन की ओर से बीते आठ महीने में उठाया गया है और जिनके कारण अमेरिका का आर्थिक विकास एवं रोजगार सृजन बाधित हुआ है। उन्होंने बहरहाल यह स्पष्ट नहीं किया कि ओबामा के किन-किन कार्यकारी कदमों को ट्रंप निरस्त करेंगे। घरेलू मामलों के साथ-साथ ट्रंप की विदेश नीति पर भी नजरें लगी हुई हैं। यूक्रेन के मुद्दे पर रूस-अमेरिका में शुरू हुई रार 2016 में सीरिया और अमेरिकी चुनाव में हस्तक्षेप को लेकर और बढ़ी, पर पुतिन के प्रति ट्रंप के दोस्ताना रवैये से दोनों देशों में तनाव घटने के आसार हैं। सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद के वफादार सुरक्षा बलों और विद्रोहियों के बीच सालों से चल रहे गृहयुद्ध के खात्मे की उम्मीद की जा रही है। दोनों पक्ष संघर्षविराम की घोषणा पर वार्ता को राजी हो गए हैं। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में शामिल होने की भारत की कोशिशें रंग ला सकती हैं। सुरक्षा परिषद में सुधार और आतंकवाद की सर्वमान्य परिभाषा को लेकर उसकी मुहिम भी सफल हो सकती है। ट्रंप के लिए अमेरिका की विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों में सही तरीके से तालमेल बिठाना कड़ी चुनौती हो सकती है। हाल ही में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख जॉन बेनन ने ट्रंप को चेतावनी दी है कि उन्हें अपनी टिप्पणियों पर नियंत्रण रखना होगा और रूस के खिलाफ लगाए गए प्रतिबंधों को हटाने के प्रति सचेत रहना होगा। उन्होंने कहा कि ट्रंप ने जिस प्रकार दुनिया को संदेश दिया है उससे लगता है कि उन्हें अपने देश की खुफिया एजेंसी पर ही भरोसा नहीं है। चुनाव प्रचार के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने बहुत-सी बातें कीं पर यह जरूरी नहीं कि वह उन पर अमल करें। अब जब वह राष्ट्रपति बन जाएंगे तो सोबर हो जाएंगे और उम्मीद की जाती है कि वह नपी-तुली बातें ही करेंगे। श्री ट्रंप को अमेरिका के राष्ट्रपति पद संभालने पर बधाई।

Thursday, 19 January 2017

क्या नई तकनीक से सीमा पार से घुसपैठ पर नियंत्रण लगेगा?

पाकिस्तान घुसपैठियों को भारत धकेलने का सिलसिला बंद नहीं कर रहा। दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग जिले के पहलगांव के पास आबूरा गांव में देर शाम (रविवार से) जारी मुठभेड़ खत्म हो गई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने तीन आतंकियों को मार गिराया है। आतंकियों के पास से तीन एके-47 राइफल बरामद हुए। भारत को इन घुसपैठियों को रोकने के लिए और कड़े उपाय करने होंगे। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत सीमा पार और एलओसी से घुसपैठ रोकने के लिए 20 अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की मदद से नई तकनीक विकसित कर रहा है। भारत-इजरायल संयुक्त कार्य समूह ने इस बाबत रणनीति तैयार की है। केंद्रीय गृह मंत्रालय की कार्ययोजना के तहत इस साल के अंत तक बॉर्डर को हाइटैक बनाने का काम पूरा कर लिया जाएगा। इसके लिए विस्तृत एकीकृत सीमा प्रबंधन प्रणाली बनाई जा रही है। इसके लागू होने के बाद बॉर्डर पर गश्त के लिए अधिक जवानों की जरूरत नहीं पड़ेगी। राडार घुसपैठ की जानकारी देगा और सूचना के बाद त्वरित कार्रवाई कर घुसपैठ के पाकिस्तानी मंसूबे पर पानी फिर जाएगा। जम्मू-कश्मीर में सांबा और कठुआ के बॉर्डर पर सबसे पहले उच्च तकनीक उपकरण स्थापित किए जाएंगे। जम्मू-कश्मीर से लगने वाले पाकिस्तान बॉर्डर और नियंत्रण रेखा से आतंकियों द्वारा पूरे साल भर घुसपैठ की कोशिशें की जाती हैं। बॉर्डर पर बीएसएफ और एलओसी पर सेना के जवान घुसपैठ रोकने के लिए अग्रिम पोस्टों से नजर रखकर कार्रवाई करते हैं और 24 घंटे गश्त की जाती है। सेना के सूत्रों के मुताबिक हाइटैक प्रणाली लागू होने के बाद बॉर्डर पर स्थित तकनीकी केंद्र पर घुसपैठ की कोशिश होते ही तुरन्त जानकारी मिल जाएगी और मौके पर ही आतंकियों को ढेर किया जा सकेगा। वर्तमान में सेना और बीएसएफ की लगातार गश्त के बावजूद हर साल औसत 100 आतंकी घुसपैठ में कामयाब हो जाते हैं। पाकिस्तान द्वारा सीजफायर उल्लंघन से घुसपैठ करने वाले आतंकियों को पाक सेना द्वारा कवरिंग फायर मिलता है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद घुसपैठ की कोशिशों में लगातार इजाफा हुआ है। एक साल में पाकिस्तान की ओर से 150 आतंकी घुसपैठ कर जम्मू-कश्मीर के इलाकों में दाखिल हुए। कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी व अन्य हिंसक घटनाओं में बेशक कमी आई है पर सीमा पार से आतंकियों की घुसपैठ में इजाफा ही हुआ है। उम्मीद है कि नई अत्याधुनिक तकनीक से घुसपैठ पर काबू पाया जा सकेगा। सूत्रों के मुताबिक तकनीकी उपकरणों के लिए 20 अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को ऑर्डर दिए गए हैं।

-अनिल नरेन्द्र

क्या यूपी में विकास से ज्यादा जातिवाद हावी रहेगा?

