Sunday, 29 June 2014

नक्सली प्रति वर्ष 100 करोड़ रुपए वसूल कर लेते हैं

नक्सलवाद हमारे देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। देश के कम से कम 10 राज्य इससे सीधे प्रभावित हैं। यूपीए सरकार अपने 10 साल के कार्यकाल में इससे निपटने में विफल रही। अब मोदी सरकार इस समस्या से कैसे निपटती है यह देखना है। मोदी सरकार नक्सलियों से निपटने के लिए नए सिरे से एक्शन प्लान तैयार करेगी। गृह मंत्रालय ने इसके लिए 27 जून को बैठक बुलाई थी। देश के 10 नक्सल प्रभावित राज्यों के प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लिया। गृह मंत्रालय ने आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, यूपी और पश्चिम बंगाल के शीर्ष अधिकारियों को बैठक के लिए बुलाया गया। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इन राज्यों को नक्सल अभियान पर फीडबैक के साथ नए सिरे से फ्यूचर प्लान पेश करने को कहा है। नक्सल आंदोलन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दु है पैसा। छत्तीसगढ़ देश में माओवाद से सर्वाधिक प्रभावित राज्य है और इसका एक कारण नक्सलियों, माओवादियों को यहां से मिलने वाली बड़ी रकम है और विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के मुताबिक माओवादी राज्य से प्रति वर्ष लगभग 80 से 100 करोड़ रुपए तक उगाहते हैं। राज्य के नक्सल प्रभावित राजनांद गांव जिले के सीता गांव और औधी के जंगल में इस वर्ष 4 मार्च को सुरक्षाबलों ने नक्सलियों द्वारा बनाया गया एक डम्प बरामद किया था, जिसमें 29 लाख रुपए थे। पुलिस ने नक्सलियों की इतनी बड़ी रकम पहली बार पकड़ी थी। नक्सल प्रभावित इलाकों में ऐसे सैकड़ों डम्प हैं जिनमें नक्सली अपनी रकम छिपाकर रखते हैं। डम्प वास्तव में जमीन खोदकर बनाई गई एक टंकी होती है। विभिन्न माध्यमों से पुलिस को नक्सलियों द्वारा यहां से प्रति वर्ष 80 से 100 करोड़ रुपए की उगाही करने की जानकारी मिली है। इसकी पुष्टि पिछले दिनों पकड़े गए दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी उर्प जीवेके प्रसाद ने भी की है। अधिकारियों ने बताया कि नक्सली अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में आम जनता से लगभग 3 करोड़ रुपए, व्यापारियों से लगभग 10 करोड़ रुपए, ठेकेदारों से लगभग 20 करोड़ रुपए, ट्रांसपोर्टरों से लगभग 10 करोड़ रुपए, तेंदूपत्ता ठेकेदारों से लगभग 2 करोड़ रुपए, बांस एवं जंगल काटने वाले ठेकेदारों से लगभग 15 करोड़ रुपए, प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले उद्योगपतियों से लगभग 20 करोड़ रुपए तथा क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों से चन्दे के रूप में लगभग 2 करोड़ रुपए वसूलते हैं। धन उगाही सावधानीपूर्वक की जाती है। हर स्तर पर केवल दो लोगों को ही पता होता है कि धन कहां रखा जा रहा है तथा कहां भंडारण किया जा रहा है। नक्सली-माओवादी रुपयों का इस्तेमाल प्रिंटिंग कार्य, दवाओं और समर्थकों का इलाज, संचार साधनों की खरीदारी, हथियार और गोला-बारुद की खरीद, खाद्य सामग्री तथा मिलिट्री शिविरों में करते हैं। समर्थक और कार्यकर्ताओं को जेल से बाहर निकालने के लिए अदालती कार्रवाई पर भी धन खर्च किया जाता है। एकत्र की गई रकम का नियोजन भी सावधानी से किया जाता है। इससे समर्थकों के लिए वाहन खरीदे जाते हैं, सोने के बिस्कुट खरीदे जाते हैं तथा कई बार बैंक में भी रखे जाते हैं। अगर केंद्र व राज्य सरकारों को नक्सलियों, माओवादियों से सही मायने में लड़ना है तो यह जरूरी है कि इनकी आमदनी पर कंट्रोल हो। यह तभी संभव है जब इनकी दहशत समाप्त हो। अकेले मिलिट्री या पुलिस कार्रवाई से यह समस्या खत्म नहीं की जा सकती।

-अनिल नरेन्द्र

नेशनल हेराल्ड सम्पत्ति हथियाने का सोनिया-राहुल पर आरोप

डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी भारतीय राजनीति में एक बेमिसाल किरदार के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। उनकी खासियत यह है कि जिसके पीछे वह पड़ गए उसका जल्दी से पीछा नहीं छोड़ते। अर्से से उनके निशाने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी रहे हैं। कानून के मामलों के खासे जानकार हैं इसलिए अदालत जाने से वह कतराते भी नहीं। सोनिया गांधी के खिलाफ उन्होंने ही सबसे पहले विदेशी मूल का मुद्दा उठाया था। लम्बे समय से उनका सोनिया गांधी को अदालतों में घसीटने का प्रयास रहा है। लेकिन अब तक उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली थी। पहली बार उन्हें गुरुवार को एक बड़ी सफलता मिली। दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने नेशनल हेराल्ड केस में डॉ. स्वामी की याचिका पर सोनिया गांधी और राहुल  गांधी को हाजिर होने के लिए समन जारी कर दिया है। इनके अलावा ऑस्कर फर्नांडीस, मोती लाल वोरा, सैम पित्रोदा और सुमन दूबे को भी कोर्ट में हाजिर होने के लिए समन जारी किए गए हैं। अदालत ने सात अगस्त को सभी को हाजिर होने को कहा है। मामला बन्द हो चुके अखबार नेशनल हेराल्ड की दिल्ली और उत्तर प्रदेश में स्थित करीब दो हजार करोड़ की सम्पत्ति से जुड़ा है। यह आदेश पटियाला हाउस कोर्ट मेट्रो पोलिटन मजिस्ट्रेट गोमती मनोचा ने दिया है। उल्लेखनीय है कि इसी जज महोदया ने अरविन्द केजरीवाल को बांड न भरने पर तिहाड़ पहुंचाया था। डॉ. स्वामी ने आरोप लगाया था कि नेशनल हेराल्ड समाचार पत्र की प्रकाशक कम्पनी द एसोसिएटिड जर्नल्स लिमिटेड की अरबों रुपए की सम्पत्ति को धोखाधड़ी कर हड़प लिया गया। इसके लिए कांग्रेस से बिना ब्याज के 90 करोड़ रुपए का ऋण भी लिया दिखाया गया। यह आयकर कानून का उल्लंघन था। कोई भी राजनीतिक दल व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए कर्ज नहीं दे सकता। कांग्रेस ने 23 नवम्बर 2010 कानून के तहत यंग इंडियन कम्पनी बनाई। इसमें सोनिया-राहुल की 38-38 फीसदी की हिस्सेदारी है। पार्टी ने एजेएल की देनदारियां (खासकर 90.25 करोड़ का कर्ज) यंग इंडियन को बेच दिया। इसके एवज में उससे 50 लाख रुपए ले लिए। इस तरह दो हजार करोड़ रुपए की नेशनल हेराल्ड की सम्पत्तियां कांग्रेस नेतृत्व ने यंग इंडियन के मार्पत अपने कब्जे में कर लीं। कमाई के लिए नेशनल हेराल्ड की इमारत का एक हिस्सा पासपोर्ट ऑफिस को किराये पर दे दिया गया। यह भी गलत है। मजिस्ट्रेट ने समन जारी करते हुए कहा, `अब तक के सबूतों से ऐसा लगता है कि यंग इंडियन कम्पनी दो हजार करोड़ रुपए की सम्पत्ति अधिग्रहित करने के लिए मुखौटे के तौर पर काम कर रही थी। आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई आगे बढ़ाने के पर्याप्त आधार हैं।' कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि हमें जब दस्तावेज मिलेंगे तो उस पर व्यापक अध्ययन के बाद जवाब देंगे। हालांकि बताया जा रहा है कि कांग्रेस समन को चुनौती देने के लिए हाई कोर्ट में अर्जी दे सकती है। इस बीच डॉ. स्वामी ने वित्तमंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखकर मामले की आयकर विभाग से जांच की मांग भी की है। यह  पहली बार है जब सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अदालत में घसीटा गया है और अदालत ने भी समन जारी कर दिए हैं। कांग्रेस का कहना है कि इस मामले में जल्द ही उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके समन को ही खारिज कराने की कोशिश की जाएगी। क्योंकि मेट्रो पोलिटन मजिस्ट्रेट ने बगैर पुख्ता तथ्यों के समन जारी किए हैं। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस नेतृत्व का मनोबल काफी कमजोर है। डॉ. स्वामी को यह सफलता मिली तो वह उत्साहित हो गए हैं। अब उन्हें भरोसा हो गया है कि वह कांग्रेस के प्रथम परिवार को तमाम झमेलों में फंसा देंगे, तो कई नए तथ्य दुनिया के सामने उजागर हो जाएंगे। वैसे भी डॉ. स्वामी अब भाजपा का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में संघ परिवार भी सोनिया विरोधी मुहिम में उनका साथ देने को तैयार है। बड़ी चुनावी हार के बाद डॉ. स्वामी की याचिका की मार कम से कम फौरी तौर पर ही सही कांग्रेस के लिए एक नई सिरदर्द बन गई है। ऐसा लगता है कि अदालतों में अब लम्बी लड़ाई चलेगी। 7 जुलाई को जिस दिन सोनिया-राहुल को अदालत में पेश होने का समन दिया गया है उसी दिन संसद का बजट सत्र भी शुरू हो रहा है। गौरतलब है कि इस प्रकरण में कांग्रेस का कमजोर पहलू यह है कि एक तो उस पर जनता का फंड यंग इंडिया कम्पनी को बिना ब्याज के देने का आरोप है। दूसरा लीज नियमों के मुताबिक हेराल्ड भवन को बिना प्रेस चलाए किराये पर नहीं दिया जा सकता, जो अभी दिया जा रहा है। तीसरा पार्टी पर हेराल्ड की पूरी सम्पत्ति को मामूली रकम देकर हड़पने का आरोप है। यही चीजें कांग्रेस की गले की फांस बनी हुई हैं।

