यह तो होना ही था। भाजपा
ने पीडीपी से गठबंधन तोड़ लिया, महबूबा मुफ्ती ने अपने पद से
इस्तीफा दे दिया और जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू हो
गया है। शुरू से ही यह एक अस्वाभाविक या असामान्य गठबंधन था और पहले दिन से ही कहा
जा रहा था कि यह गठबंधन टिकाऊ नहीं है और ज्यादा दिन नहीं चलेगा। मंगलवार की दोपहर
उसके समापन की औपचारिक घोषणा हो गई। जम्मू-कश्मीर में करीब तीन
साल तक नोकझोंक और आपसी तनातनी के साथ सरकार चलाने के बाद भाजपा और पीडीपी का बेमेल
गठबंधन टूटना ही था। विधानसभा के त्रिशंकु नतीजे के बाद जब कोई सरकार नहीं बन रही थी
तो भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार बनाने का जो जोखिम उठाया वह पीडीपी से ज्यादा भारी
भाजपा को पड़ने लगा। भाजपा को लगने लगा था कि इस सरकार से भाजपा का हिन्दू वोट बैंक
प्रभावित हो रहा है। जम्मू क्षेत्र जिसके बलबूते पर भाजपा ने सरकार बनाई थी उसी की उपेक्षा हो रही
थी। महबूबा का सारा जोर घाटी पर था। जम्मू क्षेत्र में न तो कोई विकास हो रहा था और
न ही भाजपा समर्थकों में पार्टी की छवि ही बन रही थी। पाकिस्तान ने रणनीतिक तौर पर
जम्मू के सीमावर्ती गांवों को निशाना बनाकर वहां से पलायन आरंभ करा दिया था। महबूबा
सरकार ने जम्मू के लोगों की कोई मदद नहीं की। यहां तक कि सीमावर्ती गांवों में पाक
गोलीबारी के शिकार लोगों को अपने परिजनों के शव तक अपने ट्रैक्टरों में लाने पड़ रहे
थे। अब तो नौबत यहां तक आ चुकी थी कि जम्मू शहर से हिन्दू पलायन करने पर मजबूर हो गए
थे। भाजपा आला कमान को यह डर सताने लगा कि कहीं देश के शेष भागों में जम्मू की वजह
से उनका हिन्दू वोट बैंक प्रभावित न हो जाए। इसलिए उन्होंने बेहतर समझा कि इस सरकार
से छुटकारा पाएं। बेशक कई कारण गिनाए जा रहे हैं उनमें से कुछ में दम भी है। महबूबा
की जिद्द पर न चाहते हुए भी भाजपा को रमजान के महीने में एकतरफा युद्धविराम करना पड़ा।
इस एकतरफा कार्रवाई पर रोक से आतंकियों के खिलाफ सेना की मुहिम को जबरदस्त झटका लगा।
जबकि आतंकी बराबर हमला करते रहे और आतंकी हिंसा में खास कमी नहीं आई। इस प्रकार सेना
द्वारा अभियान न चलाने से इस एक महीने में 52 आतंकी बच गए। एकतरफा
कार्रवाई पर रोक के दौरान कुल 46 आतंकी हमले हुए, जबकि इसके पहले महीने के दौरान 55 घटनाएं हुईं। महबूबा
तो रमजान के बाद भी सीजफायर बढ़ाने पर जोर दे रही थीं पर भाजपा ने कहा बहुत हो चुका
अब आगे नहीं। पिछले तीन सालों में सुरक्षाबलों के हाथ बांधने और अलगाववादियों के प्रति
नरमी बरतने के कारण हालात बेकाबू हो गए और जम्मू-कश्मीर की आंतरिक
स्थिति लगभग 90 के दशक तक पहुंच गई। दरअसल राज्य में सरकार तो
गठबंधन की थी लेकिन सारे निर्णय मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती लेती थीं। महबूबा का हमेशा
से रूझान अलगाववादियों की तरफ था जबकि मुफ्ती मोहम्मद सईद के कार्यकाल में अलगाववादी
नियंत्रण में थे। पत्थरबाजी और आतंकवादी घटनाएं बढ़ती रहीं। पत्थरबाजों के खिलाफ सख्त
कदम उठाने से महबूबा सेना को रोकती रहीं। सैनिक पिटते गए और इससे सेना में भारी असंतोष
होने लगा। महबूबा ने उल्टे पत्थरबाजों का साथ दिया और 11 हजार
एफआईआर वापस ले ली गईं। बाद में महबूबा भी लाचार हो गईं और स्थिति बिगड़ती ही चली गई।
इस दौरान सशस्त्र बल विशेष प्रावधान अधिनियम (आफ्सपा)
को कमजोर करने और अर्द्धसैनिक बलों का हौंसला तोड़ा गया। पत्थरबाजों
के चक्कर में पूरी दुनिया का ध्यान घाटी पर टिक गया जबकि जम्मू और लद्दाख के लोग अपने
आपको उपेक्षित महसूस करने लगे। विधानसभा चुनाव में भाजपा को कश्मीर घाटी से कुछ नहीं
मिला। उसका जनाधार जम्मू तक सीमित था। यहां कि 37 में से
25 सीटें भाजपा को मिली थीं। जबकि लद्दाख में कांग्रेस को बढ़त मिली
थी। आरएसएस और भाजपा कैडर ने केंद्रीय नेतृत्व को साफ तौर पर संदेश दिया था कि पीडीपी
को समर्थन देते रहे तो जम्मू हाथ से निकल जाएगा। बीते शनिवार की रात को प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और आरएसएस की कोर कमेटी की बैठक देर रात हुई
जिसमें पीडीपी से समर्थन वापस लेने का फैसला लिया गया। भाजपा ने दरअसल मिशन-2019
की राह के कांटे दूर करने के लिए ही पीडीपी से नाता तोड़ने का फैसला
लिया है। भाजपा को उम्मीद है कि इस फैसले का सकारात्मक संदेश जाएगा। दरअसल संघ तो दो
वर्ष पहले ही नाता तोड़ने के पक्ष में था। हालांकि तब सरकार और पार्टी को हालात अपने
पक्ष में कर लेने की उम्मीद थी। संघर्षविराम की घोषणा के बाद जवान औरंगजेब व पत्रकार
शुजात बुखारी की हत्या और सेना के अफसरों पर एफआईआर जैसे मामलों के कारण भाजपा-पीडीपी के रिश्ते खराब हुए। नतीजतन केंद्र ने महबूबा की ईद के बाद भी संघर्षविराम
जारी रखने की सलाह ठुकरा दी। बीते हफ्ते सूरजपुंड में हुई संघ की अनुषांगिक संगठनों
और भाजपा संगठन मंत्रियों की बैठक में इस पर गहन चर्चा हुई। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया है। फिलहाल तो यहां राज्यपाल का शासन
चलेगा। राज्यपाल एनएन वोहरा जे एंड के में राज्यपाल के रूप में करीब 10 वर्षों से कार्य कर रहे हैं। उनकी सभी पक्षों में स्वीकार्यता इसकी बड़ी वजह
है। यही कारण है कि भाजपा-पीडीपी सरकार के पतन के बाद केंद्र
सरकार ने उनका कार्यकाल बढ़ाने का फैसला किया है।
-अनिल नरेन्द्र
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