Friday 31 January 2014

चर्चा-ए-आम हुआ राहुल गांधी का इंटरव्यू

टीवी चैनल टाइम्स नाउ में राहुल गांधी का अर्णव गोस्वामी के साथ इंटरव्यू देखकर बहुत दुख व निराशा हुई। राहुल गांधी के इस इंटरव्यू का इंतजार हर कोई कर रहा था। संसद में कदम रखने के दस साल बाद वह पहली बार औपचारिक तौर पर मीडिया के चुभते सवालों से  रूबरू हुए थे। पार्टी में भले ही राहुल उपाध्यक्ष पद पर हों पर उनकी असली हैसियत सारा देश जानता है कि वही कांग्रेस की ओर से पधानमंत्री पद के अकेले दावेदार हैं। मुझे इस इंटरव्यू से घोर निराशा भी हुई और दुख भी। अर्णव गोस्वामी जैसे मझे हुए एंकर के सामने राहुल का वह हाल था जैसे शेर के सामने मेमने का होता है। एक अंग्रेजी एलिटेस्ट चैनल को पहला इंटरव्यू देना ही मेरी राय में गलत था। अगर इंटरव्यू देना ही था तो किसी हिंदी चैनल वह भी जो थोड़ी कांग्रेस के पति हमदर्दी रखता हो, उसको देना चाहिए था। अंगेजी चैनल को देश के सर्व-सम्पन्न अंग्रेजी बोलने वाले लोग देखते हैं। यह बेशक पभाव तो रखते हैं पर यह थोक भाव से वोट देने नहीं निकलते। फिर राहुल ने रटे-रटाए स्किप्ट पर ही बोला, सवाल कुछ था जवाब कुछ था। राहुल ने सारा जोर महिलाओं और युवाओं के शक्तिकरण पर दिया। 1984 के दंगों पर राहुल को मेरी राय में यह कभी नहीं कहना चाहिए था कि हे सकता है कुछ कांग्रेसी दंगों में शामिल हों। अगर मुझे जवाब देना होता तो मैं कहता कि कांग्रेस इन दंगों में बिल्कुल शामिल नहीं थी। अगर कोई नेता इसमें शामिल था तो अदालत तय करेगी और तय करने के बाद कानून अपना काम करेगा। पाटी के तमाम नेता तो इंदिरा जी के शव के साथ थे। हमारा इन दंगों से कुछ लेना देना नहीं था। जब यह पूछा गया कि अगर अरविंद केजरीवाल शीला दीक्षित और उनके मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे तो कांगेस समर्थन वापस ले सकती है? राहुल को जवाब देना चाहिए था कि हम पाक साफ हैं हमने कोई भ्रष्टाचार नहीं किया अगर किया होता या हमारे मन में चोर होता तो हम केजरीवाल जैसे घाघ व्यक्ति को दिल्ली की गद्दी पर न बैठातेराहुल को नरेन्द्र मोदी का खौफ कितना है साफ हो गया।उन्होंने इस हद तक कह डाला कि 2002 के गुजरात दंगों में शामिल थी मोदी सरकार। उन्हें इस हद तक नहीं जाना चाहिए था। अदालतों ने मोदी को क्लीन चिट दे दी है फिर भी अगर राहुल ऐसी बात करते हैं तो वह अपना खौफ ही पदर्शित कर रहे हैं। उनसे उम्मीद थी कि वह अपने विजन की बात करते। महंगाई को कैसे टैकल करना चाहते हैं, इस पर विस्तार से बताते। घोटालों को रोकने पर बेशक उन्होंने कुछ उठाए कदमों का जिक किया पर पभावी ढंग से नहीं। बेरोजगारी कम करने और युवाओं में उत्साह पैदा करने के उपायों पर विस्तार से बताना चाहिए था। विदेश नीति, आर्थिक नीतियों पर अपने विजन का खुलासा करना चाहिए था। असल में दिक्कत यह है कि पिछले नौ-दस सालों से राहुल आन-आफ होते रहे हैं। उन्हें मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों में ज्यादा दखलअंदाजी करनी चाहिए थी। आज अगर कांगेस की यह दयनीय स्थिति बनी हुई है तो उसका पमुख कारण हैं मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां। राहुल इस पोजीशन में तो थे ही कि वह चाहते तो जनविरोधी नीतियों का विरोध करते और उनको लागू न होने देते। अब जब पानी सिर से गुजर गया है पछताने से क्या फायदाराहुल से ज्यादा मैं उनके सलाहकारों और होमवर्क करवाने वालों को दोष देता हूं। वह पूरे इंटरव्यू में होमवर्क के बिना दिखे। उनके पास तथ्य पूरे नहीं थे और कई पुरानी जानकारियों का अभाव दिखा। सीधे सवालों से बचते हुए और कई सवालों पर कमजोर तर्क दिए। आम चुनाव और मौजूदा समस्याओं मसलन महंगाई, भ्रष्टाचार के सवाल पर कोई रिस्पांस नहीं। सिस्टम बदलने की बार-बार बात राहुल करते हैं लेकिन इसके साथ-साथ वह विरोधाभासी तर्क में भी उलझते रहे। कुल मिलाकर इस इंटरव्यू में कुछ पाजिटिव बातें भी रही। पहली बात तो राहुल खुल कर चुनावी दंगल में कूदते नजर आए। एक घंटे तक चले इंटरव्यू में राहुल ने अपना संयम बरकरार रखा और वैसे सवालों का जवाब नहीं दिया जिनका जवाब वह नहीं देना चाहते थे। राहुल के इंटरव्यू के बाद नरेन्द्र मोदी पर भी सवालों का सामना करने का दबाव बढ़ गया है। मोदी ने भी लंबे समय से कोई इंटरव्यू नहीं दिया है। राहुल ने खुद को सिस्टम से जूझने वाले लीडर के तौर पर पस्तुत करने की कोशिश की जिसे मिडिल क्लास तबके में पसंद किया जाता है और अंत में इस इंटरव्यू की बदौलत वह आखिर चर्चा में तो आ ही गए।

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