Friday 21 June 2019

मुजफ्फरपुर के आईसीयू में टीवी चैनल

मुजफ्फरपुर में दिमागी बुखार से मासूमों की मौत का सिलसिला जारी है। बुधवार को एसकेएमसीएच में इलाज के दौरान पांच बच्चों ने दम तोड़ दिया। वहीं मोतिहारी में भी पांच बच्चों की मौत हो गई। मुजफ्फरपुर में 30 बच्चे और अस्पताल में भर्ती हुए हैं। दिमागी बुखार से बच्चों की मौत का आंकड़ा 156 तक पहुंच गया है। करीब 101 बच्चों का इलाज पीआईसीयू में चल रहा है। शहर के दोनों अस्पतालों में हर घंटे चीख-पुकार मच रही है। कुपोषण और भूख के मारे बच्चे जिस तरह इंसेफेलाइटिस नामक बीमारी के शिकार होकर मरते चले जा रहे हैं वह सचमुच में डराने वाला है। मीडिया ने इस बेहद दुखद घटना को जिस तरह से प्रस्तुत किया है वह भी कम विचलित करने वाली नहीं है। खासतौर पर इन न्यूज चैनलों की भूमिका तो सवालों के घेरे में है। कहा जा रहा है कि उन्होंने इस त्रासदी की कवरेज में न्यूनतम संवेदनशीलता का भी परिचय दिया है। बहुत से टीवी पत्रकारों ने तो पत्रकारीय नैतिकता और स्थापित मानदंडों की परवाह भी नहीं की। वे बारंबार लक्ष्मण रेखा लांघते रहे। न तो उन्हें मरीजों से हमदर्दी थी और न ही उनकी निजता के प्रति कोई सम्मान भाव। और तो और उन्होंने अपने पेशे की विश्वसनीयता की भी परवाह नहीं की। न्यूज चैनलों के पत्रकार अचानक पैदा हुई मिशनरी भावना से प्रेरित होकर घटना की कवरेज करने कूद पड़े। अच्छी बात है कि उन्होंने इस घटना को इस लायक समझा। यह भी सही है कि मीडिया कवरेज के कारण स्थानीय प्रशासन, राज्य सरकार और केंद्र को तुरन्त सक्रिय होना पड़ा। यह सबको मालूम है कि अस्पताल के आईसीयू में प्रवेश के कुछ नियम होते हैं। आप जूते पहनकर अपने कैमरा टीम के साथ आईसीयू में घुसकर डॉक्टरों व नर्सों से यूं सवाल-जवाब नहीं कर सकते जैसा कुछ चैनलों ने किया है। अगर इस दौरान कोई बच्चा इसलिए मर जाता क्योंकि आप डॉक्टरों-नर्सों से उस समय सवाल-जवाब कर रहे थे तो उसका जिम्मेदार कौन होता? अगर एक ऐंकर ने यह गलती की तो क्या यह जरूरी था कि दूसरे ऐंकर भी इस गलती को दोहराएं? दरअसल इसे उन्होंने लोकप्रियता और सफलता का फार्मूला मान लिया था। उन्हें तो साबित करना था कि वे सबसे तेज, काबिल और दुस्साहसी हैं। इसलिए उन्हें वहां मौजूद हर कर्मचारी, नर्स या डॉक्टर को कसूरवार ठहराना था। लिहाजा वे उन पर टूट पड़े, भले ही सुविधाओं की कमी या बदइंतजामी के लिए वे जिम्मेदार हों या न हों। क्योंकि टीवी पत्रकार प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्य सरकार व स्थानीय प्रशासन की नाकामी पर अंगुली उठाने से डरते थे, उन्हें कठघरे में खड़ा करने से कतराते थे इसलिए डॉक्टर और नर्स उनके लिए सॉफ्ट टारगेट बन गए। वे उन्हीं पर पिल पड़े, उन्हें खलनायक साबित करने लगे, यहां तक कि उनके काम में बाधा तक डालने लगे। सच तो यह है कि कुछ न्यूज चैनलों ने मुजफ्फरपुर कांड को अपने लिए एक इंवेट बना लिया। एक दुधारू मीडिया इंवेंट जिसमें अपनी छवि सुधारने का उपक्रम था और टीआरपी दुहने का फार्मूला भी। टीवी कवरेज में रिपोर्टिंग कम नजर आई और शोर, उत्तेजना ज्यादा। सनसनी उसका सबसे बड़ा तत्व थी। अगर रिपोर्टर की जगह ऐंकर ने ले ली थी तो इसका मतलब यह भी था कि वे रिपोर्टिंग नहीं शो कर रहे थे। शो को हिट करने के लिए जो भी मसाला चाहिए होता है, ऐंकर वही तैयार कर रहे थे, रिपोर्टिंग नहीं। चैनलों में रिपोर्टिंग की पहले ही हत्या हो चुकी थी। इसलिए घटना के पहले उसमें कोई रिपोर्ट नजर नहीं आती। वे नहीं बताते कि मुजफ्फरपुर में कुपोषित बच्चों की संख्या और हालत अफ्रीका के सबसे ज्यादा कुपोषित देशों से भी बदतर क्यों है? उन्होंने 15 साल से सरकार पर काबिज नीतीश कुमार सरकार के नकारेपन की बखियां क्यों नहीं उधेड़ीं? उन्होंने सवाल नहीं किया कि प्रशासन इतना सुस्त और लापरवाह आखिर क्यों बना रहा जबकि हर साल इस तरह की मौतें होती हैं? क्या उन्हें यह नहीं पूछना चाहिए था कि राज्य में जन स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत इस तरह क्यों चरमरा गई? स्वास्थ्य बजट में एकमुश्त कटौती क्यों की गई? पूछना चाहिए था, मगर पूछा नहीं क्योंकि ये सत्ताधारियों के लिए असुविधाजनक होता। आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना की तारीफ में घंटों बहस टीवी चैनल करवा सकते हैं मगर यह नहीं पूछे कि ऐसे मौकों पर उसकी उपयोगिता क्या है?

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