Tuesday 9 February 2016

अंतत पाक ने कबूल किया कि कश्मीरी आतंक में उसका हाथ है

पाकिस्तान ने अंतत खुद ही कबूल कर लिया है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को शह देने में उसका ही हाथ है। आतंकवाद के पोषक देश पाकिस्तान का अंदरुनी माहौल लगता है अब बदल रहा है। पाकिस्तानी सांसदों की एक समिति ने नवाज शरीफ सरकार से सिफारिश की है कि वह कश्मीर के आतंकी संगठनों को बढ़ावा देना बंद करे और हमलों के लिए जिम्मेदार आतंकियों पर कार्रवाई करे। पाकिस्तान की नेशनल असेंबली की विदेश मामलों की स्थायी समिति ने गत मंगलवार को कश्मीर पर चार पेज का एक मसौदा सरकार को सौंपा है। इसमें कहा गया है कि कश्मीर में हथियारबंद प्रतिबंधित संगठनों को समर्थन देना बंद करे। यह प्रतिबंधित समूह भारत पर आतंकी हमलों के लिए पाकिस्तानी धरती का इस्तेमाल करते हैं और भारत के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते रहे हैं। सत्ताधारी पीएमएल-नवाज के सांसद अवैस अहमद लेघारी की अगुवाई वाली समिति ने दुनिया में बनती इस सोच पर चिन्ता जताई है कि कश्मीर में होने वाले आतंकी हमलों पर कार्रवाई के लिए पाकिस्तान कुछ नहीं करता। पाकिस्तानी समिति द्वारा खुद पाकिस्तान से आतंकवाद का समर्थन बंद करने की नसीहत का हम स्वागत करते हैं। अलगाववाद को बढ़ावा देने की अपनी ही सरकार की नीति के खिलाफ जो यह नीतिगत पत्र जारी हुआ उसे पड़ोसी देश के रवैये में आ रहे बदलाव के तौर पर रेखांकित करना चाहिए। यों तो अमेरिकी दबाव में पिछले कुछ समय से पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा था, मगर 2014 में दो आतंकी हमलों ने पाक सेना और सरकार को पहली बार आतंकवाद के खिलाफ ठोस कदम उठाने के लिए कुछ हद तक विवश किया। पाकिस्तान खुद आतंक से तबाह हो रहा है। पाक सरकार द्वारा शुरू किए गए नेशनल एक्शन प्लान जिसके तहत आतंकियों के खिलाफ सैन्य अदालतों में मुकदमों की तेजी से सुनवाई तथा आतंकी संगठनों के वित्तीय स्रोतों को जब्त करने जैसे कई प्रावधान थे तथा सेना द्वारा किए गए ऑपरेशन जर्ब--अज्ब का असर पड़ा है, जिसके तहत हजारों आतंकियों का खात्मा किया गया। प्रतिबंधित आतंकी संगठनों की गतिविधियों की मीडिया कवरेज पर रोक तथा उकसावे वाले भाषणों और साहित्य पर प्रतिबंध जैसे कदमों का असर दिख रहा है। अगर नवाज शरीफ सरकार लेघारी समिति की नसीहतें पूरी तरह से मान ले तो कश्मीर से आतंकवाद के खात्मे में मदद मिल सकती है। यह उम्मीद सर्वथा बेमानी भी नहीं है। पाकिस्तान के सक्रिय सहयोग यानि हर बे-हथियार, जमीन, धन और कार्यनीतिक मदद के रुकते ही आतंकवाद बेदम हो जाएगा। पाकिस्तान खुद एक तरह के छद्म युद्ध में फंस गया है। भारत में आतंक की वजह से जितनी जानें गई हैं उससे कहीं ज्यादा जिन्दगियां वहां लाशों में तब्दील हुई हैं। इस गृहयुद्ध से वहां के नागरिक, प्रशासन और सेना तक हलकान हैं। आज अगर पाकिस्तान में आतंक के खिलाफ आवाज उठी है तो इसके पीछे खुद पाकिस्तानी अवाम का  दुख व दर्द है। अंतर्राष्ट्रीय अंकुश जस के तस हैं ही। अब देखिए कि जिस पाकिस्तान को पठानकोट मामले में स्पष्ट सबूत की दरकार हैöकार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए। ब्रिटेन ने दाऊद इब्राहिम को अपने यहां वांछित बताकर उसके पते तक का खुलासा कर दिया है, जबकि पाक इसके यहां होने से इंकार करता रहा है। दुखद पहलू यह भी है कि भारत विरोधी आतंकवाद को प्रायोजित करने की नीति अभी नहीं बदली है। यही नहीं कि भारत को निशाना बनाने वाले जैश--मोहम्मद, लश्कर--तैयबा और हक्कानी नेटवर्प के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई नहीं हुई है बल्कि मुंबई और पठानकोट हमलों का ताना-बाना बुनने वालों के खिलाफ निक्रियता भी बहुत उम्मीद नहीं जगाती। दशकों से इस्लामाबाद पाकिस्तानी अवाम का ध्यान दूसरे जरूरी मुद्दों से भटकाता रहा है। यह बिल्कुल हो सकता है कि आतंकवाद के खिलाफ बनते जनमत तथा पठानकोट हमले के बाद अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के रवैये ने लेघारी समिति को अपनी कश्मीर नीति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया हो। पर इस घटनाक्रम को सुखद बदलाव मानना जल्दबाजी है, फिर भी इसे एक उम्मीद की तरह देखना ही होगा।

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