कहा जा रहा है कि भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था देशों की सूची में शामिल है। कहा तो यह भी जा रहा है कि वह दिन दूर नहीं जब भारत दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत हो जाएगा पर यह तो बाते हैं आंकड़ों की। आंकड़ों से कुछ राजनेता खुश हो सकते हैं पर आम जनता में जब तक यह खुशहाली नहीं पहुंचती तो यह सब खोखली बातें लगती हैं। अमीर ज्यादा अमीर होता जा रहा है और गरीब ज्यादा गरीब। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के ताजा आंकड़ों से एक बार फिर यही साबित होता है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी बदहाली में जीने पर मजबूर है। इस अध्ययन के मुताबिक जुलाई 2009 से जून 2010 के बीच साठ फीसदी ग्रामीण रोजाना पैंतीस रुपए से कम पर गुजारा कर रहे थे। वहीं साठ फीसदी शहरी जनसंख्या का औसत दैनिक खर्च 66 रुपए दर्ज किया गया। अब अगर हम बात करें देश के नौनिहालों की। कुछ महीने पहले पधानमंत्री के हाथों जारी हुई `हंगामा रपट' में खुलासा हुआ कि देश के 14 करोड़ नौनिहाल कुपोषित हैं। इसी तरह पिछले दिनों वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा ने संसद में माना कि देश में 8200 अमीर लोगों के पास तकरीबन 945 अरब अमेरिकी डॉलर की दौलत है। अगर देश की अर्थव्यवस्था को सामने रखकर देखें तो यह धनराशि उसका करीब 70 फीसद है। साफ है कि साधन के असमान वितरण के साथ सरकारी योजना नीति के असंतुलित होने के कारण देश का एक बड़ा तबका आज भी देश के विकास की मुख्यधारा से बाहर है, जिसकी पकिया कभी नक्सलवाद के रूप में पकट होती है तो कभी जनाकोश के दूसरे उभार देखने को मिलते हैं। एक बात तो साफ उभर कर आती है कि भारत के गांव-देहातों में लोगों का जीवन स्तर अब भी निम्न स्तर पर बना हुआ है। शहरों में इस मुकाबले स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर दिखती है पर यहां की जरूरतों और जीवन स्थितियों को अगर ध्यान में रखें तो समझ में आएगा कि यहां अधिसंख्य लोग आज भी न्यूनतम जरूरत के लिए कठिनतम संघर्ष कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय गरीबी पैमाने के मुताबिक पतिदिन सवा डॉलर (अमेरिकी) कमाने वाला गरीब है और एक डॉलर कमाने वाला अति गरीब है। जब हमारे पधानमंत्री और उनके आर्थिक सलाहकार मंडली विश्वस्तरीय मापदंडों की बात तो करते हैं पर जब गरीबी आंकलन की बात आती है तो वे अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों को स्वीकार नहीं करती। अगर वैश्विक पैमाने को भारत में लागू किया जाए तो गरीबी का कैसा नक्शा सामने आएगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि सरकार अपनी आर्थिक नीतियों, पाथमिकताओं और गरीबी रेखा को बदलने को राजी क्यों नहीं हैं? इसलिए कि अगर गरीबी रेखा तर्पसंगत होगी तो गरीबों की तादाद काफी बढ़ी हुई दिखेगी। एनएसएओ की नई रिपोर्ट तब आई है जब देश की अर्थव्यवस्था बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां हमारे विकास दर के आकलन को तो कम करके आंक ही रही हैं, देश के चोटी के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के उपकमों की सेहत पर भी सवाल उठ रहे हैं। वास्तव में गरीबों की संख्या के जो आंकड़े दिखाए जा रहे हैं उससे कहीं अधिक हैं।
कहा जा रहा है कि भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था देशों की सूची में शामिल है। कहा तो यह भी जा रहा है कि वह दिन दूर नहीं जब भारत दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत हो जाएगा पर यह तो बाते हैं आंकड़ों की। आंकड़ों से कुछ राजनेता खुश हो सकते हैं पर आम जनता में जब तक यह खुशहाली नहीं पहुंचती तो यह सब खोखली बातें लगती हैं। अमीर ज्यादा अमीर होता जा रहा है और गरीब ज्यादा गरीब। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के ताजा आंकड़ों से एक बार फिर यही साबित होता है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी बदहाली में जीने पर मजबूर है। इस अध्ययन के मुताबिक जुलाई 2009 से जून 2010 के बीच साठ फीसदी ग्रामीण रोजाना पैंतीस रुपए से कम पर गुजारा कर रहे थे। वहीं साठ फीसदी शहरी जनसंख्या का औसत दैनिक खर्च 66 रुपए दर्ज किया गया। अब अगर हम बात करें देश के नौनिहालों की। कुछ महीने पहले पधानमंत्री के हाथों जारी हुई `हंगामा रपट' में खुलासा हुआ कि देश के 14 करोड़ नौनिहाल कुपोषित हैं। इसी तरह पिछले दिनों वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा ने संसद में माना कि देश में 8200 अमीर लोगों के पास तकरीबन 945 अरब अमेरिकी डॉलर की दौलत है। अगर देश की अर्थव्यवस्था को सामने रखकर देखें तो यह धनराशि उसका करीब 70 फीसद है। साफ है कि साधन के असमान वितरण के साथ सरकारी योजना नीति के असंतुलित होने के कारण देश का एक बड़ा तबका आज भी देश के विकास की मुख्यधारा से बाहर है, जिसकी पकिया कभी नक्सलवाद के रूप में पकट होती है तो कभी जनाकोश के दूसरे उभार देखने को मिलते हैं। एक बात तो साफ उभर