Friday, 20 June 2014

यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाने पर मचा घमासान

केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद राज भवनों में बदलाव होना स्वाभाविक ही है। केंद्र ने यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए कुछ राज्यपालों को बदलने का मन बना लिया है। जिन राज्यपालों के कार्यकाल इस साल या अगले साल जनवरी में समाप्त हो रहे हैं उनके लिए इंतजार किया जा सकता है। मगर इतना तय है कि बड़े राज्यों या उन राज्यों में जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां के राज्यपालों को बदला जाएगा। जिन राज्यपालों को मोदी सरकार बदलना चाहती है उनमें प्रमुख हैंöशीला दीक्षित (केरल), डीवाई पाटिल (बिहार), वीवी वांचू (गोवा), सैयद अहमद (झारखंड), रामनरेश यादव (मध्यप्रदेश), एससी जमीर (उड़ीसा), के. रोसैया (तमिलनाडु)), अजीज कुरैशी (उत्तराखंड) और देवेन्द्र पुंवर (त्रिपुरा)। गौरतलब है कि गृह सचिव के जरिये सात राज्यपालों को इस्तीफा देने का संदेश पहुंचाया गया है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी और छत्तीसगढ़ के शेखर दत्त ने केंद्र सरकार की मंशा भांपकर इस्तीफा दे दिया। संभव है और गवर्नर भी ऐसा करें। राज्यपालों को बदलने का मामला संवेदनशील माना जा रहा है। केंद्र सरकार उन्हें अपने प्रतिनिधि के तौर पर देखती है इसलिए हर जगह वह मनोनुकूल व्यक्ति को बिठाना जरूरी समझती है। दूसरी बात यह है कि राज्यपाल का पद राजनेताओं को एडजस्ट करने का जरिया भी बन गया है। केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों से इस्तीफे मांगे जाने पर कांग्रेस मुश्किल में फंस गई है। पार्टी चाहकर भी मोदी सरकार के इस फैसले का विरोध नहीं कर पा रही है क्योंकि 10 साल पहले 2004 यूपीए-1 सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने भी एनडीए के शासनकाल में नियुक्त हुए राज्यपालों को पद से हटाया था। पार्टी संवैधानिक पद का हवाला देते हुए राज्यपालों के त्यागपत्र पर राजनीति नहीं करने की वकालत कर रही है। दिलचस्प बात यह है कि राज्यपालों के हटाए जाने पर नाराजगी जताते हुए कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के जिस आदेश का हवाला दे रही है वह आदेश भी यूपीए सरकार द्वारा राज्यपालों को हटाने के मामले में आया था। कांग्रेस महासचिव अजय माकन ने कहा कि पार्टी इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं करना चाहती। हम चाहते हैं कि सरकार संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करे और 2010 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान हो। 2004 में सत्ता में आते ही यूपीए सरकार ने भाजपा शासन में बनाए गए चार राज्यपालों को एकदम हटा दिया था। तत्कालीन गृहमंत्री और वर्तमान में पंजाब के राज्यपाल यह कहने से भी नहीं चूके थे कि उक्त राज्यपाल संघ की विचारधारा वाले हैं। उन राज्यपालों में उत्तर प्रदेश के विष्णुकांत शास्त्राr, गोवा के केदारनाथ साहनी, गुजरात के कैलाशपति मिश्रा और हरियाणा के बाबू परमानंद शामिल थे। इस कदम का विरोध हुआ और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2010 को दिए अपने फैसले में कहा कि राज्यपाल को हटाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त कारण होना चाहिए। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि राज्यपाल को पहले साबित करना होगा कि उसे दुर्भावनापूर्ण तरीके से हटाया गया है। मगर यह साबित करना मुश्किल है। विडम्बना देखिए कि 2004 में हटाए गए राज्यपालों के केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती देने वाले भाजपा के सांसद रहे वीपी सिंघल ने भी सुप्रीम कोर्ट में इसको चुनौती दी थी। जिस पर 2010 में फैसला आया। कांग्रेस से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि जनता द्वारा सिरे से नकार दी गईं शीला दीक्षित को चुनाव हारने के बाद 10 दिन के अंदर केरल का राज्यपाल नियुक्त करके उसने क्या संकेत देना चाहा था? संविधान के अनुच्छेद 156.1 में राज्यपाल को हटाने की कोई प्रक्रिया नहीं दी गई है। अगर केंद्र सरकार कैबिनेट नोट लाकर यह कह दे कि वह राज्यपाल से विश्वास खो चुकी है तो राष्ट्रपति के पास इसे मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। यूपी के राज्यपाल बीएल जोशी ने मंगलवार को इस्तीफा दे दिया। मगर कुछ राज्यपाल अब भी अड़े हुए हैं। कुछ कह रहे हैं कि हमें लिखित में हटाने को कहा जाए तब सोचेंगे। ऐसे राज्यपालों का तबादला करने का भी केंद्र सरकार के पास हक है। बाद में उन्हें कारणों के आधार पर हटाया जा सकता है। बहरहाल यह तय है कि लगभग डेढ़ दर्जन नए राज्यपाल नियुक्त होंगे।

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