पाकिस्तान में अक्सर सैनिक क्रांति तो होती रहती पर पहली बार ज्यूडिशियल (न्यायालय) कूप (क्रांति) हो रही है। पाकिस्तान में एक नई लड़ाई देखने को मिल रही है। यह लड़ाई पाकिस्तान की न्यायपालिका (ज्यूडिश्यरी) और चुनी हुई सरकार (लोकतंत्र) के बीच छिड़ गई है। मजेदार बात यह है कि दोनों ही पक्ष लोकतंत्र को बरकरार रखने की दुहाई दे रहे हैं। ताजा घटनाक्रम में लोकतांत्रिक सरकारों पर बार-बार सेना का संकट देखने वाले पाकिस्तान ने मंगलवार को नया नजारा देखा। यहां की सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को पद पर बने रहने के `अयोग्य' करार देते हुए संसद से उनकी सदस्यता को भी खारिज कर दिया। खास बात यह कि गिलानी की संसद सदस्यता को खारिज करते हुए पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने फैसले में भारतीय न्यायपालिका का सहारा लिया। उसने अपने फैसले में उत्तर प्रदेश और हरियाणा के दो राजनीतिक मसलों पर भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों का हवाला दिया है। ये मामले हैं ः राजेन्द्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य (उत्तर प्रदेश 2003) और जगजीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य। पाकिस्तान में आसिफ अली जरदारी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए गिलानी का इस्तीफा स्वीकार भी कर लिया है, नए प्रधानमंत्री का नाम शुक्रवार को घोषित हो सकता है। खबर है कि सत्ताधारी पीपुल्स पार्टी ने अपनी ओर से मखदूम शहाबुद्दीन को प्रधानमंत्री पद के लिए नामिनेट कर दिया है। मखदूम अभी कपड़ा मंत्री हैं और बेनजीर भुट्टो के करीबी रहे हैं। गिलानी को हटाने की नौबत क्यों और कैसे आई? पाक सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच पिछले 30 महीने से जंग चल रही थी। गिलानी पर आरोप था कि उन्होंने कोर्ट का आदेश नहीं माना। जरदारी के खिलाफ केस खोलने के लिए उन्होंने स्विस अफसरों को पत्र नहीं लिखा। गिलानी की दलील थी कि जरदारी जब तक राष्ट्रपति हैं, उनके खिलाफ केस नहीं चलाया जा सकता। कोर्ट ने इसे अवमानना माना। 26 अप्रैल को गिलानी को 30 सैकेंड की सजा भी सुनाई गई थी। इस कहानी की शुरुआत सन 2003 में हुई थी। एक स्विस जज ने पाकिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति आसिफ जरदारी, उनकी स्वर्गीय पत्नी बेनजीर भुट्टो और बेनजीर की मां नुसरत भुट्टो को लगभग 12 मिलियन डॉलर की हेराफेरी का आरोपी ठहराया। यह पैसा उन सौदों में दलाली का था जो बेनजीर ने बतौर प्रधानमंत्री के कार्यकाल (90 के दशक) में लिया था। वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने एक एनआरओ निकाला। नेशनल रिकांसिलेशन आर्डिनेंस के जरिए करीब आठ हजार लोगों पर चल रहे भ्रष्टाचार के मामले खत्म कर दिए गए। इससे बेनजीर और जरदारी को वापस लौटने में मदद मिली और वह इसका लाभ उठाते हुए पाकिस्तान वापस आ गए। फिर मुशर्रफ और पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट की ठन गई और उन्होंने मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को न केवल उनके पद से हटा दिया बल्कि गिरफ्तार करके उनको और कई और जजों को नजरबन्द कर दिया। यहीं से चीफ न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी खुंदक खा गए और उन्होंने राजनीतिक सैटअप से बदला लेने की ठान ली। यह किसी से छिपा नहीं कि पाकिस्तान में सत्ता का एक बड़ा केंद्र पाक सेना है। जब जरदारी ने बहुत चालाकी करके देश के राष्ट्रपति पद पर कब्जा