Sunday 9 November 2014

कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा

वह जो कहावत है कि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा, इन समाजवादियों पर फिट बैठती है जो एक बार फिर जनता परिवार जोड़ने के प्रयास में लग गए हैं। नरेंद्र मोदी की बढ़ी लोकप्रियता से घबराए और पूर्ववर्ती जनता पार्टी का कभी हिस्सा रहे छह राजनीतिक दलों के नेता गुरुवार को सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के दिल्ली निवास स्थान पर एकजुट होने का संकेत दे रहे हैं। हम इनकी मजबूरी समझ सकते हैं। मोदी के कदम इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि इन सूबेदारों को अपनी सल्तनत हाथ से खिसकने का डर सता रहा है पर सवाल यहां यह उठता है कि लोकसभा के तो चुनाव निकट भविष्य में होने वाले नहीं, इसलिए इनके मोर्चे का उद्देश्य लोकसभा चुनाव तो हो नहीं सकता। हां झारखंड में अगले महीने विधानसभा चुनाव होने हैं। इस कवायद के पीछे हमें तो नीतीश कुमार का हाथ लगता है। वह झारखंड में लालू जी की पार्टी के साथ विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। अगले साल बिहार का चुनाव होना है। उत्तर प्रदेश में भी चुनाव दूर हैं। दरअसल लोकसभा चुनावों में इन सभी क्षेत्रीय दलों का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है। सभी के सामने अपने अस्तित्व को बचाने का संकट है। एकजुट रहकर यह मोर्चा राष्ट्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है। इन्होंने संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में भाजपा नीत सरकार को निशाना बनाने की राजनीति पर चर्चा की। एकजुट रहकर ही यह दल अपनी राज्य सरकारों को मजबूती दे सकते हैं।  लालू-नीतीश को उम्मीद है कि जिस तरह साथ आकर इन्होंने बिहार विधानसभा उपचुनाव में भाजपा को रोका था उसी तरह आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में भी दोहराना चाहते हैं। यह दल गैर भाजपा और गैर कांग्रेस मोर्चा बनाने की बात तो करते हैं पर असलियत से मुंह मोड़ते हैं। असलियत यह है कि बिहार में लालू की पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है तो यह गैर कांग्रेस मोर्चा कैसे हो सकता है। हां भाजपा, नरेंद्र मोदी विरोधी मोर्चा जरूर बन सकता है। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को 30 प्रतिशत के लगभग वोट मिले थे यानि 70 प्रतिशत भाजपा के खिलाफ पड़े थे। अगर यह दल इन 70 प्रतिशत वोटों को अपने पाले में ला सके तो फर्प पड़ सकता है पर ऐसी कोशिशें पहले भी हुई हैं। तीसरा मोर्चा, चौथा मोर्चा या कोई भी मोर्चा बना लें, हमें नहीं लगता कोई फर्प पड़ने वाला है। निसंदेह कांग्रेस के पतन के बाद एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता है। अगर विपक्ष मजबूत नहीं होगा तो सत्तारूढ़ दल निरंकुश  और तानाशाह हो जाएगा जो हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा। कांग्रेस के पतन के बाद विपक्षी दलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है पर यह तभी संभव है जब इसकी पहल करने वाले दल अवसरवाद का परित्याग करें। अभी जो दल कथित तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं वह यदि सचमुच एक होने को तैयार हैं तो यह देश को बताएं कि इनका नेता कौन होगा? मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव या फिर कोई और? क्या फिर से यह कहा जाएगा कि हमारा मोर्चा तो चुनाव के बाद बनेगा? जिन छह पार्टियों ने साथ आने की पहल की है उनके लोकसभा में कुल 15 सदस्य हैं। सपा के पांच, राजद के चार और आईएनएलडी, जेडीयू के दो-दो। लोकसभा में तो सरकार पर हावी होना मुश्किल दिखता है पर हां राज्यसभा में इनकी ताकत ज्यादा है। वहां इनके 25 सदस्य हैं। जेडीयू के 12, सपा के 10 और जेडीएस, राजद व आईएनएलडी का एक-एक। कांग्रेस या इस नए ग्रुप की सहमति के बिना सरकार कोई बिल राज्यसभा में पारित नहीं करा पाएगी। अब तक मुलायम सिंह यादव ने गैर भाजपा और गैर कांग्रेस दलों के नाम पर जितने भी आयोजन किए हैं उनमें लेफ्ट पार्टियां साथ रही हैं। साथ ही तृणमूल कांग्रेस, एआईएडीएमके, बीजेडी भी मौजूद रहे हैं। लेकिन इस बार इनका कोई प्रतिनिधि मुलायम के घर पर आयोजित लंच में मौजूद नहीं था। नीतीश ने कहाöनए ग्रुप में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी की भूमिका पर चर्चा हुई, लेकिन कोई फैसला नहीं हुआ। लेफ्ट पार्टियों से जुड़े प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि समान सोच रखने वाली सभी पार्टियों से समय आने पर सम्पर्प किया जाएगा। आश्चर्य नहीं होगा कि आने वाले दिनों में इन दलों के नेताओं की ओर से यह भी कहा जाए कि वह समाजवाद और सेक्युलरवाद के लिए एकजुट हो रहे हैं। बेहतर हो कि वह अपने घिसे-पिटे समाजवाद और सेक्युलरवाद पर फिर से गौर करें। समाजवाद, सेक्युलरवाद आदि नारों पर मौकापरस्ती की राजनीति करना खुद को ही अविश्वसनीय बनाना है और इन दलों ने अब तक यही किया है।

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