यूपी के बारे में एक कहावत चर्चित है कि यहां वोटर न तो नेता को और न ही विकास जैसे मुद्दे पर वोट देता है। यहां वोट जाति के आधार पर दिए जाते हैं। कम से कम पुराने विधानसभा चुनावों में तो यही स्थिति रही है। यूपी विधानसभा में जिस पार्टी को 30 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलेंगे जीत उसकी लगभग तय होगी। लेकिन ये 30 प्रतिशत वोट चार बड़ी जातियों के बीच फंसे हैं। 23 प्रतिशत अगड़ी जाति के हैं तो 41 प्रतिशत पिछड़ी जाति के। 21.1 प्रतिशत दलित हैं तो 19.3 प्रतिशत मुस्लिम। अब तक तो मुलायम यहां यादवों के रहनुमा बने हुए थे और मायावती दलितों की। पिछड़ों के लिए भाजपा ने केशव मौर्य को अध्यक्ष बनाया है तो ब्राह्मणों के लिए कांग्रेस ने शीला दीक्षित को आगे किया। जाति के इस खेल को खुलकर मायावती ही स्वीकार करती हैं। मायावती ने सभी प्रत्याशियों की जातिवार सूची जारी करके यह साबित भी कर दिया। जाति के इस चक्रव्यूह के कारण कांग्रेस 27 साल से यूपी में सत्ता से बाहर है, वहीं भाजपा 14 साल से। हालांकि लोकसभा चुनाव में ध्रुवीकरण ने सारी जातियों को एकजुट कर दिया था। यही वजह है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में 15 प्रतिशत वोट पाने वाली भाजपा ने लोकसभा में 42.43 प्रतिशत तक वोट लाकर 80 में से 71 सीटें जीत ली थीं। वहीं 21 प्रतिशत दलित वोटर होने के बावजूद मायावती की पार्टी का खाता तक नहीं खुल सका। विधानसभा चुनाव के शंखनाद के साथ उत्तर प्रदेश में चुनावी बिसात की गोटियां बिछनी शुरू हो गई हैं। हर एक सीट पर जीत का आंकड़ा फिट करने के लिए गुणा-भाग शुरू हो गया है। कुछ दलों ने प्रत्याशियों का चयन कर लिया है तो कुछ दल टक्कर का प्रत्याशी उतारने के फेर में हैं। राजनीतिक दल हर सीट पर तमाम गुणा-भाग कर उम्मीदवारों को उतारते हैं ताकि जीत उनके दल के खाते में आए। मतदान का दौर आते-आते मुकाबला कांटे का हो जाता है। लिहाजा मतों का फासला कम हो जाता है कि राजनीतिक दलों की सीटों में काफी अंतर आ जाता है। अंतत चार से पांच प्रतिशत मतों के कम-ज्यादा होने की दशा में बीते विधानसभा चुनावों में इसी तरह के आंकड़े सामने आए हैं। मौजूदा विधानसभा चुनाव में यह परिपाटी दोहराई जाती है या नहीं, यह देखने की बात होगी। यूपी में बीते एक दशक के दौरान हुए दो विधानसभा चुनावों में यह परिपाटी देखने को मिली है। दोनों ही विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा में कांटे का मुकाबला हुआ और चार-पांच प्रतिशत मतों के अंतर ने एक पार्टी को सरकार से बाहर और दूसरी के लिए सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है। 2007 के विधानसभा चुनाव में सपा को अपनी प्रतिद्वंद्वी बहुजन समाज पार्टी से पांच प्रतिशत कम वोट मिले, वह सरकार बनाने से बाहर हो गई। पार्टी को 97 सीटों से संतोष करना पड़ा था। सपा को कुल मतों का 25.43 प्रतिशत मत मिला था, वहीं बसपा को पांच प्रतिशत अधिक 30.43 प्रतिशत मत मिले थे। मतों के इस अंतर से बसपा की सीटों की संख्या 206 पर पहुंच गई थी। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में यही परिपाटी देखने को मिली। इस चुनाव में बसपा को 25.91 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि सपा को 29.13 प्रतिशत मत हासिल हुए थे और दोनों के बीच सीटों में 100 से ज्यादा का अंतर आ गया था। इस चुनाव में बसपा 80 सीटों पर सिमट गई थी जबकि सपा को 224 सीटें हासिल हुईं। प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में भी यही परिपाटी अगर दोहराई गई तो इस बार भी मत प्रतिशत में मामूली अंतर किसी की जीत तो किसी की हार की वजह बन जाएगी। ऐसे में सभी राजनीतिक दल सीटों और प्रत्याशी के हिसाब से रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं। मौजूदा चुनाव में मुद्दे और माहौल कितने प्रभावी होते हैं, किस तरह से मतों का बंटवारा होगा? यह देखने की बात होगी लेकिन दो बातें साफ हैंöयूपी विधानसभा चुनाव में मुद्दों से ज्यादा जातिवाद ज्यादा हावी रहा है और कांटे के इस मुकाबले में हार-जीत का अंतर बहुत कम होगा।

Wednesday, 18 January 2017

क्या सिद्धू की घर वापसी कांग्रेस को जिता पाएगी?

आतिशी बल्लेबाजी, जुमलों से भरी क्रिकेट कमेंट्री में कभी न रुकने वाले ठहाकों वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने कांग्रेस का दामन थामकर घर वापसी कर ली है। इसी के साथ ही सिद्धू ने महीनों से चल रही अटकलों पर विराम लगा दिया है। भाजपा से निकलने के बाद आम आदमी पार्टी के दरवाजे पर दस्तक देते हुए अब जब वह कांग्रेस में बाकायदा शामिल हो गए हैं तो उनका कहना कि यह उनकी घर वापसी है अवसरवाद है या हकीकत? बेशक वह पैदायशी कांग्रेसी हो सकते हैं, पर किसी की घर वापसी इतनी लंबी नहीं होती, जितनी कि नवजोत सिंह सिद्धू की रही है। उन्होंने पिछले 18 साल के बाद राज्यसभा और भाजपा से इस्तीफा दिया था और तभी से वह नया ठिकाना तलाश रहे थे। आम आदमी पार्टी से कई दिनों तक असफल सौदेबाजी के बाद सिद्धू के लिए सिवाय कांग्रेस के और कोई विकल्प भी नहीं बचा था। सिद्धू और भाजपा का बुनियादी मतभेद अकालियों को लेकर था। अकालियों के वह मुखर विरोधी थे और भाजपा अकालियों के साथ अपना गठबंधन तोड़ने को तैयार नहीं थी। संभव है कि भाजपा को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़े। सिद्धू ने पंजाब की राजनीति में अपना अलग स्थान बनाया और मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भी अमृतसर सीट जीत कर साबित कर दिया कि वह जनता से जुड़े नेता हैं। निश्चय ही नवजोत का कांग्रेस में शामिल होना कांग्रेस के लिए उत्साह बढ़ाने वाली घटना है। सिद्धू की पत्नी जो कि अमृतसर-पूर्व की सीट से विधायक रहीं, पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं। सिद्धू को पार्टी में शामिल करने और मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ कैप्टन अमरिंदर सिंह को उम्मीदवार बनाने के पीछे कांग्रेस की राजनीति जाहिर है। यह आम धारणा है और समय-समय पर हुए कई सर्वेक्षणों ने भी इसके संकेत दिए हैं कि एक दशक से राज कर रहे बादल सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रहे हैं। अकाली-भाजपा सरकार से छुटकारा दिलाने में सक्षम होने का भरोसा जो जगा सकेगा बाजी उसी के हाथ लगेगी। अगर आम आदमी पार्टी का उभार न हुआ होता तो कांग्रेस को इस बार ज्यादा चिन्ता करने की जरूरत न थी। पर आप की सशक्त मौजूदगी ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि विपक्ष में नम्बर एक शक्ति कौन है? बादल परिवार को भी इस बार एंटी इनकम्बेंसी का अहसास होगा पर उनकी उम्मीद इस पर टिकी है कि सत्ता विरोधी वोटों का कांग्रेस और आप पार्टी के बीच लगभग समान बंटवारा हो जाए। नतीजा क्या होगा इसका पता तो 11 मार्च को ही चलेगा। मगर यह साफ दिख रहा है कि पंजाब में सत्तारूढ़ गठजोड़ के लिए यह चुनाव चुनौतियों से भरा है।

-अनिल नरेन्द्र

टीपू तो साइकिल चलाएंगे पर मुलायम अब क्या करेंगे?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मतदान से पहले ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को एक बड़ी जीत हासिल हुई है। अखिलेश यादव जिन्हें मुलायम सिंह यादव परिवार में टीपू के नाम से कहा जाता है को चुनाव आयोग ने दोनों पार्टी व चुनाव चिन्ह साइकिल सौंप दी है। चुनाव आयोग ने समाजवादी पार्टी का विधिवत विभाजन कर दिया है। चुनाव आयोग का यह फैसला मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन की सबसे करारी हार के रूप में है। जिस पार्टी को उन्होंने अपना खून-पसीना एक करके खड़ा किया वह एक झटके में ही उनके हाथ से निकल गई। सोमवार को पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव के तमाम दावों को दरकिनार करते हुए अखिलेश गुट को ही असली सपा माना गया। कहा जाता है कि मुलायम सिंह राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं और कब क्या दांव लगाना है वह भलीभांति जानते हैं। पर इस बार वह मात खा गए। सियासी धुरंधर होने के बावजूद वह हवा का रुख नहीं देख पाए। पार्टी भी गई, साइकिल भी गई और पुत्र भी हाथ से निकल गया। अब मुलायम के सामने तीन ही विकल्प बचे हैं। पहला कि कोर्ट जाकर चुनाव आयोग के फैसले पर स्टे की अपील करें। हमें नहीं लगता कि सुप्रीम कोर्ट अब ऐसा करेगा क्योंकि चुनाव आयोग ने ठोस सबूतों पर ही ऐसा महत्वपूर्ण फैसला दिया है। रामगोपाल यादव ने कहा है कि मुलायम गुट कोई ठोस सबूत चुनाव आयोग के समक्ष पेश ही नहीं कर सका। इसमें फायदा भी नहीं दिखता क्योंकि चुनाव आयोग यूपी चुनाव की अधिसूचना जारी कर चुका है। एक बार अधिसूचना जारी हो जाए तो मामले में न्यायपालिका के दखल की गुंजाइश कम हो जाती है। दूसरा यह कि मुलायम अब शिवपाल एंड कंपनी का साथ छोड़कर अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वीकार कर लें और सपा के संरक्षक की भूमिका स्वीकार कर लें। उनके समधी लालू प्रसाद यादव ने भी यह सलाह दी है कि गुस्सा थूक कर सांप्रदायिक ताकतों को हराने के लिए अखिलेश को आशीर्वाद दें। पर हमें संदेह है कि मुलायम इस विकल्प को चुनें क्योंकि इसका एक मतलब यह होगा कि मुलायम राजनीतिक संन्यास के लिए तैयार हैं, ऐसा शायद ही वह करने पर तैयार हों। अंतिम विकल्प है मुलायम सिंह अलग चुनाव लड़कर जनमत को अपना पक्ष दिखाएं। अगर अखिलेश गुट से ज्यादा वोट और सीटें ले आएं तो उन्हें ही असली समाजवादी पार्टी माना जाएगा, पर इसकी संभावना बहुत कम है। अब जब चुनाव चिन्ह, पार्टी का भी फैसला हो गया है तो अब सबका ध्यान चुनाव पर लग जाएगा। अखिलेश गुट का मानना है कि पूरे विवाद में अखिलेश को बहुत फायदा हुआ है और उनका पुन सत्ता में आना तय है। महागठबंधन बनने की संभावना इस फैसले से बढ़ गई है, अगर ऐसा होता है तो भाजपा-बसपा दोनों के लिए चुनौती बढ़ जाएगी।