Saturday, 28 June 2014

अखिलेश यादव को `दुश्मन' राज्यपाल के आने का डर सता रहा है

बढ़ते अपराध के कारण उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त किए जाने की मांग के बीच राज्यपाल बीएल जोशी के विदा होने से सपा सरकार की परेशानी पर परेशानी की कुछ और लकीरें खिंच गई हैं। पहले से ही चुनौतियों के बोझ तले दबी अखिलेश यादव सरकार के लिए जोशी द्वारा दिया गया इस्तीफा कोढ़ में खाज वाली कहावत को चरितार्थ करने जैसे साबित हो रहा है। सरकार को इस बात का डर है कि कहीं जोशी का उत्तराधिकारी उनकी समाजवादी सरकार के साथ दोस्ती न निभाए तो क्या होगा? बीएल जोशी (78) पुलिस अधिकारी रहे हैं। उनकी नियुक्ति केंद्र की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के जमाने में हुई थी और वह भिन्न प्रवृत्तियों वाले दो मुख्यमंत्री मायावती और अखिलेश यादव के साथ मधुरता कायम रखने में कामयाब रहे। लखनऊ में पांच वर्षों के अपने कार्यकाल के दौरान जोशी वास्तविक राजनीति से दूर ही रहे। उन्होंने तभी सरकार को टोका जब स्थिति बिल्कुल पटरी से उतरती दिखी। राजभवन ने सरकार से संबंधित अपने विचारों को मीडिया के जरिये कभी व्यक्त  नहीं किया और जिन मुख्यमंत्रियों के साथ जोशी ने काम किया उनसे सीधी बातचीत की। समाजवादी पार्टी की सरकार को इस बात की आशंका है कि कहीं कानून व्यवस्था सहित तमाम मुद्दों को आधार बनाकर नए राज्यपाल आए दिन सवाल-जवाब न करें। राजभवन की तरफ से यदि ऐसा हुआ तो अखिलेश यादव के लिए नई परेशानी पैदा होगी, जिससे निपटना इतना आसान नहीं होगा। लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश में सहयोगी अपना दल के साथ 73 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी केंद्र में सरकार बनाने के बाद से लगातार अखिलेश यादव की सरकार की बर्खास्तगी की मांग करती आ रही है। अब तक आधा दर्जन से अधिक बार पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष लक्ष्मीकान्त वाजपेयी अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ उत्तर प्रदेश की लचर कानून व्यवस्था और बिजली कटौती को आधार बनाकर पूर्व राज्यपाल बीएल जोशी से मुलाकात कर सरकार को बर्खास्त करने संबंधी ज्ञापन दे चुके हैं।  सपा सरकार को इस बात का भय सता रहा है कि कहीं मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री काल में राज्यपाल रहे टीवी राजेश्वर सरीखा हाल उसका दोबारा न हो। उस दौर में राज्य सरकार और राजभवन कई मर्तबा आमने-सामने आ गए थे और दोनों के बीच टकराव के हालात पैदा हो गए थे। अभी अखिलेश सरकार की मुश्किलें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। प्रदेश में  लगभग रोज हो रहीं सनसनीखेज वारदातें पहले ही मुख्यमंत्री को मुश्किलों में डाले हुए हैं। एक पखवाड़े के भीतर प्रदेश के दो प्रमुख सचिवों गृह सचिव डॉ. एके गुप्ता और दीपल सिंघल को बदलना इस बात की ओर इशारा करता है कि कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार किस तरह छटपटा रही है। हाल ही में बड़ी संख्या में जिलाधिकारियों व पुलिस अधिकारियों के तबादले कर मुख्यमंत्री ने कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने का दांव चला है। अब बड़ा सवाल यह है कि ऐसे हालात से निपटने में नए राज्यपाल कौन-सी भूमिका अदा करते हैं? अब जोशी के विदा होने पर राज्य सरकार को दुश्मन राज्यपाल के आने का डर सता रहा है।
-अनिल नरेन्द्र


क्या व्यापमं घोटाले में भाजपा के असंतुष्टों का हाथ है?

नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर व्यापमं (व्यावसायिक प्रवेश परीक्षा मंडल) भर्ती घोटाले का आरोप लगना क्या किसी तयशुदा रणनीति के तहत है? क्या यह भाजपा की अंदरूनी राजनीति व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ उन्हीं की पार्टी व संघ के एक नेता के आपसी टकराव का नतीजा है? मध्यप्रदेश प्रोफेशनल एग्जामिनेशन बोर्ड में भर्ती घोटाले का पिछले साल पता चला। यह खुलासा हुआ कि इंजीनियरिंग, मेडिकल व दूसरी व्यावसायिक परीक्षाओं में राज्य से बाहर के आए लोग परीक्षा केंद्र में बैठकर वहां के परीक्षार्थियों को नकल करवा रहे हैं। इसके अलावा ओएमआर शीट खाली छोड़ दी जाती थी जिसे बाद में भरकर लोगों को पास किया जा रहा था। इंदौर पुलिस ने 2013 में यह मामला पकड़ा। अब यह मामला हाई कोर्ट की निगरानी में चल रहा है। करीब 400 लोग इस केस में अब तक गिरफ्तार हो चुके हैं। इस खुलासे के बाद पिछली सरकार में उच्च व तकनीकी शिक्षा मंत्री रहे लक्ष्मीकान्त शर्मा को गिरफ्तार किया गया। वह संघ के चहेते रहे हैं। हर भाजपा सरकार में मंत्री बने। उन्हें खनन से लेकर उच्च व तकनीकी शिक्षा जैसे मलाईदार मंत्रालय दिलाने में संघ की अहम भूमिका रही। उन्होंने एक संघ के शिक्षक रहे सुधीर शर्मा को अपना ओएसडी नियुक्त किया जो बाद में खुद खनन का धंधा करते हुए अरबपति बन गया। अब वह फरार चल रहा है। कांग्रेस नेता इस घोटाले में शिवराज सिंह चौहान के परिवार के सदस्यों व रिश्तेदारों का नाम होने का आरोप लगा रहे हैं। शिवराज सिंह ने इस आरोप का खंडन करते हुए बतौर जवाबी कार्रवाई कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा के खिलाफ मानहानि का दावा किया है। हालांकि यह केस शिवराज ने खुद नहीं किया बल्कि मध्यप्रदेश सरकार की तरफ से किया गया है। यह मामला सरकारी वकील द्वारा भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में दायर किया गया है। शिवराज ने इस मामले में सिर्प इतना कहा कि सारे आरोप निराधार हैं। अब मामला अदालत में पहुंच गया है इसलिए वहीं बात होगी। मुझे जब नोटिस मिलेगा तो मैं अदालत में उसका जवाब दूंगा। इस समय भोपाल स्थित बल्लभ भवन दो खेमों में बंटा है। वहां शिवराज समर्थक व विरोधी दोनों ही सक्रिय हैं। जहां समर्थक उनका बचाव करने की कोशिश में हैं वहीं असंतुष्ट उन्हें निपटाने में लगे हुए हैं। भाजपा सूत्रों के मुताबिक सोची-समझी रणनीति के तहत विपक्षी खेमा कांग्रेस को तमाम दस्तावेज उपलब्ध करवा रहा है। असंतुष्टों की लगता है लम्बी योजना है। उनका मानना है कि नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री पर विश्वास नहीं करते हैं क्योंकि वह उन्हें लाल कृष्ण आडवाणी व सुषमा स्वराज के खेमे में मानते हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि सबसे पहले शिवराज सिंह ने ही आडवाणी को भोपाल से चुनाव लड़ने का निमंत्रण दिया था जो मोदी को नागवार गुजरा था। इससे पहले सार्वजनिक मंच से आडवाणी शिवराज की खुलकर तारीफ करते आए थे और उन्हें मोदी के बराबर योग्य व सक्षम मानते थे। इस खुलासे के पहले ही मुख्यमंत्री व सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी के संबंध बिगड़ चुके थे। लक्ष्मीकान्त शर्मा व संघ व सोनी के काफी करीब थे। उन्हें बहुत शक्तिशाली मंत्री माना जाता था। बाद  में उनके मुख्यमंत्री से संबंध खराब हो गए। इस घोटाले में संघ के करीबी व उससे जुड़े लोगों के नाम भी आ रहे हैं। शिवराज विरोधी नेताओं की कोशिश है कि हालात इतने बिगड़ जाएं कि मामला सीबीआई को सौंप दिया जाए जिससे कि मुख्यमंत्री का भविष्य प्रधानमंत्री के रहमोंकरम पर टिक जाए। शिवराज सिंह चौहान ने दिल्ली आकर मोदी व राजनाथ सिंह से मिलने का प्रयास किया पर दोनों ने मुलाकात करने से परहेज किया। बाद में शिवराज ने दोनों नेताओं से फोन पर बात की और अपनी स्थिति स्पष्ट की। बेशक सामने कांग्रेसी नेता हैं पर उनके पीछे शिवराज की अपनी पार्टी का एक गुट इन मामलों को उछाल रहा है।

Friday, 27 June 2014

इराक में शिया-सुन्नी लड़ाई का पुराना इतिहास है

चरमपंथी संगठन आईएसआईएस जैसे-जैसे इराक के लिए खतरा बनता जा रहा है वैसे-वैसे इराक के साथ-साथ अन्य देशों के शिया मुसलमानों में बेचैनी बढ़ती जा रही है। इराक के मौजूदा हालात शिया और सुन्नियों के बीच तनाव बढ़ाने का कारण बन रहे हैं। आखिर शिया-सुन्नी संघर्ष क्यों? दुनिया के मुसलमानों में मुख्यत दो समुदाय बड़े हैं और इन समुदायों में बंटे हैं शिया और सुन्नी। पैगम्बर मोहम्मद की मौत के बाद इन दोनों समुदायों ने अपने रास्ते अलग कर लिए और इनका शुरुआती विवाद इस बात को लेकर था कि अब कौन मुसलमानों का नेतृत्व करेगा। इन दोनों के बीच वर्ष 632 में मोहम्मद साहब के निधन के बाद से ही उनके उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद अब तक कायम है। हालांकि दोनों में बहुत कुछ साझा है लेकिन वह कुछ इस्लामी मान्यताओं की व्याख्या अलग-अलग तरह से करते हैं। दुनिया में मुसलमानों की कुल आबादी में शियाओं के मुकाबले सुन्नी अधिक हैं। कुछ समय पहले 2011-12 में अमेरिकी संस्था पियू रिसर्च सेंटर की ओर से 200 देशों में किए गए सर्वे के अनुसार 2009 में कुल मुस्लिम आबादी एक अरब 57 करोड़ थी और यह कुल आबादी (छह अरब 80 करोड़) का 23 फीसद थी। कुछ मुस्लिम संगठन इससे ज्यादा आबादी होने का दावा करते हैं। वैसे इसमें दो राय नहीं कि ईसाइयों के बाद मुस्लिम दूसरा बड़ा धार्मिक समूह है। मुसलमानों में ज्यादा संख्या सुन्नियों की है जो कुल मुस्लिम आबादी का 85 से 90 फीसदी माने जाते हैं। बीबीसी के अनुसार दोनों ही समुदाय सदियों तक मिलजुल कर एक साथ रहते रहे हैं और बहुत हद तक उनकी धार्मिक आस्थाएं और रीति-रिवाज एक जैसे हैं। इराक में हाल के समय तक शिया और सुन्नियों के बीच शादियां बहुत आम रही हैं। उनके मतभेद सिद्धांत, अनुष्ठान, कानून, धर्म शास्त्र और धार्मिक संगठनों को लेकर रहे हैं। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में लेबनान और सीरिया से लेकर इराक और पाकिस्तान तक कई देशों में दोनों समुदायों के बीच हिंसा देखने को मिली है और इससे उनमें मतभेदों की खाई और बढ़ी है। सुन्नी कौन हैं? सुन्नी मुसलमान खुद को इस्लाम की पुरातनपंथी और पारम्परिक शाखा समझते हैं। सुन्नी परम्परा मानने वाले लोग हैं। इस मामले में परम्परा का अर्थ है पैगम्बर मोहम्मद या उनके करीबी लोगों की ओर से कायम की गई मिसालों और निर्देशों के अनुरूप काम करना। पवित्र कुरान में जिन सभी पैगम्बरों का जिक्र है, सुन्नी उन सबको मानते हैं, लेकिन उनके लिए मोहम्मद अंतिम पैगम्बर थे। उनके बाद जो भी मुसलमान नेता या धार्मिक गुरु हुए उन्हें सांसारिक हस्ती माना जाता है। सुन्नी परम्परा इस्लामी कानून और उसके कानून की चार विचारधाराओं के संगम पर  बल देते हैं। शिया कौन हैं? इस्लामी इतिहास की शुरुआत में शिया एक राजनीतिक शाखा के शब्दुरा ः `शियान--अली' यानि अली की सेना। शिया मानते हैं कि पैगम्बर मोहम्मद की मौत के बाद उनके दामाद अली को ही मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने का अधिकार था। तालिबान सुन्नी गुट है। तालिबान चरमपंथी कई बार शिया धार्मिक स्थलों को निशाना बनाते हैं। आए दिन हम पढ़ते हैं कि पाकिस्तान में शियाओं पर तालिबान ने हमला किया और लोगों को बसों से उतारकर मौत के घाट उतार दिया। इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी पर सुन्नियों की अनदेखी करने के आरोप लगते हैं। सत्ता में रहते हुए ही अली मारे गए। उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी खिलाफत का दावा किया था। हुसैन युद्ध भूमि में मारे गए जबकि हसन के बारे में माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था। इन घटनाओं ने शिया समुदाय में शहादत की महत्ता को बढ़ा दिया और वहीं से मातम की रस्म चल पड़ी। माना जाता है कि दुनिया में 12 से 17 करोड़ शिया हैं जो कुल मुसलमानों के 10 फीसदी के बराबर हैं। अधिकतर शिया मुसलमान ईरान, इराक, बहरीन, अजरबैजान और कुछ अनुमानों के मुताबिक यमन में भी रहते हैं। अफगानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, कतर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में भी अच्छी-खासी संख्या में शिया रहते हैं। हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार? जिन देशों में सुन्नियों के हाथों में सत्ता है वहां शिया आमतौर पर समाज का सबसे गरीब तबका होता है। वह खुद को भेदभाव और दमन का शिकार मानते हैं। कई सुन्नी चरमपंथी सिद्धांतों में शियाओं के खिलाफ नफरत को बढ़ावा दिया जाता है। ईरान में 1979 की क्रांति के बाद एक कट्टरपंथी इस्लामी एजेंडे को आगे बढ़ाया गया, जिसे खासतौर से खाड़ी देशों की सुन्नी सत्ताओं के लिए एक चुनौती के तौर पर देखा गया। इराक के पूर्व शासक सद्दाम हुसैन सुन्नी थे और इसीलिए उनके समय में ईरान-इराक में तनातनी चलती रही। एक बार युद्ध भी छिड़ा। 2011 में इराक के 14 फीसद सुन्नियों ने कहा कि वह शियाओं को मुसलमान नहीं मानते। मिस्र के 57 फीसद सुन्नियों ने भी कहा कि शिया मुस्लिम नहीं हैं। आईएसआईएस सरगना अबू बकर बगदादी भी शियाओं को मुस्लिम मानने से इंकार करते हैं। इराक में वर्तमान युद्ध में एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि सुन्नी आईएसआईएस इराक की शिया हुकूमत को पलटना चाहता है। ईरान की सरकार ने अपनी सीमाओं से बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया जबकि खाड़ी देशों ने भी इसी तरह सुन्नियों को बढ़ावा दिया, इससे दुनिया में सुन्नी सरकारों और आंदोलन के साथ उनके सम्पर्प मजबूत हुए। लेबनान के गृहयुद्ध के दौरान हिजबुल्लाह की सैन्य गतिविधियों के कारण शियाओं की सियासी आवाज मजबूती से दुनिया को सुनाई दी। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी चरमपंथी संगठन अकसर शियाओं के धार्मिक स्थलों को निशाना बनाते हैं। सीरिया और इराक में जारी संकट में शिया और सुन्नी विवाद की गूंज सुनाई देती है। इन दोनों ही देशों में युवा सुन्नी विद्रोही गुटों में शामिल हो रहे हैं। इनमें बहुत से लोग अलकायदा की कट्टरपंथी विचारधारा को मानते हैं। कहा जा रहा है कि सद्दाम हुसैन के इम्पीरियल गार्ड की टुकड़ियां जो अमेरिकी हमले के बाद अंडरग्राउंड हो गई थीं वह भी अब विद्रोहियों से मिल गई हैं और वर्तमान गृहयुद्ध में वह खुलकर सरकार के खिलाफ जंग कर रही हैं। दोनों देशोंöइराक और सीरिया में युवा सुन्नी विद्रोही गुटों में शामिल हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर शिया समुदाय के कई लोग सरकार की ओर से या सरकारी सेनाओं के साथ मिलकर लड़ रहे हैं। इराक में जो गृहयुद्ध चल रहा है उसके कई कारण हैं पर इनमें एक बहुत बड़ा कारण सदियों पुरानी शिया-सुन्नी लड़ाई भी है।

