Sunday 24 June 2012

यह राष्ट्रपति चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहेगा

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24 June 2012
अनिल नरेन्द्र
राष्ट्रपति भवन की रेस में वित्त मंत्री और यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का पलड़ा भारी है पर इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक होने जा रहा है। अंक गणित प्रणब दा के हक में साफ नजर आ रहा है। मतों का कुल मूल्य 10.98 लाख है। प्रणब मुखर्जी को 6.29 लाख वोट मिलने की उम्मीद है और पीए संगमा को 3.10 लाख वोट मिल सकते हैं। इन वोटों में जद (यू) और शिवसेना के वोट प्रणब दा के हक में शामिल हैं। तृणमूल कांग्रेस ने अभी फैसला नहीं किया। संगमा को राजग (जद (यू)-शिवसेना के बिना) 2,43,000। अन्ना द्रमुक और बीजद 67.000 मत मिल सकते हैं। अंक गणित की दृष्टि से यूपीए उम्मीदवार का जीतना लगभग तय है। इस चुनाव को लेकर जहां राजग तार-तार हो गया वहीं वाम मोर्चा भी बंट गया है। फारवर्ड ब्लॉक ने माकपा के समर्थन की घोषणा की जबकि दो अन्य प्रमुख घटक दल भाकपा और आरएसपी ने मतदान से अलग रहने का फैसला किया है। माकपा में भी मतदान से अलग रहने के फैसले पर चर्चा चल रही थी पर मुखर्जी के नाम पर मुहर लगाने वाली लॉबी ने जमीन-आसमान एक कर दिया और बंगाल की प्रतिष्ठा का हवाला देकर प्रणब के हक में वोट देने का फैसला करवा लिया। जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है, हमें लगता है कि अब उनके पास दो ही विकल्प बचे हैं या तो वह वोट ही न डालें या फिर संगमा का अंतत समर्थन करें। संगमा तो दावा कर रहे हैं कि ममता का उन्हें समर्थन मिलेगा। हालांकि पीए संगमा कांग्रेस रणनीतिकारों को कोई बड़ी चुनौती नहीं दिख रहे पर दो एक बातें संगमा के पक्ष में जरूर जा सकती हैं। एक तो वह पूर्वोत्तर राज्यों से आते हैं। वह अपने राज्य मेघालय में सीएम तक की कुर्सी पर बैठ चुके हैं। पूर्वोत्तर राज्य जरूर संगमा का समर्थन कर सकते हैं, फिर वह एक ईसाई हैं। ईसाई धर्म से संबंधित होने का लाभ भी संगमा को मिल सकता है। राष्ट्रपति चुनाव को लेकर पहले संप्रग और फिर राजग और फिर वाम दलों में जैसा बिखराव हुआ है उससे यही स्पष्ट हो रहा है कि राजनीतिक दलों की नजर आगामी लोकसभा चुनावों पर है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि राजनीतिक दलों का मौजूदा समीकरण 2014 के लोकसभा चुनाव तक बना रहेगा या नहीं पर इतना तय है कि दोनों संप्रग और राजग की तस्वीर बदल सकती है। जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव ने प्रणब दा के समर्थन की घोषणा करते हुए कांग्रेस से दूरी बनाए रखने की भरसक कोशिश भले ही की है, लेकिन सच यह है कि कांग्रेस विरोध के बल पर अपनी राजनीति चलाने वाले अब उसी के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। आखिर कांग्रेस प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित करने वाला कोई भी दल यह दावा कैसे कर सकता है कि वह सिद्धांतत कांग्रेस के खिलाफ है? अवाम यह जरूर प्रश्न पूछेगी कि आखिर वह कौन-सी परिस्थिति या मजबूरी थी कि जद (यू) ने भाजपा का साथ छोड़ना बेहतर समझा? आम जनता भाजपा से भी सवाल कर सकती है कि मुख्य विपक्षी दल होते हुए भी देश के इस सर्वोच्च पद के लिए पार्टी को अपना कोई सशक्त उम्मीदवार क्यों नहीं मिला? दोनों यूपीए और राजग को नए समीकरणों की तलाश होगी। प्रणब मुखर्जी की जीत तय है पर उनका चुनाव नए समीकरणों का कारण जरूर बन सकता है।
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