Tuesday, 17 January 2017

बराक ओबामा के आठ साल, अलविदा ओबामा

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा आठ साल का कार्यकाल पूरा करके अपने पद से विदाई ले रहे हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा ऐसे समय व्हाइट हाउस से विदा हो रहे हैं जब अमेरिका ने अपने लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे कटुता भरे चुनाव में अपना नया राष्ट्रपति चुना। ओबामा ने आठ नवम्बर 2008 को बतौर पहले अफ्रीकी अमेरिकन व्यक्ति के रूप में राष्ट्रपति का पद संभाला था। ओबामा को वर्ष 2009 के नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। ओबामा शासन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही दो मई 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में एक अमेरिकी सैनिकों के विशेष दस्ते ने रात में कार्रवाई करके कुख्यात अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को मारा। लंबे समय से इराक में फंसी अमेरिकी सेना का वापसी का रास्ता ओबामा ने 15 दिसम्बर 2011 को तब खोला जब उन्होंने इराक युद्ध की समाप्ति की घोषणा की। नौ नवम्बर 2012 को ओबामा रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनो को हराकर दोबारा चार साल के लिए राष्ट्रपति बने। 28 दिसम्बर 2014 को उन्होंने अफगानिस्तान में सेना की कार्रवाई की समाप्ति की घोषणा की। जुलाई 2015 में अमेरिका ने उनके नेतृत्व में ईरान को परमाणु कार्यक्रमों की चरणबद्ध समाप्ति के लिए राजी कर उस पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाने का समझौता किया। इसी महीने के आखिरी दिनों में ओबामा ने क्यूबा के साथ 50 साल पुराने बिगड़े रिश्तों को बहाल किया। कुल मिलाकर बराक ओबामा एक सफल राष्ट्रपति रहे। जब 2008 में ओबामा पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे तो उसे इतिहास की सबसे बड़ी खाई पाटने वाली घटना के रूप में देखा गया थाöक्योकि पहली बार एक अश्वेत अमेरिका का राष्ट्रपति बनाöऔर जब वे लगातार दो कार्यकाल पूरा कर राष्ट्रपति पद छोड़ने जा रहे हैं तो अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों तथा सामाजिक सरोकारों को लेकर चिन्ता छाई हुई है। इसलिए ओबामा ने पद छोड़ने से 10 दिन पहले दिए अपने विदाई भाषण में उचित ही उन चिन्ताओं को सामने रखा, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता तथा सामाजिक सौहार्द को अमेरिका की पहचान बताया और अपने उत्तराधिकारी डोनाल्ड ट्रंप को नसीहत दी कि अमेरिकी मुस्लिमों समेत देश के सभी अल्पसंख्यकों की रक्षा करना हमारा दायित्व है, अमेरिकी मुस्लिम भी उतने ही देशभक्त हैं जितने अन्य अमेरिकी। बराक ओबामा भारत के दोस्त हैं। उनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अच्छी दोस्ती व कैमिस्ट्री रही। अमेरिकी नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बारे में उनके कट्टर रवैये की चर्चा हो रही है। माना जा रहा है कि उनके राष्ट्रपति बनने पर विश्व में हिंसा के हालात बनेंगे। उनकी तुलना में डेमोक्रेटिक पार्टी (ओबामा) का शासन बेहतर बताया गया था। पर ताजा आंकड़े तो कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ओबामा के शासन में अमेरिका बेहद आक्रामक रहा है। 2016 में उनके शासन में विभिन्न देशों में 26,171 बम गिराए गए। यह आंकड़ा पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के कार्यकाल से 130 प्रतिशत अधिक है। सबसे अधिक हमले पाकिस्तान, अफगानिस्तान, लीबिया, यमन, सोमालिया, इराक और सीरिया में किए गए। इन देशों में तो गृहयुद्ध के हालात हैं। इस समय 138 देशों में अमेरिकी सेनाएं मौजूद हैं। पाकिस्तान, यमन, सोमालिया, लीबिया में पिछले सात सालों में 600 नागरिक इन अमेरिकी हमलों में मारे गए। दुनिया में हथियार आपूर्ति में भी अमेरिका 31 प्रतिशत की हिस्सेदारी से अव्वल नम्बर पर है। निवर्तमान राष्ट्रपति और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के बीच के फर्क ने ओबामा के कार्यकाल को और प्रशंसनीय बना दिया है अन्यथा बराक ओबामा का कार्यकाल मिश्रित ही माना जाएगा। खैर, अलविदा बराक ओबामा।

-अनिल नरेन्द्र

राहुल गांधी के भूकंप की टांय-टांय फिस्स

अब जब माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सहारा-बिड़ला डायरी मामले में स्पष्ट व दो टूक फैसला दे दिया है कि इस केस में कोई एसआईटी जांच नहीं होगी तो उम्मीद है कि अब यह मुद्दा समाप्त समझा जाए। अदालत ने एफआईआर दर्ज करने का आदेश देने से इंकार करते हुए कहा कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को औद्योगिक घरानों की ओर से घूस देने का कोई सबूत नहीं है। कोर्ट के मुताबिक इस मामले में डायरी नोटिंग्स को सबूत की तरह नहीं लिया जा सकता। गौरतलब है कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (बतौर मुख्यमंत्री, गुजरात) समेत कई दलों से जुड़े मौजूदा और पूर्व मुख्यमंत्रियों पर बड़े कारपोरेट घरानों से पैसे लेने का आरोप लगाया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने कांग्रेस व इन विपक्षी दलों के आरोपों की हवा निकाल दी है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के तौर पर पेश किए जा रहे कथित दस्तावेजों को अविश्वसनीय पाया, बल्कि उसका यह कथन है कि राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता। इसका मतलब तो यही है कि कांग्रेस ने सहारा-बिड़ला की डायरियों के बहाने सियासी हित साधने की तैयारी की। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल ने किस तरह दिल्ली विधानसभा का एक दिन का सत्र केवल इन संदिग्ध डायरियों की एंट्रियों की नुमाइश करने के लिए विशेष रूप से बुलाया और राहुल गांधी ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि मैं रहस्योद्घाटन करके भूकंप ला दूंगा। इस प्रकरण से जैन हवाला कांड की याद आना स्वाभाविक है। नरसिंह राव सरकार के समय एक व्यवसायी एसके जैन के यहां मिली डायरी में कुछ नेताओं के नाम के समक्ष धनराशि का विवरण भी दर्ज था। इस विवरण से यह आशय निकाल लिया गया कि उस व्यवसायी ने नेताओं को पैसे दिए हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट गया और जांच के आदेश हो गए। लाल कृष्ण आडवाणी समेत कई नेताओं ने संसद सदस्यता छोड़ी। तमाम गहन जांच के बाद मामला फर्जी निकला। जिन नेताओं ने इस्तीफा दिया था उन्होंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब यह बात कहीं  ज्यादा भरोसे के साथ बोली जाने लगी है कि अगर ऐसे किसी भी कागज या डायरी के आधार पर जांच होने लगे तो फिर सिस्टम का चलना ही मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री पर हमला बोलने वाले राहुल गांधी ने इसका जिक्र नहीं किया कि डायरियों में शीला दीक्षित का भी नाम है, बल्कि उन्होंने इसकी भी अनदेखी की कि खुद शीला दीक्षित ने इन दस्तावेजों को झूठा बताया है। नोटबंदी पर सरकार को घेरने में नाकाम रहे विपक्ष के लिए इस मुद्दे का फुस्स हो जाना हताशाजनक तो है ही, साथ ही उसकी सामूहिक दिशाहीनता का भी परिचायक है।