-अनिल  नरेन्द्र

Thursday, 26 June 2014

मोदी सरकार रामसेतु को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करे

नरेन्द्र मोदी की नेतृत्व वाली राजग सरकार को भगवान राम के बनाए सेतु को खंडित करने वाली यूपीए सरकार की सेतु समुद्रम परियोजना को जल्द रद्द करना होगा। जहाजरानी मंत्रालय को कानून मंत्रालय से सलाह लेकर इस ओर कदम बढ़ाने चाहिए। हिन्दू धर्म की भावनाओं के मद्देनजर हम उम्मीद करते हैं कि मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में लम्बित इस मुद्दे पर परियोजना को रामसेतु के रास्ते से हटाएगी। साथ ही उसे राष्ट्रीय धरोहर भी घोषित करेगी। पूर्व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के नेतृत्व वाले जहाजरानी मंत्रालय ने पीएम से तमिलनाडु की सीएम जयललिता की मुलाकात के बाद रामसेतु को तोड़ने की परियोजना को रोकने की तैयारी शुरू कर दी है। हालांकि यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में लम्बित होने की वजह से सरकार सीधे तौर पर परियोजना बन्द करने का निर्णय लेने से कतरा रही है। इसी वजह से अदालत में जवाब दाखिल करने से पहले कानून मंत्रालय से राय ली जाएगी। यूपीए सरकार की यह महत्वाकांक्षी परियोजना सर्वोच्च अदालत में जनहित याचिका दायर होने के बाद कानूनी विवाद में फंस गई थी। उस दौरान भी भाजपा ने परियोजना का विरोध किया था। तमिलनाडु सरकार भी अदालत में इस परियोजना का लगातार विरोध करती रही है। जहाजरानी मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक परियोजना को बन्द करने या इसे पूरा करने के लिए विशेषज्ञों से राय ली जाएगी। उसके बाद कानून मंत्रालय से राय ली जाएगी। साथ ही रामसेतु को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने पर विचार किया जाएगा। सूत्रों के मुताबिक परियोजना को खत्म करने के लिए केंद्र की भाजपा सरकार को तमिलनाडु सरकार से पूरा समर्थन मिलेगा और राजनीतिक नजदीकियां भी बढ़ेंगी। साथ ही इस कदम का फायदा मोदी सरकार को संसद में लिए जाने वाले कठोर निर्णयों पर राज्यसभा में भी मिल सकता है। सेतु समुद्रम परियोजना पौराणिक पुल रामसेतु को तोड़कर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में एक नौवाहन मार्ग बनाए जाने पर केंद्रित है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किलोमीटर लम्बा नौवाहन चैनल बनाए जाने का प्रस्ताव है। सुप्रीम कोर्ट ने 23 जुलाई 2008 को सेतु समुद्रम शिप चैनल प्रोजेक्ट के वैकल्पिक मार्ग की सम्भावना तलाशने के लिए पर्यावरणविद् डॉ. आरके पचौरी की अध्यक्षता में एक समिति के गठन का आदेश दिया था। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था से जुड़ा रामसेतु हर हाल में सुरक्षित रहना चाहिए। नरेन्द्र मोदी से हमारी यही उम्मीद है कि वह कोई ऐसा रास्ता निकालेंगे जिससे इस पौराणिक धरोहर को कोई नुकसान न हो।

-अनिल नरेन्द्र

यूजीसी बनाम वीसी सही कौन?

