Friday 3 August 2018

सवाल हिन्दू-मुसलमान का नहीं सवाल इन अवैध बांग्लादेशियों का है

असम में 40 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर रखने पर राजनीतिक जंग तल्ख हो गई है। सरकार के खिलाफ सबसे मुखर रही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इससे देश में भयंकर परिणाम की चेतावनी तक दे डाली। ममता ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वह मैं यहां दोहराना नहीं चाहता। वहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि यह वोट बैंक नहीं, देश की सुरक्षा का मुद्दा है। ममता ने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर पूछा कि क्या पश्चिम बंगाल में भी ऐसी कवायद करना चाहते हैं? उन्होंने कहा, अभी कोई बंगाल की बात नहीं कर रहा है। फिर बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात और यूपी की बात करेंगे। देश ऐसे नहीं चलेगा। इसमें रक्तपात होगा। यह एनआरसी आखिर क्या है? इसकी पृष्ठभूमि क्या है? एनआरसी में ऐसे लोगों को ही भारतीय नागरिक माना जाएगा, जिनके पूर्वजों के नाम 1957 के एनआरसी में या 24 मार्च 1971 तक के वोटर लिस्ट में मौजूद हों। इसके अलावा 12 दूसरे तरह के सर्टिफिकेट जैसे जन्म प्रमाण पत्र, पासबुक आदि दिए जा सकते हैं। यदि किसी दस्तावेज में उसके किसी पूर्वज का नाम है तो उसे रिश्तेदारी साबित करनी होगी। असम देश का अकेला राज्य है, जहां एनआरसी की व्यवस्था है। पिछले तीन साल में राज्य के 3.29 करोड़ लोगों ने नागरिकता के लिए 6.5 करोड़ दस्तावेज भेजे। असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) के फाइनल ड्राफ्ट पर हंगामा मचा हुआ है। कांग्रेस केंद्र व असम की सरकार पर साजिश का आरोप लगा रही है। हालांकि सच्चाई है कि 80 के दशक में सूबे में अवैध बांग्लादेशियों के खिलाफ छात्रों के उग्र और हिंसक आंदोलन के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने छात्र संगठनों से इस समस्या से निजात दिलाने का वादा किया था। असम छात्र संगठन व विभिन्न संगठनों की जनहित याचिका पर सरकार की वादाखिलाफी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए अवैध नागरिकों की पहचान के लिए एनआरसी बनाने और 100 ट्रिब्यूनल गठित करने के आदेश दिए थे। इस कार्य में सुस्ती पर पूर्ववर्ती यूपीए सरकार को शीर्ष अदालत से कई बार फटकार भी पड़ी थी। 2016 में राज्य में सत्ता परिवर्तन से रजिस्टर तैयार करने के काम में तेजी आई। एनआरसी बनाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था जिस पर भाजपा सरकार अब काम कर रही है। यह भाजपा ने अपनी ओर से शुरू नहीं किया यह बात देश को समझनी होगी। इस मुद्दे पर समझने की बात यह है कि यहां हिन्दू-मुस्लिम सवाल नहीं है, यहां सवाल है भारतीय व अवैध घुसपैठियों का है। भारत के चार राज्योंöअसम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और बिहार में विकराल समस्या बनी बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला देश की वोट बैंक की राजनीति की उपज है। अवैध नागरिकों का सर्वे या अध्ययन नहीं कराने के कारण इनकी आधिकारिक संख्या पर मतभेद है। हालांकि अनुमानों के मुताबिक यह संख्या तीन करोड़ है। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तान से बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आए। युद्ध के बाद भी इनके भारत प्रवेश पर रोक नहीं लगी। खुली सीमा होने के कारण अवैध घुसपैठ का सिलसिला बढ़ता गया और बांग्लादेशी असम के साथ-साथ अन्य राज्यों में फैल गए। बाद में सियासी दलों ने इस आबादी को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया। भाजपा ने 90 के दशक में इसे सियासी मुद्दा बनाया। 1997 में तत्कालीन गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त ने संसद में भारत में एक करोड़ बांग्लादेशियों के होने का अनुमान बताया। 14 जुलाई 2004 में तत्कालीन मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने 1.20 करोड़ बांग्लादेशियों का अनुमान बताया। अब यह संख्या लगभग तीन करोड़ के करीब है यानि तीन करोड़ बांग्लादेशियों की शरणस्थली है भारत। यह पहले दिन से साफ था कि असम में एनआरसी का अंतिम मसौदा जिस दिन जारी होगा देश की राजनीति में तूफान खड़ा हो जाएगा। आखिर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर असम में वास्तविक नागरिकों की पहचान के बाद काफी संख्या में ऐसे लोगों को बाहर होना ही था, जिनकी नागरिकता संदिग्ध हो। इन विदेशी घुसपैठियों के कारण पूर्वोत्तर के कई इलाकों का जनसंख्या संतुलन ही नहीं बिगड़ा, बल्कि सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक जटिलताएं भी पैदा हो गई हैं। असम में उग्रवाद का बड़ा कारण यही है। आठ जिले ऐसे हैं, जहां स्थानीय निवासियों को इसका घातक परिणाम भुगतना पड़ा है। असल अलग जनजातियों में इसके विरुद्ध कुछ समूहों ने हथियार तक उठाए हुए हैं। असम गण परिषद की सरकार इसी मुद्दे पर बनी थी, लेकिन उस समय यह काम नहीं हो सका। यह दुख की बात है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री आम लोगों को बरगलाने के साथ ही माहौल खराब होने वाला काम कर रही हैं। पता नहीं क्या सोचकर ममता ने यह सवाल दागा कि अगर बंगाली बिहार के लोगों से यह कहें कि वे पश्चिम बंगाल में नहीं रह सकते या फिर दक्षिण भारतीय यह कहने लगे कि उत्तर भारतीय उनके यहां नहीं रह सकते तो क्या होगा? क्या यह बेतुका बरगलाने वाला सवाल नहीं है? मैं फिर कहता हूं कि सवाल बंगालियों का नहीं है, सवाल अवैध बांग्लादेशियों का है। यह सारी कवायद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रही है।

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