Sunday, 15 January 2017

सारे रिकार्ड तोड़ती आमिर की दंगल

आमिर खान की फिल्म दंगल ने बॉक्स ऑफिस के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। यह फिल्म भारतीय सिनेमा की अब तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली बन गई है। मैंने यह फिल्म देखी है। यह फिल्म हर भारतीय विशेषकर महिलाओं और युवाओं के दिलों को छू जाती है। यह फिल्म लड़कियों के प्रति हमारे समाज के कुछ लोगों के नजरिये पर भी चोट करती है जो लड़कियों को लड़कों से हर दृष्टि से कम आंकते हैं। फिल्म हरियाणा के पहलवान महावीर सिंह फोगाट और उनकी बेटियों गीता व बबीता की जीवनी पर आधारित है। चूंकि यह उनके संघर्ष की सच्ची कहानी है इसलिए भी लोगों को इतनी पसंद आई है। दंगल ने आमिर खान की ही फिल्म पीके और सलमान खान की बजरंगी भाईजान और सुल्तान के भी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। इस फिल्म के निर्माता के मुताबिक दंगल ने तीसरे सप्ताह भी 30.5 करोड़ रुपए का कारोबार किया। ऐसा रहा तो यह फिल्म सिनेमाघरों से हटने तक 400 करोड़ रुपए का कारोबार कर लेगी। इससे भी ज्यादा हो सकता है। इससे पहले पीके ने 340 करोड़ का कुल कारोबार किया था, जिसे दंगल तीसरे हफ्ते में ही पार कर चुकी है। अब सबसे ज्यादा कमाई के मामले में नम्बर एक और दो पर आमिर की ही फिल्में हैं। इसके बाद आती है सलमान की सुल्तान जिसने 300 करोड़ रुपए का कारोबार किया। मिस्टर परफैक्शनिस्ट (आमिर खान) ने अपनी फिल्म गजनी से 114 करोड़ रुपए का कारोबार कर 100 करोड़ी क्लब की शुरुआत की थी। इसके बाद उनकी फिल्म थ्री इडियट्स ने 202 करोड़ रुपए कमाकर इस क्लब को दोगुना कर दिया। इतना ही नहीं, तीन सौ करोड़ी क्लब की शुरुआत भी आमिर ने ही अपनी फिल्म पीके से की थी। अब लगता है कि 400 करोड़ी क्लब की शुरुआत भी आमिर करेंगे। आमिर ने फिल्म की सफलता पर एक बयान में कहाöएक आर्टिस्ट के लिए इससे बड़ी हौसला अफजाई नहीं हो सकती। बहुत-बहुत शुक्रिया। और नीलेश सर आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, धन्यवाद। हरियाणा के पहलवान महावीर सिंह फोगाट के संघर्षपूर्ण जीवन और अपनी छोरियों को पहलवान बनाने की धुन से प्रभावित नीलेश तिवारी ने इस फिल्म का निर्देशन किया है। इस फिल्म में दिखाया गया है कि चार बेटियों के पिता महावीर ने किस तरह अपने जुनून के बूते गीता और बबीता को पहलवान बनाया और इन लड़कियों ने साबित कर दिया कि किसी भी मायने में वे छोरों से कम नहीं हैं। गीता फोगाट ने राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा था। उनकी राह पर चलती हुई बबीता ने भी कई पदक जीतकर हरियाणा की दंगल परंपरा की धमक जमाई। हालांकि फिल्म को लेकर कुछ विवाद भी उठा। फिल्म में गीता के कोच की भूमिका पर सवाल उठाए जाने पर उनके असली कोच सोटी ने नोटिस भेजने की धमकी दी तो फिल्म में मांसाहार को बढ़ावा देने का आरोप भी लगा। इन विवादों से दूर दंगल अपने कमाई अभियान पर सक्रिय रही। दंगल से पहले आमिर की गजनी, थ्री इडियट्स और पीके कमाई के झंडे गाढ़ चुकी हैं। हाल ही में आई सलमान की सुल्तान भी दंगल को नहीं पछाड़ सकी। हालांकि कुछ फिल्म प्रेमियों का कहना है कि इसी सब्जैक्ट पर सुल्तान आ चुकी है, शायद दंगल का कारोबार प्रभावित हो। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सुल्तान और दंगल बेशक कुश्ती पर आधारित फिल्में हों पर दोनों की कहानी बिल्कुल अलग है और यह कहना गलत नहीं होगा कि ये दोनों अलग-अलग फिल्में हैं। आमिर के अनुसार फोगाट परिवार से पहले ही वे परिचित हो चुके थे। अपने कार्यक्रम सत्यमेव जयते में उन्होंने फोगाट बहनों से बातचीत की थी। अगर आपने अभी यह फिल्म नहीं देखी तो अपने पूरे परिवार के साथ यह साफ-सुथरी संदेश देने वाली फिल्म जरूर देखें।

-अनिल नरेन्द्र

न थमता किसानों की आत्महत्या का सिलसिला

मोदी सरकार किसानों के हित में भले ही `किसान कल्याण' जैसी तमाम योजनाओं की घोषणा करने में लगी हुई है लेकिन राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने चौंकाने वाले आंकड़ों का खुलासा किया है। इनके आंकड़ों के मुताबिक 2015 में 2014 से ज्यादा किसानों और कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की हैं। कहने को मोदी सरकार 2014 में ही बनी थी। लेकिन 2015 में पूरी तरह सरकार में थी। यहां यह बता दें कि एनसीआरबी एक साल के पहले के डाटा ही जारी करता है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने किसानों की आय को दोगुना करने, फसल बीमा योजना जैसी तमाम योजनाएं शुरू की हुई हैं। इससे पहले अगर 2014 और 2015 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्ष 2015 में कुल 8007 किसानों ने आत्महत्या की थी, जो वर्ष 2014 में आत्महत्या करने वाले 5650 किसानों की संख्या से 42 प्रतिशत अधिक है। हालांकि इस दौरान कृषि श्रमिकों की आत्महत्या में कमी भी दर्ज की गई है। 2014 के मुकाबले में 31 प्रतिशत किसानों ने कम आत्महत्याएं की हैं। आंकड़ों के अनुसार 2014 में जहां 6710 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की थी, वहीं 2015 में 4595 कृषि श्रमिकों ने मौत को गले लगा लिया। एनसीआरबी की रिपोर्ट `एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015' नाम की इस रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 के मुकाबले 2015 में किसानों और कृषि मजदूरों की कुल आत्महत्या में दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। वर्ष 2015 में कुल 12602 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की, जबकि वर्ष 2014 में कुल 12360 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की। किसानों की 87 प्रतिशत से अधिक आत्महत्याएं सात राज्योंöमहाराष्ट्र (4291), कर्नाटक (1569), तेलंगाना (1400), मध्यप्रदेश (1290), छत्तीसगढ़ (954), आंध्रप्रदेश (916) और तमिलनाडु (606) में हुई हैं। गौरतलब है कि वर्ष 2014 और 2015 में कम वर्षा के चलते देश का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में था। बताया जा रहा है कि इनमें 38.7 प्रतिशत किसानों ने कंगाली, कर्ज और खेती में दिक्कत के चलते जान ली। इनमें भी 73 प्रतिशत आत्महत्या करने वाले किसानों के पास दो एकड़ या उससे कम जमीन थी। आंकड़ों पर नजर डालें तो जहां आत्महत्या करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र सबसे आगे है वहीं दक्षिण भारत के राज्यों का नाम भी किसानों की आत्महत्या के मामलों में दर्ज है। इन आंकड़ों में उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का कोई ब्यौरा नहीं दिया गया। हमें लगता है कि आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा और भी ज्यादा है। तमाम उपायों, सुविधाओं के बावजूद किसानों की आत्महत्या रोकना किसी भी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए जो नहीं हो रही।

