Saturday 28 July 2012

अगर मैं दोषी हूं तो मुझे फांसी पर लटका दें ः नरेन्द्र मोदी

Editorial Publish on 29 July 2012
-अनिल नरेन्द्र 

भाजपा के प्रभावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले कुछ समय से अखबारों व टीवी की सुर्खियों में पहले से ज्यादा आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी धीरे-धीरे अपनी नई राजनीतिक भूमिका के लिए तैयार हो रहे हैं। इसी के तहत उन्होंने अपनी राजनीति में लगे गुजरात के 2002 सांप्रदायिक दंगे के दाग-धब्बे हटाने के लिए कवायद तेज कर दी है। वे चाहते हैं कि अब उनका चेहरा किसी तरह से पूरे देश में स्वीकार्य बन जाए। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू के अखबार नई दुनिया के सम्पादक और समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद शाहिद सिद्दीकी को दिए एक इंटरव्यू में मोदी ने उन तमाम सवालों का जवाब दिया या सफाई दी, जो पिछले 10 वर्षों से उनका पीछा नहीं छोड़ रहे। मोदी ने एक बार फिर इन दंगों को लेकर माफी मांगने से इंकार किया है और कहा है कि ऐसी मांग का अब कोई मतलब नहीं। गोधरा कांड के बाद हुए गुजरात के दंगों के बारे में उन्होंने कह दिया है कि यदि दंगों में उनकी भूमिका गुनहगार की हो तो वे फांसी पर चढ़ने को तैयार हैं। लेकिन वह गुजरात दंगों के लिए देश से माफी मांगने को तैयार नहीं। जब उनसे कहा गया कि 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के लिए कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सिख समाज और देश से माफी मांग ली थी तो गुजरात के दंगों के लिए वे इसी तरह से माफी क्यों नहीं मांग लेते? इस सवाल पर मोदी ने यही कहा कि जब उन्होंने और उनकी सरकार ने दंगों की आग भड़काने में कोई भूमिका ही नहीं निभाई तो वे माफी क्यों मांगें? मोदी ने चुनौती देने के लहजे में कहा कि यदि उनकी भूमिका दंगों के गुनहगार की पाई जाए तो वह माफी नहीं चाहेंगे बल्कि फांसी का फंदा चाहेंगे। मोदी ने मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की माफी मांगने की राजनीतिक शैली पर तीखा कटाक्ष करते हुए कहा कि वे माफी मांगने की पाखंडी राजनीति नहीं करना चाहते। श्री नरेन्द्र मोदी से प्रश्न किया जा सकता है कि क्या सोनिया, राजीव और मनमोहन सिंह द्वारा 1984 के दंगों के लिए यह अर्थ निकलता है कि वे खुद हिंसा करने वालों में शामिल थे? अगर उन्होंने माफी मांगी तो इसके पीछे हमें दो कारण नजर आते हैं ः पहलाöउस दौरान शासन के अपने संवैधानिक कर्तव्य से मुंह मोड़ना, दूसराöआहत सिख समुदाय का भरोसा जीतना। दरअसल सरकार के निर्णायक पद पर बैठे व्यक्ति का आंकलन इस बात से होता है कि संकट की घड़ी में उसने क्या किया? असम में पिछले 10 दिनों से नस्ली हिंसा हो रही है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई बेशक खुद दंगे के जिम्मेदार न हों पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि समय रहते उन्होंने दंगा रोकने के लिए जरूरी उचित कदम नहीं उठाए और दंगा बढ़ता गया। गुजरात दंगों के साथ नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी यह कहने पर मजबूर हो गए थे कि मोदी को राजधर्म निभाना चाहिए। राजनीतिक हलकों में मोदी की पिछले दिनों से शुरू हुई मीडिया अभियान की चर्चा तेज हुई है। यही माना जा रहा है कि वे अगले चुनाव में पक्के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति में अपना हाथ आजमाना चाहते हैं। इसी रणनीति के तहत वे उर्दू अखबारों को इंटरव्यू देने में परहेज नहीं कर रहे। वे यह जताना चाहते हैं कि वे वास्तव में इतने कट्टर हिन्दूवादी नहीं हैं, जितना उन्हें समझा जा रहा है या प्रचारित किया जा रहा है। कई मौकों पर वे कह चुके हैं कि अहमदाबाद सहित राज्य के कई शहरों में निवास करने वाली मुस्लिम आबादी लगातार खुशहाल हो रही है। पिछले 10 सालों में राज्य में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। हालांकि विपक्षी दलों ने सांप्रदायिकता की आग भड़काने के लिए कई अफवाहें भी फैलाने की कोशिशें कीं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। सवाल यह है कि मोदी अगर कोई नई बात नहीं कर रहे और गुजरात दंगों को लेकर उनका स्टैंड और सफाई वही है तो फिर उनकी कही बातों को लेकर इतना सियासी बवाल अब क्यों मचा है? असल में असली खेल टाइमिंग का है। 2014 में वह भाजपा और एनडीए की तरफ से  प्रधानमंत्री पद के सम्भावित उम्मीदवार बनना चाहते हैं पर इसके लिए उन्हें इस साल के आखिर में गुजरात विधानसभा चुनाव में न सिर्प एक बार फिर जीत दिलानी होगी बल्कि एक  बड़ी जीत दर्ज करनी होगी। मोदी को यह परीक्षा तब देनी है जब उनका अपना दल, राज्य और गठबंधन में ही उनको लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। वे जानते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा का नेतृत्व करने और अगले आम चुनाव में प्रभावी प्रधानमंत्री बनकर उभरने की उनकी महत्वाकांक्षा तभी पूरी हो सकती है जब उनकी छवि सुधरे और वह एक सर्वमान्य नेता बन सकें। अभी तो उनके नाम को लेकर संघ को छोड़ न तो भाजपा में एका है और एनडीए में तो खुली दरार है।


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