दागियों पर सियासी दल भले ही राजनीति कर रहे हों पर
माननीय सुपीम कोर्ट इस मामले में न केवल सख्त ही है बल्कि यह सख्ती बढ़ाता जा रहा है।
गत जुलाई को सुपीम कोर्ट ने सांसद-विधायकों की सदन की सदस्यता को जन-पतिनिधियों के कानून
की धारा 8(4) के तहत मिली सुरक्षा खत्म कर दी थी। उसने व्यवस्था
दी कि जिन सांसदों/विधायकों को सात या उससे अधिक वर्ष की कैद
के पावधान वाले मामलों में सजा होगी उनकी सदस्यता खारिज हो जाएगी। अपने ताजा निर्णय
में शीर्ष अदालत ने जिस तरह का कड़ा रुख अख्तियार किया है उससे साफ है कि आने वाले
दिन आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे जन-पतिनिधियों के लिए तकलीफदेह
साबित हो सकते हैं। शीर्ष अदालत ने निचली अदालतों को कहा है कि वे सांसदों और विधायकों
पर चल रहे भ्रष्टाचार और अन्य गंभीर आपराधिक मामलों की सुनवाई एक वर्ष के भीतर पूरी
करें। जरूरी होने पर इन मामलों की सुनवाई रोजाना करने को भी कहा गया है। राजनीति से
जुड़े लोगों खासकर जन-पतिनिधियों से संबंधित मामले लंबे समय तक
अदालतों में चलते रहते हैं और उन पर फैसला नहीं आ पाता। पकारांतर से यह संदेश भी जाता
है कि मामले चलते रहने से उनके खिलाफ कुछ नहीं होने वाला है। कोर्ट का निर्णय इस अजी
पर देना था कि जिन सांसद-विधायकों के खिलाफ कोर्ट में आरोप तय
हो गए हैं उनकी सदस्यता रद्द कर दी जाए मगर कोर्ट इस हद तक नहीं गया, संभवत इसलिए कि उसके लिए आवश्यक कानून मौजूद नहीं हैं। मगर आरोप तय होने के
बावजूद अदालती पकिया की लेट-लतीफी के कारण संबंधित सांसद-विधायक अनिचिश्त काल तक अपने पद पर बने रहते हैं। इस पचलन को तोड़ने के लिए
शीर्ष अदालत का निर्णय स्वागत योग्य है और उचित भी है। अगर निचली अदालतें एक साल में
ऐसे दागियों का केस नहीं निपटा पाईं उस सूरत में उसे संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश
को इसका लिखित कारण बताना होगा। साफ है कि सुपीम कोर्ट ने जन-पतिनिधियों के खिलाफ अटके मुकदमों को त्वरित कार्यवाही की पटरी पर ला दिया
है। इसकी अहमीयत दो तरफा है। बहुत से राजनीतिकों की यह शिकायत रहती है कि उन्हें विद्वेषपूर्वक
या सियासी बदले की भावना से झूठे मामलों में फंसा दिया गया है। फजी मुकदमा किसी के
लिए यंत्रणादायक और सम्मान को ठेस पहुंचाने वाला होता है। जो लोग सार्वजनिक जीवन में
हों, उनके लिए यह और भी बुरा साबित होता होगा। विडम्बना यह है
कि राजनीतिकों को इन पुरानी शिकायत के बावजूद इससे उबरने की कोई कानूनी पहल विधायिक
की तरफ से नहीं हुई। अगर हम जन-पतिनिधियों की बात करें तो देश
के विदेश मंत्री सलमान खुशीद का ताजा बयान देखें। सलमान खुशीद अपनी बेबाक, कभी-कभी आपत्तिजनक बयानों के लिए मशहूर हैं। उन्होंने
बुधवार को सुपीम कोर्ट और चुनाव आयोग दोनों का मजाक उड़ाया है। खुशीद ने स्कूल ऑफ ओरिएंटल
एंड अफीकन स्टडीज के कार्यकम में कहा। चुनाव आयोग से हाल ही में हमें जो निर्देश मिले
उनके मुताबिक हमारा चुनावी घोषणा पत्र ऐसा होना चाहिए जिसमें सड़कों को बनाने का वादा
भी शामिल नहीं होना चाहिए। सुपीम कोर्ट की भूमिका पर चर्चा करते हुए सलमान खुशीद ने
कहा कि कोर्ट उन मुद्दों पर राय रख रहा हैं जिन पर लोकतांत्रिक सिद्धांतों के मुताबिक
संसद और सरकार को फैसला करना है। यानी मतलब साफ है कि अदालत हमें दागियों पर कोई निर्देश
दे, हम खुद फैसला करेंगे।
-अनिल नरेन्द्र
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