Saturday, 14 January 2017

गोवा में भाजपा को दोबारा सत्ता में आने की चुनौती

गोवा में 40 सीटों की विधानसभा के लिए चार फरवरी को मतदान होगा। इस समय भाजपा 21 सीटों के साथ सरकार में है। मुख्यमंत्री हैं लक्ष्मीकांत। गोवा में इस बार मुकाबला त्रिकोणीय होने की संभावना है। चार फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा, विपक्षी कांग्रेस और पहली बार अपनी किस्मत आजमाने वाली आम आदमी पार्टी (आप) आमने-सामने होंगी। 2012 के चुनाव में मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में भाजपा ने जीत हासिल की थी। तब महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) के साथ उसका गठबंधन था। लेकिन अब यह गठबंधन टूट गया है। महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) ने चुनावों की घोषणा होने के बाद भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया है। एमजीपी प्रमुख दीपक फवलीकर ने गोवा की राज्यपाल मृदुल सिन्हा और विधानसभा स्पीकर अनंत सेठ को पत्र लिखकर इस संबंध में सूचना दे दी है। राज्य में 40 सीटों पर अब वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व नेता सुभाष वेलिंगकर की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी। शिवसेना के भी इस गठबंधन के साथ शामिल होने की संभावना है। फवलीकर ने बताया कि उनकी पार्टी 22 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस पार्टी के लिए यह अस्तित्व बचाने का अवसर है। 2012 के चुनाव में नौ सीट के साथ वह न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई थी। पिछले झटके से सबक सीखते हुए अब वह गोवा फारवर्ड, राकांपा और यूनाइटेड गोवांस पार्टी के साथ तालमेल के लिए तैयार हो गई है। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप ने भी गोवा के चुनावी मैदान में ताल ठोंकी है। भाजपा और कांग्रेस से अलग रहने वाले कई संगठन व नेता आप के साथ जुड़ने से यह पार्टी भी ताकतवर बनकर उभरी है। भाजपा से गठबंधन तोड़ चुकी एमजीपी ने राज्य के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पार्सेकर के खिलाफ मांदेय विधानसभा क्षेत्र में प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है। एमजीपी ने पहले ही पार्सेकर के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था। सुदीप फवलीकर ने आरोप लगाया कि पार्सेकर के कार्यकाल में राज्य 10 साल पीछे चला गया है। पुर्तगाल से आजाद होने के बाद एमजीपी ने राज्य में पहली सरकार बनाई थी। राज्य के पहले दो मुख्यमंत्री भी इसी पार्टी के थे। 18 साल तक गोवा में एमजीपी की ही सत्ता रही। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी तीन सीटें ही जीत पाई थी। चुनाव में प्रमुख मुद्दों पर नजर डालें तो नशे के कारोबार पर अंकुश लगाना सबसे बड़ी चुनौती है। गोवा अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाने के लिए आतुर है। दोहरी नागरिकता भी बड़ा मुद्दा है। राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था भी चिन्ताजनक रही है। कुल मिलाकर मुकाबला तगड़ा है। भाजपा के लिए दोबारा सत्ता हासिल करना आसान नहीं लग रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

क्यों न हों जवाबदेह ये गैर सरकारी संगठन?

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को जवाबदेही के दायरे में लाने के लिए उनके खातों का 31 मार्च तक ऑडिट कराने के निर्देश का स्वागत है। वार्षिक लेखाजोखा न देने वाले गैर सरकारी संगठनों को सिर्फ काली सूची में डालने को अपर्याप्त बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ऐसे एनजीओ के खिलाफ दीवानी और आपराधिक कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया है। साथ ही शीर्ष अदालत ने सरकार से पूछा कि आखिर गैर सरकारी संगठनों एवं समितियों के कोष और उनके उपयोग की निगरानी के लिए अब तक कोई नियामक व्यवस्था क्यों नहीं है? किस्म-किस्म के गैर सरकारी संगठन कहां से कितना धन हासिल करते हैं और उसे किस तरह खर्च करते हैं, यह सब सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था का निर्माण तो बहुत पहले कर दिया जाना था यानि अब हर एनजीओ को जनता के पैसों का हिसाब देना होगा। देशभर में लगभग 32 लाख एनजीओ हैं, जिनमें से केवल तीन लाख ही अपनी बैलेंस शीट फाइल करते हैं। उन पर निगरानी रखने के लिए कोई समुचित विकसित तंत्र भी नहीं है। प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर, न्यायमूर्ति एनवी रमण और न्यायमूर्ति धनंजय चन्द्रचूड़ की बैंच ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए गबन करने वाले एनजीओ के खिलाफ फौजदारी मुकदमा चलाने का भी निर्देश दिया। हाल में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने करीब 20 हजार गैर सरकारी संगठनों के विदेश से पैसा लेने के लाइसेंस को इसलिए रद्द किया था, क्योंकि वे विदेशी चन्दा नियमन कानून के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन कर रहे थे। क्या इस बारे में सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि जो गैर सरकारी संगठन विदेश से पैसा नहीं ले रहे हैं वे अपना काम सही तरह कर रहे हैं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ऐसे संगठनों के खातों का कोई ऑडिट नहीं होता। यह तो एक तरह की अंधेरगर्दी ही है कि देश में करीब 30 लाख गैर सरकारी संगठन हैं लेकिन इनमें से मुश्किल से तीन लाख ही अपने आय-व्यय का विवरण देते हैं। लेकिन जनता के पैसों के साथ धोखाधड़ी करने वाले एनजीओ का यह एक पक्ष है। यानि सिर्फ एनजीओ ही इसके लिए अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। इसमें चार तरह के गठजोड़ शामिल हैं, जो मिलजुल कर हेराफेरी और गबन करते हैं। मसलन, केंद्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड, कपार्ट और जिला ब्लॉक स्तर पर कार्यरत सरकारी संस्थाएं जिन्हें दाता (डोनर एजेंसी) संस्था कहा जाता है। दूसरे एनजीओ के कामकाज को मॉनिटर करने वाले, तीसरे ऑडिटर व सीए व चौथा खुद एनजीओ। सबसे गंभीर बात यह है कि कई गैर सरकारी संगठन पर्यावरण और मानवाधिकारों की रक्षा के बहाने विकास विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं। आमतौर पर संदिग्ध किस्म के गैर सरकारी संगठनों के खिलाफ कोई कार्रवाई इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि स्पष्ट नियम-कानूनों का अभाव है।