चार साल के डिग्री कोर्स को लेकर यूजीसी और दिल्ली यूनिवर्सिटी की लड़ाई लगता है निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है। यूजीसी का दावा है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के 64 कॉलेजों में से 57 कॉलेज तीन साल के कोर्स में एडमिशन देने को तैयार हो गए हैं। यूजीसी ने मंगलवार रात इन कॉलेजों की लिस्ट भी जारी कर दी। इससे पहले मंगलवार दिनभर यूजीसी और वीसी दिनेश सिंह इस मुद्दे पर आरपार की लड़ाई के मूड में नजर आए। वीसी के इस्तीफे की घोषणा तक हो गई, जिससे बाद में इंकार कर दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय कोर्स को लेकर जो घमासान हुआ है उसमें सही-गलत का फैसला करना मुश्किल है। इसकी वजह यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में इतनी अराजकता और राजनीति व्याप्त हो गई है, सारे मुद्दों का हल राजनीतिक सुविधापरस्ती और निहित स्वार्थों के आधार पर तय होते हैं। शिक्षा मंत्रालय यह कह रहा है कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के बीच कुछ नहीं बोलेगा। यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय को चार वर्षीय डिग्री कोर्स खत्म करने का आदेश दिया था। शिक्षा मंत्रालय यह जताने की कोशिश कर रहा है कि यूजीसी ने अपनी स्वायत्त समझ के आधार पर  यह कोर्स खत्म करने का फैसला किया है, जबकि यह वास्तविकता सभी जानते हैं कि यूजीसी ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इच्छा से यह आदेश जारी किया है। भारतीय जनता पार्टी ने यह वादा किया था कि अगर उसकी सरकार बनेगी तो चार वर्षीय डिग्री कोर्स को फिर से पहले की तरह तीन वर्षीय कर दिया जाएगा, इसलिए भाजपा की सरकार बनते ही यूजीसी ने यह आदेश जारी कर दिया। अगर यूजीसी इस कोर्स के खिलाफ थी तो उसे पिछले साल ही ऐसा करना था, जब भारी विवादों के बीच दिल्ली विश्वविद्यालय ने यह फैसला किया था। साफ तौर पर यह केंद्र में बदले निजाम का असर है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं कि 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निर्धारित 10+2+3 के पैटर्न को दरकिनार कर चार वर्षीय कोर्स शुरू करने के निर्णय की समीक्षा हो और उसमें  बदलाव हो, लेकिन महज सरकार बदलने से यदि यूजीसी की सोच पूरी तरह  बदल गई है तो इससे उसकी सोच की स्वतंत्रता और विवेक पर सवाल उठता है। ऐसे में छात्रों का भविष्य और नए दाखिले की प्रक्रिया यदि अधर में लटकी है तो यूजीसी इसके लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से कम जिम्मेदार नहीं है। बहरहाल बड़ा सवाल दिल्ली विश्वविद्यालय के फैसले  पर भी है जिसने अपनी स्वायत्तता की आड़ में संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अनदेखा किया। जो लोग आज चार वर्षीय कोर्स बन्द करने के यूजीसी के फरमान को दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वायत्तता पर हमला करार दे रहे हैं उन्हें इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि क्या स्वायत्तता की आड़ में संसद द्वारा पारित नीति का उल्लंघन किया जा सकता है। बहरहाल तीन वर्षीय स्नातक कोर्स की वापसी के साथ बड़ा सवाल चार वर्षीय कोर्स के अंतर्गत पढ़ रहे छात्रों का है। उचित होगा कि इन छात्रों की पढ़ाई उनके पाठ्यक्रम के अनुरूप पूरी हो। दिल्ली विश्वविद्यालय उन कुछ विश्वविद्यालयों में से है जिसकी प्रतिष्ठा अब भी बची हुई है पर इस प्रकरण से उसकी प्रतिष्ठा पर आंच आई है।

Wednesday, 25 June 2014

इराक में फंसे भारतीयों को सुरक्षित कैसे निकालें?

छावनी कलां गांव का परमिन्दर भगवान का शुक्रिया अदा कर रहा है कि इराक में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड अलशाम आतंकवादियों द्वारा अगवा किए जाने से बाल-बाल बच गया। तेहराक नूर अल हुदा नाम की कंस्ट्रक्शन कम्पनी में काम करने वाला परमिन्दर छुट्टी पर आया था और किसी कारण से वापस नहीं जा पाया। इराक में काम कर रहे 17 हजार भारतीयों में ज्यादातर पंजाब के हैं। आईएसआईएस के कब्जे में फंसे भारतीयों की संख्या 300 के करीब है जिन्हें बंदूक की नोंक पर बंधक बना लिया गया है। एक अन्य अनुमान के अनुसार पंजाब और हरियाणा के करीब 700 लोग संघर्षरत इराक में फंसे हुए हैं। यह जानकारी दोनों राज्यों ने ही दी है। पंजाब सरकार ने 574 लोगों की सूची सौंपी है जबकि हरियाणा के अधिकारियों ने बताया कि इराक में फंसे 147 लोगों के परिजनों ने उनका ब्यौरा सौंपा है। इराक में फंसे भारतीयों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। मोसुल में अगवा किए गए 40 भारतीयों में से एक भले ही चरमपंथियों के कब्जे से निकल भागा है पर वह अब भी इराक में है। इस बीच इक्का-दुक्का लोगों के इराक से लौटकर आने की सुखद सूचनाएं भी हैं पर उनके बारे में अभी सिर्प उम्मीद की जा सकती है जो वतन लौटने के लिए व्याकुल तो हैं पर फिलहाल उनके लौटने की कोई सूरत नहीं दिख रही है। इराक के मोसुल शहर में बंधक 39 भारतीयों की सांसें अब भी अटकी हैं। उन्हें छुड़ाने के लिए पर्दे के पीछे से किए जा रहे प्रयास लगातार जारी हैं। इस बीच हमले की दशा में आतंकवादी संगठन आईएसआईएल द्वारा बंधक भारतीयों को ढाल बनाए जाने की खबरों ने भारतीय खेमे में बेचैनी बढ़ा दी है। आशंका जताई जा रही है कि अमेरिका द्वारा हवाई हमले शुरू करने पर यह आतंकी भारतीयों को ढाल के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। हिंसाग्रस्त क्षेत्र में केरल की 46 नर्सों समेत फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने की योजना भी फिलहाल परवान नहीं चढ़ पाई है। इस बीच इराक छोड़कर वापस आने वालों को पासपोर्ट न देकर स्थानीय कम्पनियों ने सरकार के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है। विदेश मंत्रालय ने जानकारी देने के लिए 24 घंटे चलने वाला कंट्रोल रूम बनाया है। यहां ज्यादातर लोग स्थानीय कम्पनी द्वारा स्वदेश वापसी के लिए पासपोर्ट न देने की शिकायत कर रहे हैं। इराक के शहर मोसुल पर कब्जा किए हुए इराकी विद्रोहियों को दो हफ्ते का वक्त बीत चुका है। वहां के निवासियों का कहना है कि विद्रोही समाज को एक सदी पुराने कठमुल्लापन के हालात में धकेल रहे हैं। एक स्थानीय निवासी ने फोन पर बताया कि शहर पर कब्जे के दिन से ही जेहादियों ने यहां इस्लामिक कानूनों को अतिवादी ढंग से लागू करना शुरू कर दिया है। शहर पर नियंत्रण के तुरन्त बाद विद्रोहियों ने इसे इस्लामिक राष्ट्र का हिस्सा घोषित करते हुए नए कानून लागू करने वाले दस्तावेज जारी कर दिए थे। 16 पन्नों वाले इन दस्तावेजों के अनुसार शराब, नशे की दवा और सिगरेट की बिक्री के साथ ही समूह में इकट्ठा होने और हथियार रखने पर भी रोक लगाई गई है। महिलाओं को पूरा शरीर ढंकने वाले कपड़े पहनने और घर के अन्दर रहने की हिदायत दी गई है। तीर्थस्थलों को ध्वस्त किया जा रहा है। मोसुल के एक ईसाई अबु रामर्जी ने बताया कि विद्रोहियों ने चर्च के सामने लगी वर्जिन मेरी की प्रतिमा भी तोड़ दी है। इराक में छिड़ी जंग में शामिल होने के लिए भारत के शिया समुदाय की ओर से भी मुहिम छेड़ दी गई है। ऑल इंडिया शिया हुसैनी फंड की तरफ से शहादत के लिए फॉर्म भरवाए जा रहे हैं। इसके लिए युवाओं को 40 लाख तक के पैकेज की बात कही गई है। जोन के 8 जिलों में इस तरह की गतिविधियां मिलने पर पुलिस और एलआईयू की नजर है। रिपोर्ट से पता चला है कि इस्लामाबाद, कौराबी, फतेहपुर, प्रतापगढ़, हमीरपुर, बास समेत अन्य जिलों में शहादत के लिए फॉर्म भरवाए जा रहे हैं। हॉस्टलों और मुस्लिम युवाओं में फॉर्म बांटे जा रहे हैं। कुल मिलाकर इराक की स्थिति बहुत तनावपूर्ण बनी हुई है। भारत की प्राथमिकता इराक में फंसे भारतीयों को सुरक्षित निकालने की है।

