भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था यानि संसद ने अपने 60 साल का सफर पूरा कर लिया है। 3 अप्रैल 1952 को पहली बार उच्च सदन यानि राज्यसभा का गठन किया गया था। इसका पहला सत्र 13 मई 1952 को आयोजित किया गया। इसी तरह 17 अप्रैल 1952 को पहली लोकसभा का गठन हुआ और पहला सत्र 13 मई 1952 को हुआ। भारतीय संसद के 60 सालों की यात्रा, उपलब्धियों और चुनौतियों की दृष्टि से मिलीजुली रही है। जब संसद का गठन हुआ था तो देश के आम और गरीब लोगों की उपेक्षा थी कि स्वतंत्र भारत में उनकी सारी उम्मीदें पूरी हो जाएंगी और अब अपनी सरकार बनी है जिसका पहला फर्ज अपनी जनता के प्रति होगा। इन 60 सालों में देश ने बहुत तरक्की की है, शहरों में आधुनिक सुख-सुविधाएं बढ़ी हैं, गांवों की उन्नति हुई है, प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है। रेलवे, हवाई जहाज और मेट्रो जैसी सुविधाएं बढ़ी हैं पर पिछले कुछ वर्षों में संसद की गरिमा को ठेस पहुंची है। संसद की गरिमा दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है। सांसदों का आचरण भी बद से बदतर होता जा रहा है। आज आम जनता संसद से कुछ हद तक नाराज है, हताश है। मौजूदा संसद की कार्यवाही तथा सांसदों का आचरण देखकर काफी दुख होता है। देश में आर्थिक विकास काफी हुआ। बेशक देश ने तरक्की भी की लेकिन उस हिसाब से लोकतांत्रिक देश की राजनीति, समाज, व्यवस्था और प्रशासनिक ढांचा सुव्यवस्थित नहीं हो सका। जन नेताओं की देश में कमी हो गई और संसद में पहले की तरह अब जनता से जुड़े मुद्दे कम ही उठते हैं। राजनीति में भारी गिरावट आई है। राजनीति में आपराधीकरण बढ़ा है और इसकी वजह से आज लोकसभा में कई आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद नजर आ रहे हैं। संसद में सांसदों के आचरण पर आए दिन सुर्खियां बनती हैं। एक दूसरे के ऊपर चिल्लाना, घूंसे दिखाना, कागज छीनना, फाड़ना, कागजों को मंत्रियों पर फेंकना, नारेबाजी, अध्यक्ष के आसन पर आकर धरना देना, कार्यवाही न चलने देना, आए दिन सदन का स्थगित होना यह बन गया है आज की भारतीय संसद का। इसी संसद में कई महान नेता भी देखे। जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, अटल बिहारी वाजपेयी, फिरोज गांधी, चन्द्रशेखर, राम मनोहर लोहिया, ज्योतिर्मय बसु, मोहन धारिया, मधु लिमये जैसे दिग्गजों ने इसी संसद को सुशोभित किया। यह सभी नेता आदर्शवादी थे, दूरदृष्टि के जनता के सही प्रतिनिधि थे। आज हम देखते हैं कि कई सांसद औद्योगिक घरानों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो कई सांसद माफिया गिरोहों का। जो दशक बीते हैं उनमें संसद के सदनों के चरित्र, गठन, वाद-विवाद और कार्यक्रम में जो परिवर्तन हुआ है उनसे सारी संसदीय संस्कृति ही बदल गई। हां भारत इस बात पर गर्व कर सकता है कि सारी कमियों के बावजूद हमारे देश में 60 वर्षों से संसदीय लोकतंत्र चल रहा है। हमारे देश में बैलट से सत्ता परिवर्तन होता है, बुलैट से नहीं। आजादी और संसद दोनों ही अत्यंत कोमल पौधे हैं। यदि इन्हें ध्यानपूर्वक सींचा-संजोया न जाए तो ये शीघ्र ही मुरझा जाते हैं। यदि हमें संसद और संसदीय लोकतंत्र को मजबूत बनाना है तो सबसे पहले ऐसा कुछ करना होगा जिससे संसद और सांसदों की पारम्परिक गरिमा पुनर्स्थापित हो और फिर से उन्हें जनमत में आदर, स्नेह का स्थान मिल सके।
Anil Narendra, Daily Pratap, Parliament, Vir Arjun
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