Friday, 13 January 2017

लातों के भूत बातों से नहीं मानते, पाक बाज आने वाला नहीं

पठानकोट की तरह एक बार फिर साल के शुरू में ही जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमला हुआ। जम्मू-कश्मीर के अखनूर सेक्टर में रविवार रात एक बजे आतंकियों ने जनरल रिजर्व इंजीनियरिंग फोर्स के शिविर पर हमला करके शिविर में काम करने वाले तीन मजदूरों को मौत के घाट उतार दिया। शिविर पर पहले हथगोले फेंके, फिर अंधाधुंध गोलियां चलाईं, वहां रखे वाहनों और दफ्तरी दस्तावेजों में आग लगाई और अंधेरे तथा कोहरे का फायदा उठाकर भागने में सफल रहे। उस वक्त शिविर में 10 कर्मचारी और 10 मजदूर मौजूद थे। आतंकी हमले में तीन मजदूर मारे गए। इससे पहले, आतंकियों ने जम्मू के ही नगरोटा क्षेत्र में सेना के एक शिविर पर हमला बोला था, जिसमें दो अधिकारी समेत सात जवानों की जान गई थी। उसी दिन सांबा जिले में सीमा सुरक्षा बल के एक शिविर पर भी आतंकी हमला हुआ था। इन दहशतगर्दों ने 40 दिन बाद फिर हमला बोलकर यह जता दिया कि उनकी सक्रियता न सिर्फ बनी हुई है, बल्कि शायद और बढ़ गई है। आतंकियों ने जिस तरह धावा बोला उससे इसी अंदेशे को बल मिलता है कि इन आतंकियों के लिए भारतीय सीमा को भेदना अभी भी आसान बना हुआ है। इससे आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था के मुकम्मल होने पर एक बार फिर सवाल उठते हैं। दूसरे, नोटबंदी से आतंकवाद की कमर टूट जाने के सरकार के दावे पर भी सवालिया निशान लगता है। यह समझना कठिन है कि नियंत्रण रेखा से महज दो किलोमीटर निकट भी सुरक्षा व्यवस्था इतनी पुख्ता क्यों नहीं है कि आतंकी इतनी आसानी से हमले को अंजाम दे रहे हैं? न केवल हमला ही करते हैं, हमला करने के बाद भागने में भी सफल हो रहे हैं? पिछले साल सितम्बर में सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद खूब बढ़चढ़ कर ये दावे किए गए थे कि अब घुसपैठ करने और यहां आकर कोई वारदात करने से पहले आतंकी सौ बार सोचेंगे। 38 आतंकियों को ढेर कर देने तथा सीमा पार स्थित आतंकी ढांचा नष्ट कर देने के दावे से यह भी लगा था कि अब आतंकियों की ताकत बहुत कम हो गई है। लेकिन ये उम्मीदें अब धूमिल होती जा रही हैं। वस्तुस्थिति जो भी हो, इस आशंका को दूर किया जाना चाहिए कि पहली बात कि आतंकियों के लिए अब भी हमारी सीमा में घुसना, दूसरा इतनी आसानी से हमला करना अब भी संभव है। सीमा पर सुरक्षा को प्राथमिकता देना और अभेद्य बनाना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि पठानकोट, उड़ी और नगरोटा में हुए भीषण आतंकी हमलों ने यह साबित कर दिया है कि वह जब चाहें, जहां चाहें हमले को अंजाम दे सकते हैं। सेना के शिविरों पर हमलों के बाद भारत सरकार को यह भी समझ लेना चाहिए कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। पाकिस्तान के रुख-रवैये में कोई बदलाव आने की उम्मीद नहीं, हमें अपना घर पक्का करना होगा।

कांग्रेस और हरीश रावत के लिए चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न

उत्तराखंड में 15 फरवरी को विधानसभा चुनाव के शंखनाद के बाद सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं। कांग्रेस के लिए यह चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पार्टी दूसरी बार प्रदेश की सत्ता की बागडोर अपने हाथों में लेने को उतावली है तो इसकी सियासी वजह भी हमें समझ आती है। कांग्रेस की असली चिन्ता राज्यों में सिमटते जनाधार को बचाने की है। भाजपा के प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर बैठने के बाद कांग्रेस राज्यों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने हेतु आने वाले समय में केंद्रीय सत्ता पर अपनी दावेदारी को और मजबूत करने के लिए आने वाले पांच राज्यों में चुनाव जीतने का पूरा प्रयास करेगी। इस लिहाज से विधानसभा चुनाव में भी सत्ताधारी दल होने के बावजूद कांग्रेस अपनी तैयारी को लेकर बेहद सतर्क और सजग तो है ही, उसे आक्रामक बनाने में कसर नहीं छोड़ रही है। चुनाव से पहले विभिन्न सर्वेक्षणों में पीछे चल रही कांग्रेस को अब चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर नामक च्यवनप्राश का सहारा है। रविवार को प्रेस कांफ्रेंस में इस बारे में सवाल करने पर सीएम हरीश रावत ने प्रशांत किशोर को च्यवनप्राश बताते हुए कहाöबढ़ती उम्र में ऐसे टॉनिकों का सहारा लेना पड़ता है। चुनावी रणनीति तय करने के लिए उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से नियुक्त चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बीच कई बैठकों का दौर हो चुका है। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने घोषणा की कि 14 या 15 जनवरी तक कांग्रेस के सभी उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी जाएगी। वहीं दूसरी ओर सांगठनिक रूप से खासी मजबूत मानी जाने वाली भाजपा पांच साल पहले गंवाई सत्ता पर इस बार फिर काबिज होने के लिए हर मुमकिन दांव आजमा रही है। पिछले कई महीनों से संगठन स्तर पर चलाए जा रहे कार्यक्रमों के जरिये पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में लगी हुई है। पार्टी को सांगठनिक तैयारियों के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी केंद्र सरकार पर भी बड़ा भरोसा है कि चुनावी नैया को पार लगाने में केंद्र की भी अहम भूमिका रहेगी। भाजपा ने जनवरी के पहले सप्ताह में सभी 70 विधानसभा सीटों पर त्रिशक्ति सम्मेलनों का आयोजन कर बूथ स्तर
 तक जाकर कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने का अभियान चलाया। पीएम की देहरादून में पिछले दिनों हुई रैली में जिस कदर जन सैलाब उमड़ा उससे भाजपा फूली नहीं समा रही है। इसी कार्यक्रम में केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी 12 हजार करोड़ रुपए की ऑल वेदर रोड का शिलान्यास किया गया। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह वाराणसी को स्कैन करना शुरू कर दिया था, उसी तरह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत भी केदारनाथ विधानसभा क्षेत्र को स्कैन करने में जुटे हैं। अपने कार्यकाल में रावत ने इस क्षेत्र में 33 दौरे किए, जिनमें से 28 केवल केदारनाथ धाम के थे। बदली स्थितियों में केदारनाथ से चुनाव लड़कर वह गढ़वाल में कांग्रेस संगठन को दे सकते हैं मजबूती। असल में जिन 10 विधायकों ने कांग्रेस का हाथ छोड़ा, उनमें ज्यादातर गढ़वाल के हैं। इससे यहां पार्टी संगठन की स्थिति कमजोर हुई है। जबकि कुमाऊं मंडल में मुख्यमंत्री का अब भी अच्छा प्रभाव है। ऐसे में माना जा रहा है कि केदारनाथ से दांव खेलने पर वह गढ़वाल में कांग्रेस को मजबूती देने का कार्य कर सकते हैं। उत्तराखंड में दोनों दलों में कांटे की टक्कर है। पिछले चुनाव में कांग्रेस की एक सीट ज्यादा थी।

