Friday 17 April 2015

तीन दिन में चार नक्सली हमले क्या दर्शाते हैं?

छत्तीसगढ़ के बस्तर के तीन जिलों में तीन दिन के भीतर तकरीबन तीन सौ किलोमीटर के दायरे में हुए चार नक्सली हमले हमारे सुरक्षा और खुफिया बलों की तुलना में नक्सलियों की मजबूत रणनीति को ही रेखांकित करते हैं। जिस बेखौफ अंदाज में नक्सली इन हमलों को अंजाम दे रहे हैं उससे एंटी-नक्सल ऑपरेशन की रणनीति पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं। हर हमले के बाद हम सबक लेने और पुरानी गलतियों को दोहराने की बात तो करते हैं लेकिन उनसे सीखते कुछ नहीं हैं, उन्हें न दोहराने की बात तो दूर रही। हैरत की बात यह है कि सुरक्षा बलों ने कुछ दिन पूर्व ही बस्तर में सशस्त्र मॉक ड्रिल भी की थी, इसके बावजूद यह हमले रोके नहीं जा सके। नियमित अंतराल पर नक्सली ऐसी वारदातों को अंजाम देने में लगातार कामयाब हो रहे हैं जिससे सुरक्षा बलों को भारी नुकसान झेलना पड़ता है और नक्सली अपना खौफ कायम रखने में कामयाब रहते हैं। खास  बात यह भी है कि ताजा हमलों ने उन कई बहानों के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ी है जो ऐसी वारदातों के बाद अकसर दिए जाते हैं। यह हमले यही बयान कर रहे हैं कि नक्सलियों ने फिर से ताकत जुटा ली है और वह नए सिरे से दुस्साहस का परिचय देने को तैयार हैं। उनके दुस्साहस का पता इससे चलता है कि पहले हमले में शहीद जवानों के शव हासिल करने में 24 घंटे से अधिक का समय लग गया। जब सीआरपीएफ पर ऐसे हमले होते हैं तो एक प्रचलित बहाना रहता है कि चूंकि इस बल के जवानों को स्थानीय हालात की जानकारी कम थी, लिहाजा नक्सली उन पर भारी पड़ गए। लेकिन ताजा नक्सली वारदातों में शिकार स्थानीय बल भी हुए हैं और बीएसएफ भी। ऐसा ही एक प्रचलित बहाना यह भी रहा है कि केंद्र और राज्य स्तर पर तालमेल में कमी का फायदा उठाकर नक्सली अपने मंसूबों में कामयाब हो रहे हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में वर्षों से भाजपा की सरकार है और अब पिछले लगभग 11 महीनों से केंद्रीय सत्ता की बागडोर भी इसी पार्टी के हाथ में है। ऐसे में केंद्र-राज्य के बीच तालमेल की कमी का  बहाना अब नही चल सकता। यदि अब भी तालमेल में कोई अभाव है तो इसके लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार अन्य किसी को दोष नहीं दे सकतीं। यह निराशाजनक है कि एक बार फिर यह बात सामने आ रही है कि छत्तीसगढ़ में अर्द्धसैनिक बलों की पर्याप्त मौजूदगी के बावजूद उनका सही तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहा है। यदि पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान इसी तरह नक्सलियों के हाथों शहीद होते रहे तो उनके मनोबल को बनाए रखना कठिन हो जाएगा। अब जरूरत है कि रणनीति, समन्वय और संसाधनों के स्तर पर ऐसी पुख्ता तैयारी की जाए जिसके जरिये इस लाल आतंक की कमर तोड़ी जा सके। यह साफ हो चुका है कि नक्सली हमलों का सिलसिला थमने का यह नतीजा निकालना बड़ी गलती है कि नक्सली अब कमजोर पड़ गए हैं और उनकी मारक क्षमता कम हो गई है। दरअसल जब वह सक्रिय नहीं होते और ऑपरेशन शिथिल हो जाता है तो वह हथियार और रसद जुटाकर नए सिरे से हमले करने की तैयारी कर रहे होते हैं। जरूरत इसकी है कि नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के लिए माहौल बनाया जाए, क्योंकि मुठभेड़ में नक्सलियों को ढेर किए जाने पर तो खूब सवाल उठते हैं लेकिन हमारे जवानों के शहीद होने पर महज औपचारिक स्वर ही सुनाई पड़ते हैं।

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