कर आती है कि भारत के गांव-देहातों में लोगों का जीवन स्तर अब भी निम्न स्तर पर बना हुआ है। शहरों में इस मुकाबले स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर दिखती है पर यहां की जरूरतों और जीवन स्थितियों को अगर ध्यान में रखें तो समझ में आएगा कि यहां अधिसंख्य लोग आज भी न्यूनतम जरूरत के लिए कठिनतम संघर्ष कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय गरीबी पैमाने के मुताबिक पतिदिन सवा डॉलर (अमेरिकी) कमाने वाला गरीब है और एक डॉलर कमाने वाला अति गरीब है। जब हमारे पधानमंत्री और उनके आर्थिक सलाहकार मंडली विश्वस्तरीय मापदंडों की बात तो करते हैं पर जब गरीबी आंकलन की बात आती है तो वे अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों को स्वीकार नहीं करती। अगर वैश्विक पैमाने को भारत में लागू किया जाए तो गरीबी का कैसा नक्शा सामने आएगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि सरकार अपनी आर्थिक नीतियों, पाथमिकताओं और गरीबी रेखा को बदलने को राजी क्यों नहीं हैं? इसलिए कि अगर गरीबी रेखा तर्पसंगत होगी तो गरीबों की तादाद काफी बढ़ी हुई दिखेगी। एनएसएओ की नई रिपोर्ट तब आई है जब देश की अर्थव्यवस्था बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां हमारे विकास दर के आकलन को तो कम करके आंक ही रही हैं, देश के चोटी के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के उपकमों की सेहत पर भी सवाल उठ रहे हैं। वास्तव में गरीबों की संख्या के जो आंकड़े दिखाए जा रहे हैं उससे कहीं अधिक हैं।
Anil Narendra, Daily Pratap, Inflation, Poor, UPA, Vir Arjun
कहा जा रहा है कि भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था देशों की सूची में शामिल है। कहा तो यह भी जा रहा है कि वह दिन दूर नहीं जब भारत दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत हो जाएगा पर यह तो बाते हैं आंकड़ों की। आंकड़ों से कुछ राजनेता खुश हो सकते हैं पर आम जनता में जब तक यह खुशहाली नहीं पहुंचती तो यह सब खोखली बातें लगती हैं। अमीर ज्यादा अमीर होता जा रहा है और गरीब ज्यादा गरीब। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के ताजा आंकड़ों से एक बार फिर यही साबित होता है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी बदहाली में जीने पर मजबूर है। इस अध्ययन के मुताबिक जुलाई 2009 से जून 2010 के बीच साठ फीसदी ग्रामीण रोजाना पैंतीस रुपए से कम पर गुजारा कर रहे थे। वहीं साठ फीसदी शहरी जनसंख्या का औसत दैनिक खर्च 66 रुपए दर्ज किया गया। अब अगर हम बात करें देश के नौनिहालों की। कुछ महीने पहले पधानमंत्री के हाथों जारी हुई `हंगामा रपट' में खुलासा हुआ कि देश के 14 करोड़ नौनिहाल कुपोषित हैं। इसी तरह पिछले दिनों वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा ने संसद में माना कि देश में 8200 अमीर लोगों के पास तकरीबन 945 अरब अमेरिकी डॉलर की दौलत है। अगर देश की अर्थव्यवस्था को सामने रखकर देखें तो यह धनराशि उसका करीब 70 फीसद है। साफ है कि साधन के असमान वितरण के साथ सरकारी योजना नीति के असंतुलित होने के कारण देश का एक बड़ा तबका आज भी देश के विकास की मुख्यधारा से बाहर है, जिसकी पकिया कभी नक्सलवाद के रूप में पकट होती है तो कभी जनाकोश के दूसरे उभार देखने को मिलते हैं। एक बात तो साफ उभर कर आती है कि भारत के गांव-देहातों में लोगों का जीवन स्तर अब भी निम्न स्तर पर बना हुआ है। शहरों में इस मुकाबले स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर दिखती है पर यहां की जरूरतों और जीवन स्थितियों को अगर ध्यान में रखें तो समझ में आएगा कि यहां अधिसंख्य लोग आज भी न्यूनतम जरूरत के लिए कठिनतम संघर्ष कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय गरीबी पैमाने के मुताबिक पतिदिन सवा डॉलर (अमेरिकी) कमाने वाला गरीब है और एक डॉलर कमाने वाला अति गरीब है। जब हमारे पधानमंत्री और उनके आर्थिक सलाहकार मंडली विश्वस्तरीय मापदंडों की बात तो करते हैं पर जब गरीबी आंकलन की बात आती है तो वे अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों को स्वीकार नहीं करती। अगर वैश्विक पैमाने को भारत में लागू किया जाए तो गरीबी का कैसा नक्शा सामने आएगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि सरकार अपनी आर्थिक नीतियों, पाथमिकताओं और गरीबी रेखा को बदलने को राजी क्यों नहीं हैं? इसलिए कि अगर गरीबी रेखा तर्पसंगत होगी तो गरीबों की तादाद काफी बढ़ी हुई दिखेगी। एनएसएओ की नई रिपोर्ट तब आई है जब देश की अर्थव्यवस्था बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां हमारे विकास दर के आकलन को तो कम करके आंक ही रही हैं, देश के चोटी के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के उपकमों की सेहत पर भी सवाल उठ रहे हैं। वास्तव में गरीबों की संख्या के जो आंकड़े दिखाए जा रहे हैं उससे कहीं अधिक हैं।
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