-अनिल नरेन्द्र

हर खिलाड़ी के लिए सबक हैं मैसी, नेमार और रोनाल्डो

दुनिया के तीन अलग-अलग कोने में जन्मे तीन बच्चे। एकदम साधारण परिवार से। तीनों में समानताöफुटबाल के प्रति जुनून लेकिन चुनौतियां बड़ी-बड़ी। एक भयंकर बीमार, दूसरा गरीबी से मजबूर तो तीसरा सुविधाओं से दूर। लेकिन तीनों डटे रहे। खूब प्रैक्टिस की। खेल को निखारा। बड़े-बड़े क्लबों को मजबूर किया कि वह उन्हें अपनी टीम में लें। आज यह तीन युवा दुनिया के सबसे मशहूर फुटबाल सितारे हैं। यह तीन हैंöअर्जेंटीना के लियोनेल मैसी, पुर्तगाल के क्रिस्टियानो रोनाल्डो और ब्राजील के नेमार। 1986 में जिस विश्व कप ने मैराडोना को ख्याति दिलाई, उसके एक साल बाद यानि 1987 में अर्जेंटीना के ही रोजारियो शहर में लियोनेल मैसी का जन्म हुआ। अपने किसी भी हमउम्र बच्चे की तरह मैसी भी मैराडोना की तरह ही बनना चाहता था। 9 साल की उम्र में भी मैसी से 15-15 मिनट तक फुटबाल दूसरे बच्चे नहीं छीन पाते थे। मैसी 11 साल के थे जब उन्हें पता चला कि वह ग्रोथ हार्मोन की ऐसी कमी से जूझ रहे हैं जिसका जल्द इलाज नहीं किया गया तो उनके शरीर का विकास रुक जाएगा। इलाज भी बेहद कष्टकारक था लेकिन वह डटे रहे। वह रोज खुद अपनी जांघों पर हार्मोन का इंजैक्शन लगाते। सात दिन एक पैर में तो अगले सात दिन दूसरे पैर में। मैसी के परिवार के लिए इस इलाज का खर्च लगभग डेढ़ हजार डॉलर आसान नहीं था। मैसी के पिता जॉर्ज को उनके एक दोस्त ने बताया कि स्पेन का बार्सिलोना क्लब युवा फुटबालरों के इलाज का खर्च भी देता है। वह मैसी को लेकर परिवार सहित स्पेन आ गए। क्लब ने उनका इलाज करवाया। अब मैसी को तय करना था कि स्पेन में रहेंगे या अर्जेंटीना लौट जाएंगे? 14 वर्षीय मैसी ने फैसला सुनाया कि मैं स्पेन में रहूंगा और प्रोफेशनल फुटबालर बनूंगा। इस क्लब ने मेरे लिए इतना किया अब मुझे उसे कुछ लौटाना है। आज लियोनेल मैसी दुनिया के नम्बर वन खिलाड़ी हैं और करोड़ों युवाओं के आइडल। रोनाल्डो 14 साल के थे जब उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने अपने टीचर पर कुर्सी फेंक दी थी। इस घटना के बाद उनकी मां ने कहा कि अब उसके सामने यही रास्ता बचा है कि वह पूरा ध्यान फुटबाल पर दें। रोनाल्डो अपने घर और परिवार से दूर लिस्बन स्पोर्टिंग अकादमी में आ गए। यहीं उनकी ट्रेनिंग शुरू हुई। चार साल बाद 2003 में मैनचेस्टर यूनाइटेड ने अकादमी की टीम में एक दोस्ताना मैच खेला। नतीजा तो मैनचेस्टर यूनाइटेड के हक में रहा, लेकिन विजेता टीम के रियो फडिनांड, रियान गिब्स ने अपने कोच पर एलेक्स फर्गुसन से कहा कि रोनाल्डो को अपनी टीम में लें। रोनाल्डो एक ट्रेनिंग अकादमी से निकलकर सीधे दुनिया के जाने-माने क्लब में शामिल हो गए। क्लब ने इस चमत्कारी बच्चे को हासिल करने के लिए 17 मिलियन डॉलर चुकाए। रोनाल्डो एक हार्डवर्पर हैं जो हमेशा ज्यादा से ज्यादा हासिल करना चाहते हैं। वह एक महत्वाकांक्षी मशीन हैं। यह साबित करता है कि उनका कैरियर रिकार्ड। 2009 से रियल मैड्रिड की ओर से खेल रहे रोनाल्डो कहते हैं कि मेरा सपना है कि मैं अपने देश पुर्तगाल को एक वर्ल्ड कप जीत कर दूं। ब्राजील के शहर साओ पाओलो के नजदीक मोगी दा क्रज में नेमार की परवरिश हुई। पढ़ाई एक ऐसे सरकारी स्कूल में, जहां न ठीक से पढ़ने की सुविधा थी न खेलने की। ब्राजील में फुटबाल से ही मिलता-जुलता एक खेल फुटसाल बेहद लोकप्रिय है। जो बास्केटबाल कोर्ट में खेला जाता है। इसमें सारा दमखम इसी बात का होता है कि एक छोटे से कोर्ट में कम उछाल वाली भारी फुटबाल पर ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण कैसे रखा जाए। ऐसे ही बाल को साधते-साधते नेमार 9 साल की उम्र तक असाधारण फुटबालर बन गए। अच्छी फुटबाल खेलने के कारण उन्हें साओ पाओलो के एक प्राइवेट स्कूल ने स्कॉलरशिप दे दी। 16 साल की उम्र में ही नेमार को सांतोष फुटबाल क्लब ने प्रोफेशनल के रूप में मान्यता दे दी। 19 साल की उम्र तक वह दुनिया के महान फुटबालरों में गिने जाने लगे। उन्हें फीफा प्लेयर ऑफ साउथ अमेरिका चुना गया। अब तक यह मुकाम मैराडोना और पैले ही हासिल कर पाए थे। नेमार की इस उपलब्धि की खास बात यह थी कि उन्होंने ऐसा बिना यूरोप में खेले ही हासिल किया था। उनकी जीनियस को टीवी पर देख-देखकर ही मैनचेस्टर यूनाइटेड, चेलसी, रियाल मैड्रिक और बार्सिलोना जैसे क्लबों में होड़ लग गई उन्हें धनी टीम में शामिल करने की। पिछले साल मई में 190 मिलियन यूरो की भारी-भरकम रकम चुकाकर बार्सिलोना क्लब ने अपनी टीम में शामिल किया। महज 22 साल के नेमार को आज मैसी और रोनाल्डो के बराबर दर्जा दिया जाता है। इन तीन महान फुटबालरों की जीवनी से यह साबित होता है कि अगर आपमें लग्न और हुनर है, दृढ़ इच्छाशक्ति है तो आप कुछ भी हासिल कर सकते हो।

