Friday, 10 August 2018

क्या अनुच्छेद 35-ए संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ तो नहीं

जम्मू-कश्मीर के लोगों को विशेषाधिकार देने वाले संविधान के अनुच्छेद 35-ए की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई नहीं हो सकी। तीन जजों की पीठ में शामिल जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ के नहीं पहुंचने से मामला 27 अगस्त के बाद तक टल गया। हालांकि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने स्पष्ट किया कि विवादित अनुच्छेद संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ तो नहीं है, इस बात का फैसला किया जाएगा। इस तरह जम्मू-कश्मीर के लिए यह संवेदनशील मुद्दा बना यह मामला एक बार फिर टल गया है। कश्मीर में यह एक भय-सा फैला दिया गया है कि कहीं इसे हटा न दिया जाए। कश्मीर में अशांति पैदा करने का कारोबार सिर्प सीमापार पाकिस्तान से ही नहीं चलता, उसके लिए देश के भीतर भी पर्याप्त संगठन और शक्तियां मौजूद हैं। उन्हें अनुच्छेद 35-ए के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में चल रहे इस केस का नया बहाना मिल गया है। उधर घाटी में बंद और हड़ताल के बीच अमरनाथ यात्रा भी स्थगित करनी पड़ी है। राज्य के ज्यादातर राजनीतिक संगठन इसे हटाने के विरोध में हैं जबकि देश में एक तबके की राय है कि इस अनुच्छेद के जरिये जम्मू-कश्मीर की स्थिति को कुछ ज्यादा ही विशिष्ट बना दिया गया है। वी द सिटीजंस नाम की एक संस्था ने उसके विरुद्ध याचिका दायर की है। यह अनुच्छेद किसी भी बाहरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन-जायदाद खरीदने और बेचने के अधिकार से वंचित करता है। उधर अलगाववादी संगठन ऐसे मौके की तलाश में बैठे ही रहते हैं और उन्होंने इस याचिका को भारत सरकार की विस्तारवादी साजिश बताकर आंदोलन का बिगुल बजा दिया। रोचक बात तो यह है कि अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर किसी प्रकार की सुनवाई तक शुरू नहीं की है और उसने यह तय करने के लिए तीन हफ्ते का समय मांगा है कि इस मामले को संविधान पीठ के पास भेजा जाए या नहीं? यह स्थिति सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा वाली है। अगर भाजपा के अलावा राज्य में सक्रिय नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, माकपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों ने यथास्थिति बनाए रखने का सुझाव दिया है तो कश्मीरियत के हिमायती शाह फैजल जैसे अहम नागरिकों ने इस अनुच्छेद की तुलना उस निकाहनामे से की है जो जीवन साथियों के रिश्तों का आधार होता है। हालांकि कश्मीर में बाहरी लोगों द्वारा बेनामी सम्पत्ति की खरीद-फरोख्त की खबरें आती रहती हैं लेकिन वैधानिक रूप से कोई गैर-कश्मीरी वहां जमीन नहीं ले सकता। ऐसा करने के पीछे जम्मू-कश्मीर की विशिष्ट पहचान बनाए रखने का ही आग्रह था।

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