Tuesday, 19 May 2015

केजरीवाल का सर्पुलर उन्हीं की भद पिटवाने का सबब बऩा

सुप्रीम कोर्ट का गुरुवार को आया आदेश दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए झटका तो है ही साथ-साथ सबक भी है। अदालत ने दिल्ली सरकार के विवादास्पद आदेश पर प्रतिबंध लगा दिया जिसमें सरकारी अधिकारियों से कहा गया है कि मीडिया में जिन खबरों से सरकार की मानहानि होती है उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया जाए। दिल्ली सरकार ने गत छह मई को यह सर्पुलर जारी किया था। इसमें कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति दिल्ली के मुख्यमंत्री, मंत्री या दिल्ली सरकार के अधिकारियों की छवि खराब करने वाली सामग्री छापता है तो उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत मानहानि का आपराधिक मुकदमा किया जा सकता है। सर्पुलर पर रोक लगाने के साथ ही अदालत ने दिल्ली सरकार से डेढ़ महीने के भीतर यह बताने को भी कहा है कि इस तरह का सर्पुलर क्यों जारी किया गया। अदालत का यह आदेश वकील अमित सिब्बल की याचिका पर आया। अमित सिब्बल की ओर से बृहस्पतिवार को पेश वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि केजरीवाल दोहरा मापदंड अपना रहे हैं। एक तरफ तो उन्होंने मानहानि के कानून आईपीसी की धारा 499 और 500 की वैधानिकता को चुनौती देकर शीर्ष अदालत से राहत ले रखी है। दूसरी ओर इसी कानून के तहत मीडिया के खिलाफ मुकदमा चलाए जाने के लिए सर्पुलर जारी किया है। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने पूछा कि दोनों बातें कैसे हो सकती हैं? अमित सिब्बल ने केजरीवाल के खिलाफ दिल्ली की निचली अदालत में मानहानि का मुकदमा दाखिल कर रखा है। जो सिब्बल के बारे में केजरीवाल की ओर से दिए गए बयान पर दाखिल किया गया है। केजरीवाल ने मानहानि के कानून धारा 499 और 500 की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। कोर्ट ने केजरीवाल की याचिका पर नोटिस जारी करते हुए उनके खिलाफ निचली अदालत में लंबित मानहानि के मुकदमे पर रोक लगा दी थी। अदालत के रुख से साफ है कि मीडिया को निशाने पर लेने और उसे डराने के दिल्ली सरकार के रवैये को उसने काफी गंभीरता से लिया है। लोकतंत्र में ऐसी कार्यवाही के लिए कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। यह हैरत की बात है कि ऐसा निहायत अलोकतांत्रिक कदम उस पार्टी की सरकार ने उठाया जो पारदर्शिता और जवाबदेही का दम भरती है। क्या वह अपने उसूलों से भटक गई है? केजरीवाल कुछ समय से मीडिया के खिलाफ जहर उगलते रहे हैं। हाल ही में  बगैर कोई ठोस सबूत पेश किए उन्होंने कहा था कि मीडिया ने उनकी पार्टी को खत्म करने की सुपारी ले रखी है। जैसे यह आरोप काफी न हो, उन्होंने यह भी कहा कि वह मीडिया के खिलाफ पब्लिक ट्रायल चलाएंगे यानि उसे जनता के कठघरे में घसीटेंगे। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों और राजनीतिक दलों की आलोचना आम बात है। आलोचना के अधिकार बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आलोचना के प्रति जैसी असहिष्णुता का भाव केजरीवाल ने दिखाया है उसे देखते हुए ऐसे लोगों की कमी नहीं जो यह सोचकर भारी राहत महसूस करते होंगे कि शुक्र है कि केजरीवाल के हाथ में पुलिस का नियंत्रण नहीं है। केजरीवाल की यह शिकायत कुछ हद तक सच हो सकती है कि मीडिया का एक तबका उनके प्रति नकारात्मक रुख रखता है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि करदाताओं की गाढ़ी कमाई उनकी प्रतिष्ठा बचाने पर खर्च की जाए। सर्पुलर निकालने से बेहतर यह होता कि मीडिया के जिस हिस्से से उन्हें शिकायत थी अपने पार्टी जनों, समर्थकों और आम जनता से उसका बहिष्कार करने की अपील जारी करते। इसके बजाय यह आरोप लगाना कि पूरा मीडिया ही उन्हें और उनकी पार्टी को खत्म करने की सुपारी ले चुका है, बेहद आपत्तिजनक, बचकाना और सतही आचरण है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर सूचना या विचार को नियंत्रित करने की कोशिश की गई तो उसके नतीजे लोकतंत्र के लिए खराब होते हैं। मीडिया की लगाम तो हर मिनट जनता के हाथ में रहती है। यहां राजनीति की तरह उसके सामने मजबूरी नहीं होती कि गलत चुनाव का अहसास होने के बावजूद किसी पार्टी की सरकार को पांच साल तक झेलना ही पड़े। बहरहाल जिस प्रतिष्ठा को बचाने के फेर में केजरीवाल ने यह सर्पुलर निकाला, वही उनकी भद पिटवाने का सबब बन रहा है। क्या अब भी वह चतेंगे?

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