Sunday 17 June 2012

राष्ट्रपति चुनाव दंगल का दूसरा अध्याय

अगर बृहस्पतिवार का दिन ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव के नाम रहा तो शुक्रवार का दिन निश्चित रूप से सोनिया गांधी के नाम रहा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ममता की चुनौती स्वीकार रकते हुए प्रणब मुखर्जी को यूपीए का राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर दिया। यही नहीं, शाम होते-होते मुलायम सिंह यादव अपनी आदत के अनुसार पलटी खा गए और उन्होंने प्रणब के समर्थन की घोषणा कर दी। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी यूपीए उम्मीदवार के समर्थन की औपचारिक घोषणा कर दी। अंक गणित के हिसाब से प्रणब मुखर्जी का पलड़ा भारी है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए कुल मत हैं 10,98,882। बहुमत के लिए 5,49,442 वोट चाहिए। संप्रग के पास अब संप्रग+सपा+बसपा+राजद अगर जोड़े जाएं तो 5,71,644 वोट बन जाते हैं जबकि राजग के पास कुल 3,04,785 वोट ही रह जाते हैं। इसलिए आंकड़ों के अनुसार और घोषित समर्थन पोजीशन के बाद श्री प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति बनना तय है। हालांकि ममता बनर्जी अभी भी कह रही हैं कि खेल अभी बाकी है, आगे देखिए होता है क्या? कांग्रेस पार्टी की अब कोशिश है कि प्रणब दा का चयन सर्वसम्मति से हो जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रणब के नाम की घोषणा होने के बाद लोकसभा में प्रतिपक्ष नेता सुषमा स्वराज को फोन करके भाजपा का समर्थन मांगा, सोनिया गांधी ने भी घोषणा स्पीच में सभी सांसदों, विधायकों से सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुनने की अपील की। वैसे कहीं बेहतर होता कि कांग्रेस प्रणब दा के नाम की घोषणा से पहले तमाम विपक्ष को विश्वास में लेती। सर्वसम्मति का मतलब होता है कि मिलकर उम्मीदवार का चयन करें न कि आप पहले चयन कर लें और बाद में सर्वसम्मति की बात करें। कांग्रेस ने पूरे मामले में मिसहैंडलिंग की है। उसने राष्ट्रपति पद का मजाक बना दिया है। आज सारा देश दुनिया भारत में सर्वोच्च पद के लिए हो रहे दंगल को देख रहा है। किसी भी शासन प्रणाली में नीतिगत मर्यादा का पालन किया जाना आवश्यक है। इसकी जिम्मेदारी सर्वाधिक सत्तापक्ष की होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक मर्यादाओं की निर्धारण संविधान में ही कर दिया जाता है। दुर्भाग्य तो यह है कि ऐसी संवैधानिक मर्यादाओं का व्यवस्था को चलाने वाले खुद ही उसका उल्लंघन कर रहे हैं। देश की आजादी के बाद पहली बार राष्ट्रपति पद को लेकर इस तरह का दंगल देखने को मिल रहा है। जैसे कि भानुमति के कुनबे में भूकम्प आ गया हो। देश के महामहिम जैसे सर्वोच्च पद के लिए इतनी उठापटक राष्ट्र की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं मानी जा सकती। जब से राजनीति में क्षेत्रीय दलों की सहभागिता बढ़ी है तब से देश की जनता की भावनाओं का बलात्कार व स्वार्थ सिद्धि के लिए ब्लैकमेलिंग का सिस्टम चल पड़ा है। आज जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि व पार्टियां अपने-अपने राज्यों के लिए `पैकेज' सिस्टम मिलने पर समर्थन देने की कवायद में जुटे हैं, नेताओं की निजी महत्वाकांक्षाएं स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराओं पर भारी पड़ती नजर आ रही हैं। संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति देश की विधायिका और कार्यपालिका का प्रधान होता है। बिना उसके हस्ताक्षर के कोई भी विधेयक कानून का रूप नहीं ले सकता। उसी के नाम पर केंद्र सरकार के सारे कामकाज निपटाए जाते हैं पर यह सिर्प अलंकारित सत्य है। सब कुछ तो राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के कहने पर करता है। कायदेनुसार राष्ट्रपति को दलगत राजनीति से ऊपर होना चाहिए। सभी दलों का कर्तव्य होता है कि उसे सबसे ऊपर राष्ट्र के संवैधानिक मुखिया के तौर पर देखें और सम्मान दें। मर्यादा यह कहती है कि राष्ट्रपति वह व्यक्ति हो जो सभी दलों को मान्य हो, जिसकी निष्पक्षता पद की गरिमा व मर्यादा सभी मानें। तात्विक रूप से देखा जाए तो किसी एक नाम पर सहमति होने में किसी भी पार्टी का कोई नफा-नुकसान नहीं है पर सियासत के खेल में राजनीतिक अहंकार व निजी स्वार्थ सिर चढ़कर बोल रहा है। कुल मिलाकर देखा जाए तो श्री प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद के लिए सही व्यक्ति हैं। उनका लम्बा अनुभव, काबलियत खुद मुंह से बोलती है। कांग्रेस के संकटमोचक कहे जाने वाले प्रणब दा की सरकार और कांग्रेस पार्टी को कमी जरूर खलेगी। अभी 2014 का चुनाव दूर है। प्रणब दा को ऊपर धकेलने के पीछे भी कारण है। प्रधानमंत्री उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाना चाहते थे पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे हटाएं? यह किसी से छिपा नहीं कि प्रणब दा और सोनिया गांधी में भी रिश्ते मधुर नहीं। सोनिया उन पर विश्वास नहीं करतीं। फिर कुछ विदेशी ताकतें भी प्रणब से नाराज रहती थीं, उद्योगपति भी खुश नहीं थे। इसीलिए एक तीर से कई शिकार करने की कांग्रेस ने कोशिश की है। प्रणब का चयन इसलिए भी किया गया, क्योंकि कांग्रेस का आंकलन था कि हामिद अंसारी, एपीजे अब्दुल कलाम से जीत नहीं सकते। दूसरा अध्याय निश्चित रूप से सोनिया गांधी और कांग्रेस के नाम रहा। दंगल जारी है। 30 जून तक कई और करवटें ले सकती है भारत की राजनीति।
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