Tuesday, 24 June 2014

आखिर हिन्दी का विरोध क्यों?

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी दो आधिकारिक ज्ञापनों में यह निर्देश दिए गए हैं कि फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, गूगल और यू-ट्यूब जैसी सोशल वेबसाइटों पर बने खातों में अनिवार्य तौर पर हिन्दी या हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का इस्तेमाल होना चाहिए। ऐसी स्थिति में हिन्दी पहले या ऊपर लिखी होनी चाहिए। फिलहाल इन वेबसाइटों पर सिर्प अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है। हिन्दी को प्रोत्साहन देने के लिए उठाया गया कोई कदम इस राजभाषा को गैर-हिन्दी भाषी राज्यों पर थोपने के रूप में कैसे देखा जा सकता है? तमिलनाडु की सीएम जयललिता ने पीएम को लिखे पत्र में कहाöयह कानून 1963 की भूल भावना  के विरुद्ध है, तमिलनाडु के लोगों में बेचैनी है, भाषाई विरासत को लेकर गौरवान्वित व संवेदनशील हैं तमिलनाडु के लोग। पीएमओ ने जवाब में कहा कि यह कोई नीति नहीं है और न ही किसी गैर-हिन्दी भाषी राज्य पर हिन्दी थोपने की कोशिश है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि भारत एक ऐसा देश है जहां अनेक धर्म और भाषाएं हैं। ऐसे में एक भाषा को किसी पर थोपना संभव नहीं है। यह दुर्भाग्य की बात है कि कुछ राजनेता पूरे मामले को गलत दिशा देने में लगे हैं और एक अनावश्यक विवाद खड़ा करने की अतिरिक्त कोशिश भी कर रहे हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार की ओर से हिन्दी को बढ़ावा देने के फैसले की खबर सार्वजनिक होते ही उसके विरोध में सबसे पहले स्वर तमिलनाडु से उठे। राजनीतिक तौर पर पस्त हो चुके द्रमुक के मुखिया करुणानिधि ने केंद्र सरकार के फैसले को एक अवसर के रूप में देखा। उन्होंने केंद्र सरकार के फैसले की व्याख्या इस  रूप में कर डाली कि वह गैर-हिन्दी भाषी लोगों में भेदभाव पैदा करने के साथ ही उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश कर रही है। यह एक शरारतपूर्ण व्याख्या है और इसका उद्देश्य लोगों की भावनाएं भड़काना है। चूंकि तमिलनाडु में हिन्दी विरोध को भुनाना आसान है इसलिए वहां के अन्य राजनीतिक दलों ने भी द्रमुक के रास्ते पर चलने में देरी नहीं की। सत्ता के लिए वोट बैंक और प्रतिस्पर्धा की राजनीति के घालमेल का आदर्श उदाहरण खोजना हो तो इसे इन तमिल पार्टियों के हिन्दी विरोधी कोहराम में यकीन से ढूंढा जा सकता है। बड़े हैरत की बात है कि तमिल पार्टियों को हिन्दी के रूप में तमिल अस्मिता का खतरा नजर आता है लेकिन वह मरहम अंग्रेजी से लगाना चाहते हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब अपनी पहली विदेश यात्रा पर भूटान गए थे तब उन्होंने भूटानी संसद को हिन्दी में संबोधित किया था और भूटानी सांसद इतने आत्मनिर्भर हो गए थे कि उन्होंने अपनी परम्परा तोड़ते हुए तालियों की गड़गड़ाहट के साथ इसका स्वागत किया था। दुनिया के तमाम देश भी अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और दुभाषाओं का अनुवाद आवश्यक भाषा में करते हैं। नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी को महत्व देकर एक स्वच्छ और शानदार परम्परा की शुरुआत की है जिसका देश ने छह दशकों से इंतजार किया है। देश तो बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहा है जब पहले हिन्दी को वह अधिकार मिले जो उसे बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। पार्टियां हिन्दी के बहाने अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश के लिए भले ही कुछ कहें पर सत्य तो यह है कि इंग्लिश की तुलना में हिन्दी ही सम्पर्प की कहीं अधिक प्रभावी भाषा है।

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