Friday 25 May 2012

घटते किसान और इससे ज्यादा घटती किसानी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25 May 2012
अनिल नरेन्द्र
भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 17 प्रतिशत से अधिक है। किसान देश की जनसंख्या को न केवल भोजन प्रदान करते हैं बल्कि कृषि में एक बड़ी जनसंख्या को रोटी-रोजी भी मुहैया करवाती है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि काफी हद तक देश की सेहत किसान की सेहत पर निर्भर करती है पर दुख की बात यह है कि आज भारत का किसान बहुत दुखी है और बहुत कठिन दौर से गुजर रहा है। यह एक बड़ा प्रश्न है कि जो हम सबको चकोट रहा है कि खेती के मामले में किसानों का रुझान घट रहा है। एक सर्वेक्षण बताता है कि 98.2 प्रतिशत किसानों की भावी पीढ़ी में किसानी के प्रति कोई रुचि नहीं है। यही कारण है कि पिछले कुछ समय से मध्य व छोटे किसानों ने खेत बेचकर अपने बच्चों को करियर ओरिएंटेड शिक्षा देना बेहतर समझा है। तमिलनाडु के एक किसान ने बेटे की इंजीनियरिंग की पांच लाख फीस अपने खेतों को बेचकर व कुछ उधारी कर जुटाई। दरअसल छोटे और मझोले किसानों के लिए अपने यहां खेती लाभ का सौदा अब नहीं रहा है। आज छोटा किसान मनरेगा की मजदूरी कर ज्यादा खुश है। किसान पहले खेत जोतें फिर अच्छे बीज के लिए भटकें। यानि जुताई-बुआई से लेकर रोजमर्रा की भागदौड़ और अंतत बिचौलियों के वर्चस्व के चलते लागत भी हाथ आ जाए तो अहोभाग्य। इसलिए नई पीढ़ी का सीधा फंडा हैöजमीन बेचो, कोई व्यावसायिक कोर्स करो और नौकरी ढूंढो। अब बड़े किसानों के पढ़े-लिखे बच्चों को भी खेती में काम करने में दिलचस्पी नहीं है। किसी किसान से शादी करने में भी अब लोग कतराने लगे हैं। कई मौकों पर विवाह के लिए किसानों को नौकरी का दिखावा तक करना पड़ता है। विकास की अंधी दौड़ में किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा है। हमारे विकास का नया मॉडल पश्चिमी देशों जैसा है जहां ऐसे उद्योगों को बढ़ावा मिला जिसका कृषि और कृषक से सीधा लेन-देन नहीं होता है। वहीं यह ठीक हो सकता है, क्योंकि शीतोष्ण जलवायु के कारण साल भर खेती सम्भव नहीं परन्तु एशिया जैसे भूभाग के मौसम में सालभर खेती सम्भव है। यहां केवल कृषि आधारित उद्योग ही सही मॉडल साबित हो सकते हैं। वैसे भी कृषि प्रधान देशों के विकास के सभी आयाम खेती से जुड़े होने चाहिए। दुर्भाग्य से कहना पड़ता है कि आजादी के बाद हमारी सरकारों ने खेती को पीछे कर बाकी उद्योगों पर ज्यादा ध्यान दिया है। परिणामस्वरूप अपने यहां रियल एस्टेट बिजनेस, आईटी जैसे उद्योग जीडीपी का बड़ा हिस्सा बन गए हैं। लेकिन 64 सालों में इसका लाभ मुट्ठी भर लोगों को ही इस तरह के विकास का सीधा लाभ पहुंचा और किसानों का बड़ा तबका जो खेती से विकास के सपने देख रहा था `वंचितों' की श्रेणी में पहुंच गया। जिस हिसाब से कृषि से जुड़ी भूमि का विभिन्न कार्यों जैसे राजमार्ग, एयरपोर्ट, स्पेशल इकानिमिक जोन इत्यादि का अधिग्रहण हो रहा है उससे यह चिन्ता हो गई है कि खेती के लिए जमीन बचेगी भी या नहीं? घटती खेती केवल भारत के लिए ही नहीं पूरी दुनिया के संकट का सबब है। आने वाले दिनों में खाद्यान्न सबसे बड़ा वैश्विक मुद्दा होगा। ऐसे में केंद्र सरकार को पहल कर हर राज्य में एक निश्चित प्रतिशत भूमि को (खासतौर पर उपजाऊ) खेती के लिए बांधना पड़ेगा और राज्यों को अपनी खाद्य आवश्यकता के अनुसार उत्पादन करने को भी कहना होगा। राज्य अपने को उद्योग ही नहीं, खेती आधारित विकास पर भी केंद्रित करें। कृषि उत्पादों का किसानों को सही मूल्य मिले, उत्पाद में खर्चे में कटौती हो, इस पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित करना जरूरी है। इसी से गांवों से बढ़ता पलायन रुक सकता है। किसानों की दरिद्रता दूर हो सकती है तथा समाज में उनके सम्मान को सही स्थान मिल सकेगा।
Agrarian, Agriculture, Anil Narendra, Daily Pratap, Indian Economy, Vir Arjun

No comments:

Post a Comment