Tuesday, 24 June 2014

बिजली कम्पनियां और डीईआरसी गिरा रही है दिल्लीवासियों पर बिजली


देश की राजधानी दिल्ली में प्रत्येक वर्ष गर्मी में तापमान बढ़ने के साथ बिजली संकट शुरू हो जाता है। इस वर्ष समस्या कुछ ज्यादा गंभीर है। पिछले लगभग एक पखवाड़े से दिल्ली के अधिकांश हिस्सों में घंटों बिजली कटौती हो रही है। दरअसल दिल्लीवासियों को निर्बाध रूप से सस्ती व गुणवत्तापूर्ण बिजली आपूर्ति करने में मुख्य गतिरोध दूसरे राज्यों पर निर्भरता, ट्रांसमिशन लाइनों तथा इंटरनल नेटवर्प की दशा नहीं सुधरना, दिल्ली बिजली नियामक आयोग (डीईआरसी) की कार्यप्रणाली संतोषजनक नहीं होना तथा निजी वितरण कम्पनियों की मनमानी है। पहले से ही अन्य राज्यों के मुकाबले दिल्ली में बिजली की कीमतें अधिक हैं। यह बिजली कम्पनियां झूठे पॉवर एकाउंट और बैलेंस शीट दिखाकर डीईआरसी को मूर्ख बनाती रहती हैं और डीईआरसी की कीमतें बढ़ाती रहती हैं। अब फिर बिजली की कीमत बढ़ाने की तैयारी हो रही है। डीईआरसी की महासचिव जयश्री रघुरामन ने कहा कि दिल्ली में बिजली की कीमतें बढ़नी तय हैं। रघुरामन ने शुक्रवार को जन सुनवाई के बाद पत्रकारों से बातचीत में यह बात कही। उधर जन सुनवाई के दौरान आरडब्ल्यूए पदाधिकारियों ने कहा कि डीईआरसी बिजली वितरण कम्पनियों के हित साधने में लगा हुआ है जिसकी वजह से उपभोक्ताओं को महंगी बिजली लेने पर मजबूर होना पड़ रहा है। उसे उपभोक्ता की कतई चिन्ता नहीं। राजधानी में बिजली आपूर्ति कर रहीं निजी कम्पनियों को केवल अपनी कमाई की परवाह है, जनता की परेशानियों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। तमाम दबावों, आंदोलनों और आदेशों के बाद भी यह कम्पनियां आम जनता को परेशान करने और अपनी कमाई बढ़ाने का कोई न कोई रास्ता खोज ही लेती हैं। एक तो दिल्ली की तीनों वितरण कम्पनियां राजधानीवासियों को 24 घंटे बिजली नहीं दे पा रही हैं ऊपर से हेल्पलाइन नम्बरों पर कटौती की शिकायत दर्ज कराने के लिए पैसे वसूल रही हैं। इसका असर यह होता है कि अगर कोई शिकायत दर्ज कराना चाहे तो पैसे कटने के डर से वह बार-बार फोन नहीं कर सकता और यह कम्पनियां आराम से अपनी मनमानी कर सकती हैं। बिजली वितरण कम्पनियों का यह रवैया गैर-जिम्मेदाराना भी है और उनकी मंशा पर सवाल भी खड़ा करता है। डीईआरसी के सामने बिजली कम्पनियां अपनी बैलेंस शीट और अन्य पॉवर एकाउंटों में अलग-अलग आंकड़े दिखाती हैं। क्या यह डीईआरसी को दिखाई नहीं देता? बिजली कम्पनियां पॉवर परचेज में जमकर घोटाला कर रही हैं। वह घाटा दिखाते हुए कीमतें बढ़वाने के लिए पॉवर कट करती हैं। राजधानी में 30 लाख उपभोक्ताओं के यहां  बिजली के मीटर लगे हैं। इनसे डिस्कॉम कम्पनियां ट्रांसफार्मर से मीटर तक पहुंचाने व मरम्मत के नाम पर हर माह 100 रुपए वसूलती हैं। यानि एक उपभोक्ता से प्रति वर्ष 1200 रुपए की वसूली की जाती है। इसके अलावा नाम बदलने, लोड बढ़वाने व मीटर को इस दीवार से उस दीवार पर लगाने के नाम पर वसूली करती हैं। इसके बाद भी आखिर क्यों घाटा हो रहा है? बिजली कम्पनियां अपनी बैलेंस शीट में सही आंकड़े नहीं दिखातीं और इनकी सख्ती से जांच होनी चाहिए। बिजली कम्पनियां जनता से एक-एक यूनिट का दाम वसूलती हैं। दिल्लीवासियों के यहां आ रहे भारी-भरकम बिल इसका उदाहरण हैं। इसके बावजूद इनका मन नहीं भर रहा तो वह किसी न किसी बहाने पैसा वसूल रही हैं। यह बताता है कि इन कम्पनियों का मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना है और वह आम जनता के प्रति संवेदनहीन हैं। सबसे खास बात यह है कि यह कम्पनियां भारी-भरकम बिल वसूलने के बाद भी हमेशा ही घाटे की बात कहकर रोती रहती हैं। शीला दीक्षित की कांग्रेस सरकार तो इन बिजली कम्पनियों के प्रति हमदर्द थी पर क्या नरेन्द्र मोदी सरकार भी उसी तरह का जनता से व्यवहार करेगी? केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने बिजली उत्पादन कम्पनियों से मुलाकात की है। बैठक में रिलायंस, अडाणी, वेलस्पन, जिंदल पॉवर सहित कई बड़ी कम्पनियों के प्रमुख शामिल हुए थे। बिजली मंत्री पीयूष गोयल ने इन कम्पनियों को आ रहीं दिक्कतों के बारे में तो चर्चा की पर बिजली दरों के बारे में इन कम्पनियों के गोरख धंधे पर कोई बात नहीं की। क्या यह सरकार भी कांग्रेस सरकार की तरह बिजली कम्पनियों के प्रति हमदर्दी रखती है। राजधानी में बिजली को लेकर, बिजली के बिलों को लेकर हा-हाकार मची हुई है और सरकार को कोई परवाह नहीं है। अगर मोदी सरकार ऐसे ही चलेगी और दिल्लीवासियों के दुख को नजरअंदाज करती रहेगी तो जनता का इस सरकार से भी तेजी से मोहभंग हो जाएगा।
-अनिल नरेन्द्र


आखिर हिन्दी का विरोध क्यों?

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी दो आधिकारिक ज्ञापनों में यह निर्देश दिए गए हैं कि फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, गूगल और यू-ट्यूब जैसी सोशल वेबसाइटों पर बने खातों में अनिवार्य तौर पर हिन्दी या हिन्दी और अंग्रेजी दोनों का इस्तेमाल होना चाहिए। ऐसी स्थिति में हिन्दी पहले या ऊपर लिखी होनी चाहिए। फिलहाल इन वेबसाइटों पर सिर्प अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है। हिन्दी को प्रोत्साहन देने के लिए उठाया गया कोई कदम इस राजभाषा को गैर-हिन्दी भाषी राज्यों पर थोपने के रूप में कैसे देखा जा सकता है? तमिलनाडु की सीएम जयललिता ने पीएम को लिखे पत्र में कहाöयह कानून 1963 की भूल भावना  के विरुद्ध है, तमिलनाडु के लोगों में बेचैनी है, भाषाई विरासत को लेकर गौरवान्वित व संवेदनशील हैं तमिलनाडु के लोग। पीएमओ ने जवाब में कहा कि यह कोई नीति नहीं है और न ही किसी गैर-हिन्दी भाषी राज्य पर हिन्दी थोपने की कोशिश है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि भारत एक ऐसा देश है जहां अनेक धर्म और भाषाएं हैं। ऐसे में एक भाषा को किसी पर थोपना संभव नहीं है। यह दुर्भाग्य की बात है कि कुछ राजनेता पूरे मामले को गलत दिशा देने में लगे हैं और एक अनावश्यक विवाद खड़ा करने की अतिरिक्त कोशिश भी कर रहे हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार की ओर से हिन्दी को बढ़ावा देने के फैसले की खबर सार्वजनिक होते ही उसके विरोध में सबसे पहले स्वर तमिलनाडु से उठे। राजनीतिक तौर पर पस्त हो चुके द्रमुक के मुखिया करुणानिधि ने केंद्र सरकार के फैसले को एक अवसर के रूप में देखा। उन्होंने केंद्र सरकार के फैसले की व्याख्या इस  रूप में कर डाली कि वह गैर-हिन्दी भाषी लोगों में भेदभाव पैदा करने के साथ ही उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश कर रही है। यह एक शरारतपूर्ण व्याख्या है और इसका उद्देश्य लोगों की भावनाएं भड़काना है। चूंकि तमिलनाडु में हिन्दी विरोध को भुनाना आसान है इसलिए वहां के अन्य राजनीतिक दलों ने भी द्रमुक के रास्ते पर चलने में देरी नहीं की। सत्ता के लिए वोट बैंक और प्रतिस्पर्धा की राजनीति के घालमेल का आदर्श उदाहरण खोजना हो तो इसे इन तमिल पार्टियों के हिन्दी विरोधी कोहराम में यकीन से ढूंढा जा सकता है। बड़े हैरत की बात है कि तमिल पार्टियों को हिन्दी के रूप में तमिल अस्मिता का खतरा नजर आता है लेकिन वह मरहम अंग्रेजी से लगाना चाहते हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब अपनी पहली विदेश यात्रा पर भूटान गए थे तब उन्होंने भूटानी संसद को हिन्दी में संबोधित किया था और भूटानी सांसद इतने आत्मनिर्भर हो गए थे कि उन्होंने अपनी परम्परा तोड़ते हुए तालियों की गड़गड़ाहट के साथ इसका स्वागत किया था। दुनिया के तमाम देश भी अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और दुभाषाओं का अनुवाद आवश्यक भाषा में करते हैं। नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी को महत्व देकर एक स्वच्छ और शानदार परम्परा की शुरुआत की है जिसका देश ने छह दशकों से इंतजार किया है। देश तो बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहा है जब पहले हिन्दी को वह अधिकार मिले जो उसे बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। पार्टियां हिन्दी के बहाने अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश के लिए भले ही कुछ कहें पर सत्य तो यह है कि इंग्लिश की तुलना में हिन्दी ही सम्पर्प की कहीं अधिक प्रभावी भाषा है।