कर लिया तो पाक सेना को यह पसंद नहीं आया और तब से ही पाक सेना जरदारी-गिलानी का विरोध कर रही है। गिलानी ने भी पाक सेना से बिगड़ते रिश्तों को कभी छिपाने की कोशिश नहीं की। कुछ महीने पहले ही गिलानी ने चेतावनी दी थी कि पाक सेना चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करके सत्ता हथियाना चाहती है। लगता है कि पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट और पाकिस्तानी सेना की अन्दरखाते कोई साठगांठ जरूर है। जस्टिस इफ्तिखार चौधरी जो कर रहे हैं उसमें उन्हें पाक सेना का समर्थन है। खैर! दिसम्बर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने मुशर्रफ के नेशनल रिकांसिलेशन आर्डिनेंस (एनआरओ) को खारिज करते हुए राष्ट्रपति समेत सभी लोगों के खिलाफ मामलों को फिर से खोलने का निर्देश दे दिया। उन्होंने राष्ट्रपति जरदारी के कथित अवैध धन को वापस लाने के लिए गिलानी से कहा कि आप स्विस बैंकों से सम्पर्प करें। उधर 2008 में स्विस प्रशासन ने पाक सरकार की अपील पर आसिफ जरदारी के खिलाफ छह करोड़ डॉलर की धन की हेराफेरी के मामले को बन्द कर दिया था। गिलानी का स्टैंड था कि चूंकि पाक संसद ने एनआरओ को पारित कर रखा है इसलिए इसके खिलाफ वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। गिलानी के मना करने पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कुछ मिनटों की सजा भी सुनाई और अब उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी की यह दलील मानने से इंकार कर दिया कि राष्ट्रपति के विशेषाधिकार के तहत जरदारी को मुकदमे से छूट हासिल है। 2008 में हुए आम चुनावों में यूसुफ रजा गिलानी ने राष्ट्रीय असेम्बली के चुनावी क्षेत्र एनए 157 मुल्तान 4 में चुनाव लड़ा था और विजयी घोषित हुए थे। एक चुने हुए प्रधानमंत्री व सांसद को सुप्रीम कोर्ट क्या रद्द कर सकता है यह भी प्रश्न आज पूछा जा रहा है? प्रधानमंत्री को तो हटा दिया पर अब जो नया प्रधानमंत्री बनेगा क्या वह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करेगा? अगर उसका भी यही स्टैंड रहा तो क्या? सुप्रीम कोर्ट का असल निशाना तो आसिफ जरदारी हैं और बीच में फंस गए यूसुफ रजा गिलानी। साफ है कि इन सबके पीछे गहरी राजनीति है। इस पूरे घटनाक्रम ने पाकिस्तान को एक संवैधानिक अनिश्चितता की ओर धकेल दिया है क्योंकि फैसला आते ही तत्काल प्रभाव से कैबिनेट बर्खास्त हो गई है। अदालत ने दुर्भाग्य से सबसे सख्त रवैया अपनाया है। वह चाहती तो मामले को पाकिस्तान के चुनाव आयोग के सामने भी भेज सकती थी, जिसमें तीन महीने का समय लगता पर अदालत ने ऐसा नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार गिरने जैसी कोई स्थिति उत्पन्न होने वाली नहीं है, क्योंकि पीपीपी के पास सदन में आवश्यक बहुमत है। इस पूरे प्रकरण पर एक तबके की राय तो यह है कि राजनेताओं और न्यायपालिका के टकराव में दोनों खेमों ने अपनी-अपनी राजनीतिक बिसात बिछा रखी है और सही चाल, सही समय पर चलने का मौका तलाशते रहे हैं। कोर्ट का यह फैसला अगले साल होने वाले आम चुनावों को आगे सरका सकता है। सम्भव है कि राष्ट्रपति जरदारी इसी साल के अन्त में असेम्बली चुनावों की घोषणा कर दें। पाकिस्तानी अवाम दोनों स्तम्भों के बीच फंस गई है। सेना अपना खेल खेल रही है। आतंकवादी और कट्टरपंथी गुट भी अपना दाव खेल सकते हैं। कुल मिलाकर पाक अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर गया है।
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