Saturday, 2 June 2018

एकजुट विपक्ष के आने से मुरझाने लगा है कमल

जब कर्नाटक में वोटों की गिनती हो रही थी तब भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अध्यक्ष अमित शाह और पधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महाराष्ट्र, उत्तर पदेश सहित लोकसभा की चार और विभिन्न विधानसभाओं की 10 सीटों पर उपचुनाव की रणनीति बना रहे थे। बीजेपी के लिए उपचुनाव इसलिए भी अहमियत रखते थे कि लोकसभा सीटों पर उपचुनाव के मामले में उसका हाल का रिकार्ड कोई उत्साहवर्धक नहीं रहा है। पार्टी लगातार 6 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हार चुकी थी। यह वही सीटें थीं जो 2014 में उसे मिली थीं। इनमें योगी आदित्यनाथ की ओर से खाली की गई लोकसभा सीट गोरखपुर में मिली अपत्याशित हार भी शामिल है। लगातार मिली हार के बाद 2014 में 282 लोकसभा सीट जीतने वाली बीजेपी की संख्या भी कम होती गई। लोकसभा की 4 और विधानसभा की 10 सीटों के नतीजे बता रहे हैं कि बीजेपी के लिए उपचुनाव जीतना मुश्किल होता जा रहा है। बीजेपी चार साल में 27 उपचुनावों में 5 सीटें ही जीत सकी, इसके मुकाबले 9 गंवाई हैं। चार लोकसभा और 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनावों के नतीजे से केंद्र और आधे से ज्यादा राज्यों में दम के साथ अपनी सरकार बनाने का बार-बार जिक करने वाली भाजपा को मायूसी जरूर हुई होगी। उपचुनावों के नतीजे विपक्षी एकता की एकजुटता का दम दिखाते हैं, लेकिन साथ ही यह मोदी सरकार के कामकाज के तरीकों और परिणामों को लेकर पार्टी के अंदर और सहयोगियों में असंतोष का स्पष्ट संकेत भी दे रहे हैं। नतीजे बताते हैं कि उत्तर पदेश, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में, जहां बीजेपी की सरकार है, पार्टी के लिए चुनाव जीतना खासा मुश्किल होता जा रहा है। बिहार में वह जूनियर पार्टनर की भूमिका में है। फिर भी वहां के जोकीहाट में जेडीयू का कैंडिडेट बुरी तरह हारा। यूपी का कैराना उपचुनाव सिर्प एक सीट का नहीं बल्कि सत्ताधारी बीजेपी की ताकत और विपक्षी एकता की परीक्षा थी यानी देश में 2019 के लोकसभा चुनाव का सियासी रोड मैप भी यहीं से तय होगा। इस चुनाव में दोनों बीजेपी और विपक्ष के लिए चेतावनी भी है और संकेत भी है। जिस तरीके से महाराष्ट्र में शिव सेना ने बीजेपी को खबर दी है उससे साफ है कि अगर बीजेपी को 2019 में सत्ता में वापस आना है तो अपने सहयोगियों को साथ लेकर चलना होगा। अभी सहयोगियों में भी असंतोष है। विपक्ष के लिए यह समझना जरूरी है कि वह आपसी मतभेद भुलाकर अगर 2019 के चुनाव में वन टू वन फाइट देता है तो बीजेपी को सत्ता से हटा सकता है। जैसे कि कैराना में हुआ। कैराना में विपक्षी दलों ने बड़ी समझदारी से काम लिया। तबस्सुम बेगम समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार थीं पर जाट, मुस्लिम और दलित वोटों को देखते हुए यह फैसला किया गया कि तबस्सुम बेगम राष्ट्रीय लोकदल के चुनाव चिह्न पर लड़ेगी और रालोद, सपा, बसपा और कांग्रेस की साझा उम्मीदवार होगी। इससे वोट कटने की संभावना कम होगी और यह रणनीति सही भी रही और तबस्सुम बेगम ने भाजपा की मृगांक सिंह को तकरीबन 44000 वोटों से हरा दिया। बता दें कि यह हार बीजेपी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सीट भाजपा के वरिष्ठ नेता हुकुम सिंह के निधन के बाद खाली हुई थी और इस सीट पर भाजपा ने उनकी पत्नी मृगांक सिंह को उम्मीदवार बनाया था। कैराना की हार भाजपा के लिए बड़ा संदेश लेकर आई है। अगर सपा, बसपा के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन हो जाता है, जिसकी कैराना के बाद उम्मीद ज्यादा है तो जातीय समीकरण के लिहाज से इतना शक्तिशाली गठबंधन है कि भाजपा बहुत पीछे रह जाएगी। 2014 में भाजपा को 72 सीटें मिली थीं। अगर सपा-बसपा मिलकर लड़ती है तो भाजपा 20-25 सीटों तक सिमटकर रह जाएगी। झारखंड और बिहार दोनों राज्यों में एनडीए को हार का सामना करना पड़ा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर पदेश, बिहार और झारखंड में भाजपा और उसके नेतृत्व की लोकपियता उतार पर है। जनता ने जहां भावनात्मक मुद्दों को नकार दिया है और उसने धार्मिक आधार पर धुवीकरण भी नहीं होने दिया। एक और बात साफ है कि 2014 में विपक्ष से टूटे मतदाता उसके पास वापस लौट रहे हैं। लंबी हताशा से गुजरे मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का आत्मविश्वास भी गुजरात और कर्नाटक के बाद लौट रहा है और वह समझती है कि विपक्षी एकता बनी रही तो 2019 में वह मिलकर भाजपा को सत्ता से हटा सकती है। पंजाब में कांग्रेस ने शाहकोट सीट अकाली दल से छीनी और मेघालय में एक सीट जीतकर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। इसके अलावा महाराष्ट्र और कर्नाटक की एक-एक विधानसभा सीट भी उसके हाथ लगी है। प. बंगाल में माहेस्थल लोकसभा सीट जीतकर टीएमसी ने वहां अपना जलवा कायम रखा है, पर बीजेपी के लिए संतोष की बात यह है कि वह राज्य में लेफ्ट और कांग्रेस को पीछे छोड़कर दूसरे नम्बर पर पहुंच गई है, बेशक इन उपचुनावों को 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए ट्रेंड सेंटर नहीं माना जा सकता लेकिन बीजेपी के लिए यह खतरे की घंटी जरूर बजा रही है। अहम सवाल यह भी है कि महज चार साल में ही भाजपा इतनी अलोकपिय क्यों हो गई? कुछ हद तक भाजपा नेताओं का अहंकार और अपनी कार्य संस्कृति को छोड़कर कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की जिद उस पर भारी पड़ रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उपचुनाव के नतीजों से सबक लेते हुए मोदी सरकार और भाजपा संगठन नीतियों की बेबाकी से समीक्षा करेगा।

-अनिल नरेन्द्र

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