Monday 29 July 2019

सूचना का अधिकार संशोधन बिल लोकतंत्र पर हमला है

राज्यसभा में भारी विरोध के बाद भी आरटीआई विधेयक को जल्दी पास करने पर विपक्ष की अलग-अलग पार्टियों से जुड़े 17 सांसदों ने शुक्रवार को इस पर आपत्ति जताते हुए सभापति को पत्र लिखा है। विधेयकों को बगैर किसी पुनमूर्ल्यांकलन के पारित कराना संसदीय परंपराओं के खिलाफ बताया। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार की तरफ से बिना आम लोगों के परामर्श से पेश यह संशोधन विधेयक सूचना आयोगों की स्वायत्तता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है, जो सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत अंतिम निर्णायक है। साल 2005 में पारित आरटीआई अधिनियम निश्चित तौर पर देश की जनता के लिए सबसे सशक्त कानूनों में एक रहा है। सूचना हासिल करने के लिए इसके तहत हर वर्ष लगभग 60 लाख आवेदन आते हैं। इसीलिए भारत का आरटीआई कानून तंत्र की पारदर्शिता सुनिश्चित कराने के मामले में विश्व में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला कानून है। लोग तमाम मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित कराने के लिए इस कानून का उपयोग करते हैं। फिर चाहे मामला राशन से जुड़ा हो या पेंशन से। बड़े घोटाले, लोक सेवकों की सम्पत्ति से लेकर मानवाधिकार उल्लंघन से जुड़ी सूचनाएं भी इसके तहत मांगी जाती हैं। इसका इस्तेमाल देश के शक्तिशाली लोगों से जवाब मांगने के लिए भी किया जाता रहा है यानि लोकतांत्रिक ढांचे में सत्ता के बंटवारे को सुनिश्चित करने की दिशा में यह कानून बाखूबी काम करता है। इसी वजह से ताकतवर लोग, सरकारी अधिकारी व नेता इसे कमजोर करने की लगातार कोशिश करते रहे हैं। अंतत उन्हें इसमें सफलता मिल गई है। आरटीआई अधिनियम, 2005 में आरटीआई संशोधन विधेयक 2019 में केंद्र सरकार को केंद्रीय और राज्य सूचना आयोगों के सूचना आयुक्तों की सेवा, कार्यकाल, वेतन, भत्ते और अन्य शर्तों को तय करने के लिए नियम बनाने का अधिकार का प्रस्ताव है। केंद्रीय सूचना आयोग के सात पूर्व सूचना आयुक्तों ने संशोधनों को सूचना आयोग की स्वायत्तता और लोगों के जानने के मौलिक अधिकार पर सीधा हमला करार दिया है। उन्होंने सरकार से प्रतिगामी संशोधनों को वापस लेने का आग्रह भी किया है। उन्होंने कहा कि सरकार इस बारे में ईमानदार नहीं है कि वह यह संशोधन क्यों ला रही है? दीपक संधु ने कहा कि आरटीआई अधिनियम एक सामाजिक आंदोलन के माध्यम से आया था और आरटीआई संशोधन विधेयक पर जनता के साथ किसी भी प्रकार का विमर्श करने में सरकार की विफलता को रेखांकित करता है। अब कोई व्यापक घोटाला सामने नहीं आएगा। आरटीआई कानून को कमजोर करके मोदी सरकार ने भ्रष्टाचारियों के ही हाथ मजबूत किए हैं। उस अत्यंत सफल कानून और जनता का हाथ मजबूत करने वाले इस कानून में संशोधन किया जा रहा है। आरटीआई कानून इस सिद्धांत पर बना था कि जनता यह जानने का अधिकार रखती है कि देश कैसे चलता है? इसके लिए सूचना आयोग को स्वायत्तता दी गई कि वह सरकारी नियंत्रण से मुक्त होगा। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, वेतन, भत्ते और कार्यकाल यह सब सुप्रीम कोर्ट के जज और चुनाव आयुक्तों के समान होगा यानि सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त। अब चूंकि यह सरकार ईमानदार है, इसलिए उन्होंने कानून बदल दिया। अब सूचना आयोग स्वायत्त नहीं होगा। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन, भत्ते आदि अब केंद्र सरकार निर्धारित करेगी यानि वह सब जिसे चाहे, जितने समय के लिए चाहे, रखेगी। चाहेगी तो हटा देगी यानि अब सूचना आयोग एक और पिंजरे का तोता बनकर काम करेगा। आरटीआई कानून अब दुनिया का सबसे बेहतर नागरिक अधिकार कानून नहीं रहेगा। अब इस लोकतंत्र में सारे अधिकार सिर्प चन्द गिने-चुने लोगों के हाथ में होंगे। लोकतंत्र का संघीय ढांचा अपने कदम पर रोएगा।

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