Friday 13 June 2014

तहरीक-ए-तालिबान की बढ़ती ताकत व दुस्साहस

कराची के जिन्ना इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर हुआ हमला यह दर्शाता है कि आतंकी पाकिस्तान में जब चाहें, जहां चाहें दुस्साहसी हमला कर सकते हैं। तालिबान ने ऐसे वक्त पर यह चुनौती दी है जब पाकिस्तान की सरकार और सेना की तालिबान से लड़ने की क्षमता पर पहले से सवाल उठाए जा रहे हैं। पाकिस्तान के जिन्ना इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर हमला करने वाले आतंकियों की मंशा एयरपोर्ट पर लम्बे समय तक कब्जा जमाए रखने की थी। सेना के मुताबिक आतंकी विमानों एवं एयरपोर्ट के प्रतिष्ठानों को अधिकतम नुकसान पहुंचाने की तैयारी के साथ आए थे। लेकिन मंसूबों में कामयाब नहीं हो सके। यह पहली बार नहीं है जब प्रतिबंधित संगठन तहरीक--तालिबान ने जिसने इस ताजा हमले की जिम्मेदारी ली है ने हवाई अड्डों पर निशाना साधा है। एक अगस्त 2013 को सुरक्षा बलों की पोशाक में आए आतंकियों ने रावलपिंडी के बेनजीर भुट्टो एयरपोर्ट और चकलाला एयरबेस पर हमले की नाकाम कोशिश की। 15 दिसम्बर 2012 को आतंकियों ने पेशावर एयरपोर्ट परिसर में घुसने की कोशिश में पांच राकेट दागे और विस्फोटों से लदी कार से हमला किया जिसमें 9 लोग मारे गए। 22 मई 2011 को पाक तालिबान ने कराची के मेहरान नौसैनिक अड्डे पर हमला किया जिसमें 18 सुरक्षा बल  के कर्मी मारे गए, 15 आतंकी ढेर कर दिए गए पर पाक एयरफोर्स के दो पी3-ओरियन सर्वेलेंस विमानों को आतंकियों ने उड़ा दिया। सोमवार को दोपहर बाद अर्द्धसैनिक रेंजर्स के प्रवक्ता सिब्तेन रिज्वी ने बताया, हमला खत्म हो चुका है। हमने इलाके को सभी आतंकियों से मुक्त करा लिया है। प्रतिबंधित संगठन तहरीक--तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी का दावा किया है। टीटीपी के प्रवक्ता शाहिदुल्ला शाहिद ने मीडिया को जारी बयान में कहा, हमने यह हमला किया है और यह संदेश पाकिस्तान सरकार के लिए है कि गांवों पर बम हमलों में निर्दोष लोगों की हत्याओं का जवाब देने के लिए हम अभी जिंदा हैं। शाहिद ने कहा कि हमने एक (महसूद) के लिए बदला ले लिया है, हमें सैकड़ों के लिए बदला लेना है। दरअसल पाकिस्तान में इस समय सत्ता के दो केंद्र हैं जो हालात और  बिगाड़ रहे हैं। एक तरफ नवाज शरीफ सरकार है तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार तालिबान से शांति वार्ता करने के पक्ष में है। इस शांति वार्ता के लिए उसने तालिबान की तमाम शर्तें मान ली थीं। यहां तक कि सरकारी पक्ष से वार्ताकार भी ऐसे चुने गए थे जो तालिबान समर्थक माने जाते हैं। सेना तालिबान से वार्ता और समझौते का विरोध कर रही है क्योंकि उसका मानना है कि पहले पाकिस्तानी तालिबान की ताकत कम करने के लिए  सैनिक कार्रवाई जरूरी है। दुखद पहलू यह भी है कि खुद पाकिस्तानी सेना में दो गुट हैं, एक गुट तालिबान को प्रोत्साहित करता है तो दूसरा उसके खिलाफ सख्त सैनिक कार्रवाई जरूरी मानता है। सरकार अब अगर शांति वार्ता जारी रखती है तो माना जाएगा कि तालिबान के आगे सरकार ने घुटने टेक दिए हैं और अगर तालिबान के खिलाफ सशस्त्र कार्रवाई करती है तो संभव है कि तालिबान और ज्यादा दुस्साहसी हमले करे। कटु सत्य तो यह है कि आज पाकिस्तान का मुकाम आतंकवाद से प्रभावित देशों में सबसे ऊपर है। इस मामले में उसकी स्थिति इराक, सीरिया और अफगानिस्तान जैसे देशों जैसी  बल्कि कुछ मामलों में इनसे भी ज्यादा खराब है। पाकिस्तान की राष्ट्रीय आंतरिक सुरक्षा नीति (एनआईएसपी) 2013-18 के मसौदे के अनुसार वहां 2001 से 2013 के बीच हिंसा की 13 हजार 721 घटनाएं हुईं, जो इराक में हुईं घटनाओं से कुछ ही कम हैं। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए अब तालिबान बहुत गंभीर चुनौती बन गए हैं। लगता है कि पाक सेना भी उनसे मुकाबला करने में अब सक्षम नहीं है। बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी सैन्यकर्मी तालिबान के हाथों मारे गए हैं जिनमें एक जनरल स्तर का अधिकारी भी शामिल है। दरअसल पाकिस्तान में जो गृहयुद्ध-सी स्थिति बनी हुई है उसके लिए आईएसआई और अमेरिका दोनों जिम्मेदार हैं। आईएसआई ने इन आतंकियों को पहले सोवियत संघ से लड़ने के लिए तैयार किया, फिर भारत के खिलाफ इनका इस्तेमाल किया और आज बोतल से जिन्न निकल चुका है और संभाले नहीं संभल रहा। अमेरिका अफगानिस्तान से निकलने के लिए बेताब हो रहा है। अमेरिका 13 सालों में तालिबान को कमजोर नहीं कर पाया। अब वह अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाकर निकलने के लिए उन्हीं तालिबानियों से समझौता करने में  जुटा है। भारत को बेहद सतर्प रहना होगा क्योंकि दोनों देशों की मित्रता से नाखुश लोग ऐसी घटनाओं का नाजायज फायदा उठा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर जैसे जमात-उद-दावा के सुप्रीमो हाफिज सईद ने कराची हवाई अड्डे पर हमले के लिए सीधे मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया। पाकिस्तान की स्थिति और बिगड़ने की संभावना है क्योंकि अमेरिका इसी साल अफगानिस्तान से भागने की तैयारी कर रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

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