Wednesday 23 May 2012

कितने सुरक्षित हैं हमारे बच्चे?

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 23 May 2012
अनिल नरेन्द्र
देश में छोटे बच्चों के गायब होने की खबरें अकसर अखबारों में छपती रहती हैं। यह एक गम्भीर समस्या व चुनौती है। गत दिनों राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने चौंकाने वाले आंकड़े बताए। एक प्रश्न के जवाब में मंत्री ने बताया कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा उपलब्ध जानकारी के मुताबिक तीन वर्षों में बच्चों के अपहरण के 28,595 मामले सामने आए हैं। 2008 में जहां 7862 बच्चों का अपहरण हुआ वहीं 2009 में 9,436 और 2010 में ऐसे 11,297 मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में कुल एक लाख 84 हजार छह सौ पांच (1,84,605) बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट मिली। लापता बच्चों के बारे में गृह मंत्रालय ने 31 जनवरी 2012 को एक एडवाइजरी की है जिसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश को बाल तस्करी रोकने और बच्चों का पता लगाने के लिए जरूरी कदम उठाने की नसीहत दी गई है। इनमें रिकॉर्ड्स को कम्प्यूटरीकृत करना, डीएनए जांच, सामुदायिक जागरुकता कार्यक्रम चलाना आदि शामिल है। इससे पहले 14 जुलाई 2011 को केंद्र की ओर से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजी गई एडवाइजरी में सुरक्षा इंतजाम बेहतर बनाने के लिए सभी उचित कदम उठाने को कहा गया था।
हमारे देश के नेता बातें तो बहुत लम्बी-चौड़ी करते हैं पर शहरों में गरीब बच्चों की कितनी दुर्दशा है इस पर कोई विचार नहीं करता, यूनिसेफ की एक रिपोर्ट है। हालांकि यह रिपोर्ट पूरी दुनिया की है पर उसे जारी करने के मौके पर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष डॉ. शांता सिंह ने जो उदाहरण दिया वह सचमुच कंपाने वाला है। आंध्र प्रदेश के सातवें सबसे बड़े शहर नेल्लोर में गरीब बच्चों ने उजाड़े जाने के भय से शमशान में अपना आशियाना बना लिया है। उन्हें लगता है कि कम से कम वहां से उन्हें कोई नहीं उजाड़ेगा। मरे लोगों के कंकाल एवं हड्डियां ही बच्चों के खिलौने हैं। इससे साबित होता है कि गरीब बच्चों के लिए भारत के शहरों-नगरों में कम वीभत्स स्थितियां नहीं हैं। रिपोर्ट जारी करने के मौके पर बाल अधिकार कार्यकर्ताओं ने आशंका जताई कि इस दोतरफा मार से बच्चे ही पिसते हैं। उन्होंने कहा कि अगर सरकार एवं स्वयंसेवी संगठनों की भागीदारी से प्रभावी हस्तक्षेप नहीं हुआ तो शहरी बच्चों की स्थिति और नरकीय होने वाली है। एक तरफ बच्चों का गायब होना दूसरी तरफ इन्हें शमशान जैसी जगह पर रहने पर मजबूर होना मेरे भारत महान पर तमाचा है। सरकार और स्वयंसेवी संगठनों को अविलम्ब इन लाचार, बेसहारा, अत्यंत गरीब बच्चों की दुर्दशा पर ध्यान देना होगा। इनके लिए विशेष योजनाएं चलाने की जरूरत है। बाल तस्करी रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनने चाहिए। पुलिस को भी और संवेदनशील होना पड़ेगा। आखिर यह बच्चे ही देश का भविष्य हैं और अगर यह सुरक्षित नहीं तो देश का भविष्य भी सुरक्षित नहीं माना जा सकता।
देश में छोटे बच्चों के गायब होने की खबरें अकसर अखबारों में छपती रहती हैं। यह एक गम्भीर समस्या व चुनौती है। गत दिनों राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने चौंकाने वाले आंकड़े बताए। एक प्रश्न के जवाब में मंत्री ने बताया कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा उपलब्ध जानकारी के मुताबिक तीन वर्षों में बच्चों के अपहरण के 28,595 मामले सामने आए हैं। 2008 में जहां 7862 बच्चों का अपहरण हुआ वहीं 2009 में 9,436 और 2010 में ऐसे 11,297 मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में कुल एक लाख 84 हजार छह सौ पांच (1,84,605) बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट मिली। लापता बच्चों के बारे में गृह मंत्रालय ने 31 जनवरी 2012 को एक एडवाइजरी की है जिसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश को बाल तस्करी रोकने और बच्चों का पता लगाने के लिए जरूरी कदम उठाने की नसीहत दी गई है। इनमें रिकॉर्ड्स को कम्प्यूटरीकृत करना, डीएनए जांच, सामुदायिक जागरुकता कार्यक्रम चलाना आदि शामिल है। इससे पहले 14 जुलाई 2011 को केंद्र की ओर से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजी गई एडवाइजरी में सुरक्षा इंतजाम बेहतर बनाने के लिए सभी उचित कदम उठाने को कहा गया था।
हमारे देश के नेता बातें तो बहुत लम्बी-चौड़ी करते हैं पर शहरों में गरीब बच्चों की कितनी दुर्दशा है इस पर कोई विचार नहीं करता, यूनिसेफ की एक रिपोर्ट है। हालांकि यह रिपोर्ट पूरी दुनिया की है पर उसे जारी करने के मौके पर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष डॉ. शांता सिंह ने जो उदाहरण दिया वह सचमुच कंपाने वाला है। आंध्र प्रदेश के सातवें सबसे बड़े शहर नेल्लोर में गरीब बच्चों ने उजाड़े जाने के भय से शमशान में अपना आशियाना बना लिया है। उन्हें लगता है कि कम से कम वहां से उन्हें कोई नहीं उजाड़ेगा। मरे लोगों के कंकाल एवं हड्डियां ही बच्चों के खिलौने हैं। इससे साबित होता है कि गरीब बच्चों के लिए भारत के शहरों-नगरों में कम वीभत्स स्थितियां नहीं हैं। रिपोर्ट जारी करने के मौके पर बाल अधिकार कार्यकर्ताओं ने आशंका जताई कि इस दोतरफा मार से बच्चे ही पिसते हैं। उन्होंने कहा कि अगर सरकार एवं स्वयंसेवी संगठनों की भागीदारी से प्रभावी हस्तक्षेप नहीं हुआ तो शहरी बच्चों की स्थिति और नरकीय होने वाली है। एक तरफ बच्चों का गायब होना दूसरी तरफ इन्हें शमशान जैसी जगह पर रहने पर मजबूर होना मेरे भारत महान पर तमाचा है। सरकार और स्वयंसेवी संगठनों को अविलम्ब इन लाचार, बेसहारा, अत्यंत गरीब बच्चों की दुर्दशा पर ध्यान देना होगा। इनके लिए विशेष योजनाएं चलाने की जरूरत है। बाल तस्करी रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनने चाहिए। पुलिस को भी और संवेदनशील होना पड़ेगा। आखिर यह बच्चे ही देश का भविष्य हैं और अगर यह सुरक्षित नहीं तो देश का भविष्य भी सुरक्षित नहीं माना जा सकता।
Anil Narendra, Children Separated, Daily Pratap, Vir Arjun

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