-अनिल नरेन्द्र

Thursday, 12 January 2017

गिरगिट की तरह रंग बदलते मुलायम सिंह यादव


तमाम उठापटक के बाद सोमवार को आखिर समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बोल ही दिया कि चुनाव बाद अखिलेश ही सीएम होंगे। सपा के इस महादंगल में अभी तक सख्त दिख रहे मुलायम के इस यू-टर्न को लेकर सियासी गलियारों में चर्चा हो रही है कि यह उनके मन की बात है या तयशुदा पटकथा? सवाल किया जा रहा है कि क्या अंतत सपा समझौते की राह पर है? सपा में टिकटों के बंटवारे को लेकर शुरू हुआ विवाद पार्टी के बंटवारे और चुनाव चिन्ह तक पहुंच गया है। अखिलेश को मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाने की घोषणा इसकी बड़ी वजह थी। मुलायम ने पहले कहा था कि मुख्यमंत्री का चुनाव विधायक दल करेगा (चुनाव परिणाम के बाद)। इसके बाद कहा कि सपा में किसी को सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट करने की परंपरा नहीं है। उन्हीं मुलायम ने सोमवार को ऐसा यू-टर्न लिया कि राजनीति के दिग्गज अलग-अलग मायने निकालने पर मजबूर हो गए हैं। दो खेमों में बंट चुकी सपा के दोनों पक्षों ने सोमवार को निर्वाचन आयोग में अपनी-अपनी बातें, दलीलें रखीं। मुलायम सिंह जब रविवार को लखनऊ से दिल्ली के लिए रवाना हुए थे तब भी उनका रुख बदला-बदला सा था। अचानक पार्टी कार्यालय पहुंचकर उन्होंने शीघ्र विवाद सुलझ जाने के संकेत दिए थे। कहा था कि पार्टी में कोई विवाद नहीं है। जो थोड़ा बहुत मामला है, उसे जल्द सुलझा लिया जाएगा। एक तरफ तो मुलायम कह रहे हैं कि कोई विवाद नहीं है दूसरी तरफ सपा के दोनों गुट अब सारी लड़ाई चुनाव चिन्ह साइकिल पर लड़ रहे हैं। दोनों गुटें की रणनीति अब साइकिल के हक पर केंद्रित हो गई है। साइकिल का मलिक तय हो तो उनकी चुनावी गाड़ी आगे बढ़े। सोमवार को यह लड़ाई या ड्रामा जो भी कहें चुनाव आयोग पहुंच गया है। एक जनवरी को राष्ट्रीय प्रतिनिधि सम्मेलन में अखिलेश यादव को अध्यक्ष चुने जाने के बाद सपा औपचारिक रूप से दो फाड़ हो गई है। अब समाजवादी पार्टी के दो अध्यक्ष हैं, मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव। कौन असली अध्यक्ष है, यह साबित होना है। पिता-पुत्र के आमने-सामने आने से सपा के चुनाव चिन्ह साइकिल को लेकर जंग छिड़ी हुई है। दोनों खेमे चुनाव आयोग में अपने-अपने पक्ष की दलीलें दे चुके हैं। प्रदेश में 17 जनवरी से पहले चरण के मतदान के लिए नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इससे पहले ही प्रत्याशियों को चुनाव चिन्ह का आबंटन शुरू हो जाएगा। यानी दोनों ही खेमों के पास वक्त बहुत कम बचा है। मुलायम को नए सिरे से अपने प्रत्याशियों का चयन करना है तो अखिलेश को गठबंधन को अंतिम रूप देना है। ये दोनों काम भी बहुत हद तक चुनाव चिन्ह की प्रतीक्षा में अटके हैं। उम्मीद है कि इसी सप्ताह आयोग कोई फैसला सुनाएगा। जाहिर है कि किसी एक गुट को सिम्बल मिलेगा या फिर जब्त हो जाएगा? राजनीति के जानकार सिम्बल जब्त होने की ज्यादा संभावना जता रहे हैं। भारत निर्वाचन आयोग दोनों गुटों को सुन चुका है। सोमवार को दोनों गुटों ने दूसरी बार अपना पक्ष रखा। आयोग ने जल्द फैसला नहीं सुनाया तो सिम्बल जब्ती के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा। ऐसे में दोनों गुटों को अस्थायी तौर पर मान्यता देते हुए नए सिम्बल आबंटित किए जा सकते हैं।

öअनिल नरेन्द्र

बीएसएफ जवान सीमा पर भूखे रहने को मजबूर


सीमा पर अपनी जान की बाजी लगा रहे हमारे बहादुर जवानों को पेट भर खाना भी नसीब नहीं हो रहा है। जम्मू-कश्मीर में बीएसएफ के एक जवान ने अपने अफसरों पर गम्भीर आरोप लगाए हैं। 29वीं  बटालियन के जवान तेज बहादुर यादव ने रविवार को फेसबुक पर एक के बाद एक 4 वीडियो पोस्ट किए। फेसबुक पर यादव के 4 वीडियो एक दिन में 65 लाख बार देखे गए। इसमें तेज बहादुर यादव ने जवानों को खराब खाने की शिकायत करते हुए कहा कि सरहद पर जवान 11 घंटे की ड्यूटी करने के बाद भी भूखे सोने को मजबूर हैं। क्योंकि अधिकारी राशन बेच देते हैं। पहले वीडियो में यादव ने बताया कि हम सुबह 6 से 5 बजे तक बर्फ में खड़े होकर ड्यूटी देते हैं। हमारी स्थिति न मीडिया दिखाता है, न मिनिस्टर सुनता है। कोई भी सरकार आए, हमारे हालात वही हैं। हम सरकार पर आरोप नहीं लगाना चाहते। सरकार हर सामान देती है पर अन्य अधिकारी बेचकर खा जाते हैं। हमें कुछ भी नहीं मिलता। कई बार जवान भूखे पेट सोते हैं। मैं प्रधानमंत्री से कहना चाहता हूं कि वे इसकी जांच कराएं। दोस्तो यह वीडियो डालने के बाद शायद मैं रहूं या न रहूं। अधिकारियों के हाथ बहुत बड़े हैं। वे मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं।  वीडियो 2 और 3 में दिखाया गया है कि किस तरह की दाल जवानों को परोसी जाती है। यह है बीएसएफ की दाल। सिर्फ हल्दी और नमक। न इसमें प्याज है, न लहसुन, अदरक। तड़का लगाने के लिए जीरा तक नहीं है। जवानों को दस दिन से यही दाल-रोटी मिल रही है। आप ही बताइए यह खाकर क्या कोई जवान दस घंटे ड्यूटी कर सकता है? अधिकारी सारा सामान बाजार में बेच देते हैं। चौथे वीडियो में दिखाया गया है नाश्ते का। सुबह के नाश्ते में एक जला हुआ पराठा और चाय का गिलास ही मिलता है। इसके साथ न जैम, न जेली और न अचार व दही। कुछ भी नहीं मिलता है। हम यह नहीं कह सकते कि यह आरोप कितने सत्य हैं पर अगर हैं तो यह अत्यन्त गंभीर हैं। अपनी जान की बाजी लगाने वाले हमारे बहादुर जवानों को पेटभर खाना न मिले लानत है। इससे बेहतर खाना तो तिहाड़ जेल में बंद खूनियों, दरिन्दों को मिलता है। बीएसएफ अधिकारी अपनी खाल बचाने के लिए उलटे-सीधे बहाने व आरोप तेज बहादुर यादव पर लगा रहे हैं। कहा जा रहा है कि उसे काउंसलिंग की जरूरत रही है। शराबखोरी, अफसरों से दुर्व्यवहार और अनुशासन तोड़ना उसकी आदत है। इस कारण ज्यादातर समय उसे हेडक्वाटर में ही रखा गया। जो वीडियो तेज बहादुर ने पोस्ट किया उसमें तो वह बर्फ में ड्यूटी देता दिखाई दे रहा है। अंग्रेजी में कहावत है डोन्ट शूट द मैसेंजर। यानी तेज बहादुर कैसा है प्रश्न यह नहीं, सवाल तो यह है कि जो वह दिखा रहा है वह सही है या नहीं। मामले की जांच कर कसूरवार अधिकारियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए।  

Wednesday, 11 January 2017

पंजाब में बिसात बिछ चुकी है

पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा के बाद सारे देश की नजरें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश और पंजाब पर टिक गई हैं। पंजाब के लोगों के पास अपने मन की बात कहने के लिए चुनाव कमिशन ने 30 दिन का वक्त दिया है। पंजाब में आम तौर पर अकाली-भाजपा गठबंधन बनाम कांग्रेस के बीच मुकाबला होता रहा है। पर इस बार आम आदमी पार्टी के चुनावी दंगल में कूदने के बाद मुकाबला त्रिकोणीय बनता नजर आ रहा है। चार फरवरी को होने जा रहे विधानसभा चुनाव में इन्हीं तीनों के बीच कड़ा संघर्ष होगा। पहले बात हम अकाली दल की करते हैं। 10 साल में राजसत्ता का सुख भोग चुके शिरोमणि अकाली दल के नेताओं ने पिछले छह महीनों के दौरान वह सब कुछ करने की तमाम कोशिशें की हैं जो उन्होंने पिछले साढ़े नौ साल के दौरान नहीं कीं। पार्टी का ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत आधार है और भाजपा के साथ गठबंधन से प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे का भी लाभ है। हरमंदिर साहिब स्वर्ण मंदिर का विकास, त्रिकोणीय मुकाबले में विरोधी वोटों का संभावित बंटवारे का भी पार्टी को लाभ मिल सकता है। दूसरी ओर इस गठबंधन के सामने चुनौतियां भी कम नहीं। एंटी इनकम्बेंसी से जूझना होगा। नशे का कारोबार और नोटबंदी के बाद बढ़ती बेरोजगारी, कानून व्यवस्था बड़ी चुनौतियां होंगी। कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस की इस जंग में नेतृत्व कर रहे हैं। नवजोत सिंह सिद्धू अगर कांग्रेस में शामिल होते हैं तो वातावरण में कांग्रेस को मजबूती मिलेगी। कांग्रेस की ताकत होगी, ड्रग्स, कारोबार, कानून व्यवस्था, बेरोजगारी और नाभा जेल व पठानकोट हमले जैसे मुद्दे। पर कांग्रेस के सामने भी चुनौतियां कम नहीं। कांग्रेस के लिए विभिन्न धड़ों को एकजुट करना, पार्टी नेताओं के बीच बेहतर तालमेल बैठाना, ग्रामीण क्षेत्रों में  पार्टी का प्रभाव बढ़ाना और सत्ता विरोधी वोटों के बंटवारे को रोकना कुछ चुनौतियां हैं। अकाली दल के साथ नवजोत सिंह सिद्धू जी की निजी रंजिश बहुत गहरी है, जिसका फायदा कांग्रेस को अवश्य मिलेगा। दूसरी तरफ उनकी जुबां आप पार्टी को भी नहीं बख्शने वाली होगी, क्योंकि सिद्धू ने आप की कुछ ऐसी-ऐसी हरकतें देखी हैं जिनके बाद वह चुप नहीं रहेंगे। आप पार्टी को अकाली दल और कांग्रेस से नाराज लोगों के व्यक्तित्व के बजाय मुद्दों पर आधारित सरकार का विकल्प देने वाले दल के रूप में उभरने का अवसर मिलेगा। नई पार्टी होने से जनता में शासन प्रणाली को लेकर किसी तरह की नाराजगी या असंतोष नहीं होगा। पर पंजाब में संगठन का सीमित दायरा, दिल्ली में केजरीवाल सरकार की कारगुजारी, आप से अलग हुए असंतुष्टों से बचना, पार्टी में एक प्रभावी सिख चेहरे की फिलहाल कमी यह है कुछ चुनौतियां केजरीवाल के सामने हैं। कुल मिलाकर पंजाब में चुनावी बिसात बिछ चुकी है। देखें, चुनावी प्रचार कैसा होता है।

