गुरुवार
को सुपीम कोर्ट द्वारा जमानत अजी खारिज होने से अहत जेल में बंद सहारा पमुख सुब्रत
राय की बढ़ती मायूसी और दुश्वारियां हम समझ सकते हैं और कुछ हद तक यह कहने में भी हमें
संकोच नहीं कि जिस ढंग से सेबी ने सहाराश्री के खिलाफ कार्रवाई की है वह कहां तक जायज
और तर्कसंगत है? इसमें
बदले की और सबक सिखाने की बू आती है। यह ठीक है कि कुछ सहारा कंपनियों पर वित्तीय अनियमितता
के आरोप हैं पर जिस पकार उन्हें सजा दी जा रही है उस पर सवाल जरूर उठते हैं। क्या उन
पर इसलिए बदले की कार्यवाही की जा रही है कि उन्होंने कई साल पहले एक पेस कांपेंस में
यह कह दिया था कि विदेशी
मूल की महिला को देश का पधानमंत्री नहीं बनना चाहिए? ठीक उसी
समय नरेंद्र मोदी ने भी यह आवाज उठाई थी। तभी से सोनिया गांधी की फायरिंग लाइन पर सुब्रत
राय और नरेंद्र मोदी आ गए। नरेंद्र मोदी को लपेटने के बहुत पयास हुए पर वह बचते चले
गए और अब तो कांग्रेस और उसके कंट्रोल वाली एजेंसियां उन पर हाथ ही नहीं डाल सकती।
पर सहाराश्री सेबी के काबू में आ गए और सेबी ने एक सोची-समझी
रणनीति के तहत सुब्रत राय को सपीम कोर्ट से भिड़ा दिया। बेशक इसमें कोई संदेह नहीं
कि सुबत राय ने सुपीम कोर्ट को पहले गंभीरता से नहीं लिया और जब लिया तो बहुत देर हो
चुकी थी पर हम केस के मेरिट पर नहीं जाना चाहते, यह मामला सुपीम
कोर्ट और सहारा के बीच है। पर यह जरूर कहना चाहेंगे कि सुब्रत राय से थोड़ी ज्यादती
हो रही है। वह कोई कामन किमिनल नहीं हैं जिन्हें इतने दिनों तक तिहाड़ में बंद रखा
जाए। यहां तो लाखों करोड़ डकारने वाले राजनेता खुलेआम घूम रहे हैं। उन्हें तो कोई पूछने
वाला नहीं। मान लीजिए सुपीम कोर्ट राय को जमानत दे देता है तो वह सब कुछ छोड़-छाड़ के भागने वालों में से नहीं हैं? अगर उनकी वित्तीय
डीलिंग्ज पर सवालिया निशान लगते हैं तो उनके अच्छे, समाजिक,
खेलों के लिए कामों को भी देखना चाहिए। राष्ट्रीय सहारा में एक रिपोर्ट
छपी है। सहारा-सेबी विवाद पर न्यूज चैनल सहारा समय द्वारा एक
टॉक शो गत शनिवार को आयोजित किया गया था। पस्तुत है रिपोर्ट के कुछ अंश टॉक शो में
शामिल सुपीम कोर्ट के वक्ताओं ने अपने विचार रखे। सुपीम कोर्ट के अधिवक्ता केशव मोहन
ने कहा कि इस पूरे विवाद की शुरुआत एक झूठी शिकायत से हुई थी जिसे सेबी के तत्कालीन
अधिकारियों ने पूर्वाग्रह के कारण उलझा दिया। यह मामला कोई वित्तीय धांधली का नहीं
है। हालांकि पतिभूमि अपीलीय ट्रिब्यूनल (सैट) ने इस मामले की सुनवाई के दौरान यह आदेश पारित किया था कि सहारा समूह को निवेशकों
को भुगतान करने के लिए अवसर देना चाहिए लेकिन सेबी ने मनमाने ढंग से काम किया और असली
तस्वीर सामने आने नहीं दी। केशव मोहन ने कहा कि सुपीम कोर्ट में सहारा समूह इसलिए गया
था कि मामला सेबी के अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं हैं। सुपीम कोर्ट के निर्देश पर
सहारा समूह ने निवेशकों से संबंधित सभी दस्तावेजों को सेबी को उपलब्ध करवा दिए और
5 दिसंबर 2012 को 5120 करोड़
रुपए जमा भी करा दिए। सेबी दो साल से ज्यादा समय में इन दस्तावेजों की सिर्फ स्कैनिंग
कर पाया, जांच नहीं कर पाया है। सेबी ने ढंग से काम नहीं किया
और मीडिया के जरिए भ्रामक खबरें आम जनमानस में पहुंचाईं। सहाराश्री सुपीम कोर्ट के
आदेश पर अमल करते हुए हाजिर हुए और जिस तरीके से न्यायिक हिरासत में भेजा गया वह मानवाधिकारों
का उल्लंघन है। उन्होंने देश के विकास तथा कारगिल के शहीदों के परिवारों, भूकंप पीड़ितों, खेल आदि, गरीब
लड़कियों की शादियां कराना आदि बहुत काम किए हैं। एक विधि विशेषज्ञ ने कहा कि इस विवाद
की शुरुआत सेबी के क्षेत्र अधिकार के सवाल को लेकर हुई थी, देनदारी
से नहीं। देनदारी का मामला तो सुपीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान आया था। आम निवेशकों
का धन वापस करना है तो सहारा समूह ने तो बैंक गारंटी देने की बात की है और वह उपयुक्त
है। सहाराश्री को न्यायिक हिरासत में रखने से समस्या का निदान नहीं होगा। भारत सरकार
के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल विकास सिंह से अपने पुराने अनुभवों का हवाला देते
हुए कहा कि कई मौके आए जब कोर्ट के मामलों की मीडिया ने तोड़ मरोड़ कर रिपोर्टिंग की।
इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने कहा कि सुपीम कोर्ट को यह देखना चाहिए कि
यह मामला सेबी के क्षेत्राधिकार में आता है या नहीं? क्योंकि
सहाराश्री को जिस तरह से न्यायायिक हिरासत में रखा गया है यह मानवाधिकारों का उल्लंघन
है क्योंकि उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला नहीं हैं। सेबी-सहाराश्री
के बीच लड़ाई अधिकार क्षेत्र को लेकर थी। तीन साल से केस को गलत तरीके से ऐसे पेश किया
गया जैसे यह 20 हजार करोड़ रुपए का वित्तीय फॉड हो। अगर ऐसा है
तो दुनिया का यह पहला वित्तीय फॉड है जहां कोई भुक्तभोगी निवेशक है ही नहीं।
-अनिल नरेन्द्र
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