उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चुनाव हारी इसकी समीक्षा करने के लिए पिछले कई दिनों से कांग्रेस में आत्म मंथन चल रहा है। कई बैठकें हुईं, कई कमेटियां बनीं पर अंत में नतीजा वही सिफर निकला। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लीपापोती करते हुए कहा कि पार्टी में गुटबाजी और अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। हमने सोचा था कि सोनिया जी पार्टी के लिए हार के जिम्मेदार लोगों पर सख्त कार्रवाई करेंगी पर उन्होंने ऐसा न करना बेहतर समझा और डरा-धमका कर मामले को रफा-दफा करने का प्रयास किया। ऐसी चेतावनियां सोनिया पहले भी दे चुकी हैं। बुराड़ी में दो साल पहले हुए कांग्रेस के सम्मेलन में सोनिया गांधी ने कार्यकर्ताओं से गुटबाजी छोड़ कमर कसने को कहा था। पिछले साल दिल्ली में भी पार्टी के एक सम्मेलन में सोनिया ने पद की लालसा करने वालों पर चुटकी लेते हुए कहा था कि कांग्रेस में सबका नंबर आता है। सोनिया के कथन का कांग्रेसियों पर कोई असर नहीं हुआ और न ही उन्होंने सोनिया की बात को संजीदगी से ही लिया, नतीजा सामने है। कांग्रेस पिछले दो साल में बिहार, यूपी, पंजाब, गोवा हार चुकी है। आंध्र प्रदेश में भी उसकी हालत खस्ता है। राजस्थान में गहलोत सरकार के हालात भी दुरुस्त नहीं हैं। मुंबई नगर पालिका रही हो या फिर दिल्ली नगर निगम सब जगह कांग्रेस को झटके पर झटके लग रहे हैं। बिहार और यूपी में तो चुनावी कमान राहुल गांधी के हाथों में थी पर सोनिया ने खुद पर और राहुल पर जिम्मेदारी लेकर एक नए विवाद को जन्म देने से पहले ही खत्म कर दिया और इससे पहले कि कोई राहुल पर उंगली उठाए, मामले को समाप्त कर दिया। यह ठीक है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की धुरी चुनाव है लेकिन जिस आधार पर चुनावी कामयाबी मिलती है और उसकी सोच व कार्यपद्धति भी मायने रखती है। उसके जरिए ही सत्ता मिलती है जो जनकल्याण के काम को सम्भव करा पाती है। कांग्रेस को यह समझ विरासत में मिली है, फिर भी वह हाल के दशक में अगर इससे डिगी हुई लगती है तो इस पर उसको गम्भीरता से आत्म मंथन करना चाहिए पर आत्म मंथन ऐसा नहीं होना चाहिए जिसका कोई अर्थ ही नहीं निकले। मौजूदा हालात में यह कहना दुखद है कि कांग्रेस भी अपनी कमजोरी और पराजय के कारणों पर बस मंथन कहने भर के लिए करती है। वास्तविक अर्थों में वह ऐसा करने से हिचकिचाती है। अगर कांग्रेस गम्भीर होती तो विभिन्न प्रदेशों में समय-समय पर हुई पराजयों और उसकी समीक्षा के लिए गठित समितियों की तरफ से गिनाए जाने वाले कारण अब तक दूर कर लिए गए होते। निश्चित रूप से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को यह मालूम है कि प्रदेश में सभी क्षत्रपों के अपने-अपने गुट हैं और आम कार्यकर्ताओं की जगह उनके ही चापलूस हैं जिनसे ही वे घिरे रहते हैं। वे आम कार्यकर्ताओं के भी नेता हैं, ऐसा नहीं मानते। सम्भवत इसका एक कारण नेताओं के कार्यकर्ताओं में जोश भरने की जगह अपने स्वार्थ हावी होना है। वे यह मान कर चलते हैं कि वोट डलवाने के लिए गांधी परिवार काफी है। इसके आगे न तो उन्हें महंगाई का न भ्रष्टाचार का और न ही बढ़ती बेरोजगारी मुद्दा हो सकती है। इनके सामने बुनियादी सुविधाएं जैसे बिजली, पानी है पर अंकुश लगाने के लिए लोकपाल, लोकायुक्त की नियुक्ति जरूरी है। विडम्बना यह है कि कांग्रेसी छुट भैया यह भी नहीं समझना चाहते कि अब गांधी परिवार का वह करिश्मा नहीं रहा। पहले बिहार और फिर उत्तर प्रदेश ने यह जता दिया है गांधी परिवार वोट खींचू या चुनाव जिताने-जीतने की गारंटी अब नहीं है। सारा जोर लगाकर भी गांधी परिवार की तीसरी पीढ़ी के वारिस उत्तर प्रदेश में दृश्य प्रवर्तक नहीं हो सके। बिहार ने तो सिरे से राहुल गांधी को खारिज कर दिया। इसलिए कि उनकी टीम के बाकी नेताओं ने कुछ ठोस काम ही नहीं किया और जनमानस में वह यह विश्वास पैदा नहीं कर सके कि कांग्रेस को वोट देने में ही उनकी भलाई है। गौर तो इस पर होना चाहिए था कि टीम राहुल सरजमीनी कम हवाई ज्यादा क्यों रही? पर पार्टी अध्यक्ष ने राहुल को केंद्र में रखकर चुनावी समीक्षा नहीं की। अगर कांग्रेस वाके ही पार्टी में सुधार चाहती है तो हार के सही कारणों पर चर्चा करने का साहस दिखाए और कसूरवार नेताओं पर सख्त कार्रवाई करे ताकि पार्टी के बाकी नेताओं में एक भय पैदा हो सके। कांग्रेस को अगर इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश समेत कई राज्यों में चुनावों को फतह करना है तो उसे केंद्र में अपनी लुंज-पुंज मनमोहन सरकार की कमियों पर भी गौर करना चाहिए। अनुशासनहीनता और गुटबाजी से परहेज की नसीहत को पालन लायक बनाने के लिए उदाहरणों का ऐसा आधार दिया जाना चाहिए ताकि उस पर पार्टी की निष्ठा टिक सके। यह लीपापोती समीक्षा का कोई फायदा नहीं।
Anil Narendra, Congress, Daily Pratap, Rahul Gandhi, Sonia Gandhi, State Elections, Vir Arjun
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