-अनिल नरेन्द्र

प्रणब मुखर्जी की चिन्ता वाजिब है

नोटबंदी काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बेशक एक बड़ा कदम है मगर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की चेतावनी पर भी गौर करना जरूरी है कि इस कदम से दीर्घकाल में मिलने वाले लाभ की प्रत्याशा में गरीबों को हो रही तकलीफ की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। इस पर सरकार को गौर करना जरूरी है। राज्यपालों और उपराज्यपालों के लिए नए साल के अपने संबोधन में महामहिम ने दोहराया है कि नोटबंदी काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा कदम है लेकिन इसके साथ ही आशंका भी जताई है कि इससे आंशिक मंदी आ सकती है। आर्थिक विकास के दम पर मजबूत फैसले ले रही केंद्र सरकार के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि के अनुमान से यह साबित होता है कि नोटबंदी से देश को कुछ क्षेत्रों में नुकसान भी हो रहा है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने चालू वर्ष के लिए 7.1 प्रतिशत की विकास दर का अनुमान लगाया है जो कि एक साल पहले 7.6 प्रतिशत के मुकाबले कम है। मगर अर्थविद् और निजी आर्थिक एजेंसियां इस आंकड़े से इत्तेफाक नहीं रखतीं। उनकी मानें तो जब अंतिम तौर पर आंकड़े आएंगे तो विकास दर की तस्वीर वैसी नहीं रहेगी, जैसी बताई जा रही है। इन सभी का तर्क है कि जब नोटबंदी के असर को शामिल नहीं किया गया है तो फिर जीडीपी वृद्धि के आंकड़े सही कैसे हो सकते हैं? इन एजेंसियों की नजर में देश की विकास दर छह से 6.6 प्रतिशत के बीच रहेगी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि चालू वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के अनुमान में अधिकतर आंकड़े अप्रैल से अक्तूबर तक के ही शामिल किए गए हैं। मतलब है कि नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, इसका अनुमान इसमें नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते आठ नवम्बर को 500 और 1000 रुपए के पुराने नोटों को चलन से हटाने की घोषणा की थी। इसके बाद से ही विशेषज्ञों ने कहा था कि इस कदम का अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और विकास दर में दो प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। स्टेट बैंक का आकलन है कि फरवरी के अंत तक ही स्थिति 90 प्रतिशत तक सामान्य हो पाएगी। गरीब और वंचित तबके के लिए दो महीने का वक्त काफी लंबा होता है। जैसा कि राष्ट्रपति ने कहा है, वे अधिक इंतजार नहीं कर सकते, इसलिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि एक ऐसी पहल, जिसमें विकास की दूरगामी सोच शामिल है का हिस्सेदार बनने से जनता व हाशिये के लोग न छूट जाएं।

Tuesday, 10 January 2017

अखिलेश कांग्रेस से गठबंधन करने पर मजबूर हो सकते हैं

यूपी में चुनाव से ऐन पहले समाजवादी पार्टी में रार चरम पर पहुंच गई है। पिता-पुत्र का यह घमासान अगर खत्म हो जाए और समझौता हो जाए (जिसकी संभावनाएं दिन-प्रतिदिन घटती जा रही हैं) तो और बात है नहीं तो पार्टी दो धड़ों में बंटती नजर आ रही है। अब सवाल यह है कि क्या अखिलेश और मुलायम अलग-अलग लड़ेंगे। यदि ऐसा होता है तो किसका पलड़ा भारी होगा? सी वोटर के ताजा सर्वे पोल के अनुसार सभी आयुवर्ग, क्षेत्र और ज]ित के अधिकतर सपा समर्थक अखिलेश यादव खेमे के साथ हैं मगर सत्ता की दौड़ में बने रहने के लिए अखिलेश को कांग्रेस का साथ भी जरूरी होगा। अगर कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के साथ अखिलेश यादव गुट का गठबंधन होता है तो अब भी वह चुनाव जीतकर सबको चौंका सकते हैं। इस पारिवारिक विवाद ने मुलायम सिंह यादव को बहुत कमजोर कर दिया है। उनके पारंपरिक वोटरों ने भी संकट की इस घड़ी में उनका साथ छोड़कर अखिलेश का दामन पकड़ लिया है। ताजा सर्वे में अखिलेश समर्थित सपा के पाले में 24.9 प्रतिशत मतदाता हैं और मुलायम समर्थित सपा को 3.4 प्रतिशत लोगों का ही साथ मिल सकता है। सर्वे में कांग्रेस को 5.8 प्रतिशत लोगों का साथ मिला है। बाकी दलों की बात करें तो सर्वे में भाजपा को 30.2 प्रतिशत, बसपा को 24.2 प्रतिशत ने समर्थन दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को 22.4 प्रतिशत वोट मिला था और कांग्रेस को 7.5 प्रतिशत वोट। इन दोनों को मिलाकर 30 प्रतिशत वोट मिला था और अगर यही ट्रेंड रहा तो गठबंधन चुनाव जीत सकता है। अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे हैं और पूरे विवाद से सबसे ज्यादा फायदा उनको ही हुआ है। यादव परिवार के विवाद से दूसरे दलों के वोट में कोई खास बढ़ोतरी की संभावनाएं नहीं दिख रही हैं। लेकिन एसपी में दो धड़े होने और पांच प्रतिशत वोट बंटने से वह दूसरे नम्बर पर आ गई है। इस प्रकरण से एसपी के अनुमानित वोट बंटने से अखिलेश गुट भाजपा से दूसरे नम्बर पर आ जाता है। लेकिन कांग्रेस और आरएलडी के साथ आने से गठबंधन पूरे राज्य में सबसे अधिक वोट ले सकता है। सर्वे के अनुसार एसपी का वोट कांग्रेस में शिफ्ट हो जाएगा लेकिन कांग्रेस का वोट एसपी को जाएगा, इसमें थोड़ा संदेह है क्योकि सर्वे के अनुसार एसपी के गैर-यादव और मुस्लिम वोटरों ने संकेत दिया है कि विवाद के बाद दूसरे दल (बसपा) को वोट देने के बारे में भी वह सोच सकते हैं। मुस्लिमों के 18 प्रतिशत के करीब वोट हैं और इनको यह फैसला करना है कि भाजपा को कौन हरा सकता है? सपा-कांग्रेस गठबंधन या फिर बहुजन समाज पार्टी?

-अनिल नरेन्द्र