Sunday, 22 June 2014

बेशक निहाल चन्द निर्दोष हों पर नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना चाहिए

केंद्रीय रसायन राज्यमंत्री निहाल चन्द मेघवाल को लेकर नरेन्द्र मोदी सरकार आलोचनाओं के घेरे में आ गई है। मेघवाल पर एक महिला ने बलात्कार का आरोप लगाया है। पीड़ित महिला ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मामले की सुध लेने की गुजारिश की है। महिला ने बुधवार को कहा कि वह दो मिनट के लिए ही सही पर प्रधानमंत्री से मिलना चाहती हैं। ताकि आपबीती सुना सकें। पीड़ित ने फिर आरोप लगाया है कि उसे पैसे और नौकरी का लालच दिया जा रहा है। उस पर गांव के लोगों और पुलिस द्वारा दबाव बनाया जा रहा है। धमकी भी दी जा रही है। महिला ने सिरसा एमपी और जयपुर एसपी से सुरक्षा देने की मांग की है। जवाब में राजस्थान के संसदीय कार्यमंत्री राजेन्द्र राठौड़ ने कहाöपीड़ित महिला बताए कि उसे कब, कहां, किसने, किस तारीख को धमकी दी है। सिर्प कहने से काम नहीं चलेगा। फिलहाल उसे सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं है। मामला कुछ यूं हैöमहिला का आरोप है कि उसके पति ने उसे नशे की गोलियां खिलाकर उसका शोषण किया। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए उसे कई लोगों के पास भेजा। शादी के बाद से ही यह सब चल रहा था। इनमें निहाल चन्द मेघवाल समेत कई लोग शामिल थे। महिला ने 2011 में अपने पति और निहाल चन्द समेत 18 लोगों के खिलाफ केस दर्ज कराया। पुलिस ने 2012 में इस मामले में क्लोजर रिपोर्ट लगा दी। महिला ने इसे फिर से चुनौती दी है। इस पर कोर्ट ने निहाल चन्द समेत सभी को नोटिस जारी किया है। सबको 20 अगस्त तक जवाब देना है। दुष्कर्म के आरोप में घिरे निहाल चन्द मेघवाल इस्तीफा नहीं देने पर अड़ गए हैं। पद छोड़ने के बाबत पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने बुधवार को कहाöमैं क्यों दूं इस्तीफा? झुंझलाहट में एक चैनल के पत्रकार से बदसलूकी भी की, तुमने बनाया है मुझे मंत्री? फिर बाकी सवालों पर नो-कमेंट्स नो-कमेंट्स कहते हुए चल दिए। इस बीच मेघवाल को लेकर हमले तेज हो गए हैं। भाजपा मुख्यालय पर धरना देने पहुंचीं महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शोभा ओझा ने कहा कि हमारी मांग साफ है। कोर्ट इस मामले में निहाल चन्द को समन भेज चुका है, ऐसे में उन्हें इस्तीफा देना चाहिए। ओझा ने प्रधानमंत्री को घेरते हुए कहा कि मोदी कहते हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, फिर मोदी ने अभी तक निहाल चन्द का इस्तीफा क्यों नहीं मांगा है। उधर बीजू जनता दल नेता जय पांडा ने इस मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट में ट्रांसफर करने की मांग की है। शुक्रवार को निहाल चन्द मेघवाल गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिले। समझा जाता है कि उन्हेंने राजनाथ को मामले के बारे में जानकारी दी। सूत्रों के मुताबिक समझा जाता है कि गृहमंत्री ने मेघवाल को पार्टी के समर्थन का आश्वासन दिया है, क्योंकि अब तक आरोप साबित नहीं हो पाए हैं। राजनाथ ने मेघवाल को सलाह दी है कि वे किसी विवाद से  बचने के लिए मीडिया से दूर रहें। मेघवाल राजस्थान से एकमात्र प्रतिनिधि हैं। भाजपा ने इस मामले के कानूनी पहलुओं को देखने के  बाद आक्रामक रवैया अपनाने का संदेश अपने नेताओं को दे दिया है। भाजपा नेताओं का कहना है कि निहाल चन्द पर लगे आरोपों को सिरे से खारिज करना चाहिए। निहाल चन्द कहीं गलत नहीं हैं। उनका कहना है कि निहाल चन्द समेत 19 लोगों के खिलाफ जो मामला दर्ज हुआ था उसकी जांच कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार के दौरान ही हुई थी। इस मामले की उसी दौरान क्लोजर रिपोर्ट अदालत में पेश हो गई थी और अदालत ने भी उसे मंजूर कर लिया था। इसके बावजूद अब फिर से कांग्रेस इस मामले को तूल दे रही है। बेशक निहाल चन्द मेघवाल निर्दोष हों पर नैतिकता का तकाजा तो यही है इसमें कोई हर्ज नहीं कि वह अदालत से पूरी तरह बरी होने तक अपने पद से हट जाएं। उन्हें समझना चाहिए कि विरोधियों को  इससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला करने का मौका मिल रहा है।
-अनिल नरेन्द्र


इराक में फंसे भारतीयों को सुरक्षित निकालना सरकार के लिए चुनौती

नरेन्द्र मोदी सरकार को बने हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ कि इराक में फंसे भारतीय सरकार के लिए एक चुनौती बन गए हैं। इराक में 40 भारतीयों के अपहरण की घटना से पूरे देश में चिन्ता की लहर फैल गई है। अपहृत भारतीयों में ज्यादातर पंजाब के हैं। इन्हें इराक के मोसुल में संभवत उस वक्त अगवा किया गया जब इन्हें बाहर निकालने की कोशिश चल रही थी। दूसरी तरफ तिकरित के एक अस्पताल में 46 भारतीय नर्सें फंसी हुई हैं जिनमें ज्यादातर केरल की हैं। इराक में सुन्नी विद्रोही संगठन आईएसआईएस का अभियान शुरू हुए कई दिन हो गए हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने कहा है कि हमें इराक के विदेश मंत्रालय की ओर से बताया गया है कि कुछ भारतीयों को अन्य देशों के नागरिकों के साथ जहां बंधक बनाकर रखा गया है उस जगह की पहचान कर ली गई है। बंधक भारतीयों को सुरक्षित छुड़ाने की सरकार की दृढ़ इच्छा जताते हुए सुषमा स्वराज (विदेश मंत्री) ने कहा है कि वह सुरक्षित हैं और जो लोग गड़बड़ी वाले क्षेत्रों में कठिन परिस्थितियों में फंसे हैं उन्हें सुरक्षित वापस लाने में हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। अकबरुद्दीन ने कहा कि इराकी सरकार ने भी भारतीयों के अपहरण की पुष्टि की है। इन 40 अपहृत भारतीयों के साथ ही चरमपंथियों के कब्जे में आए इराक के अन्य शहर तिकरित में फंसी भारत की 46 नर्सों को लेकर भी चिन्ता बनी हुई है। इराक में 10 हजार से अधिक भारतीय विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं जिनके सिर पर एक पराए देश में छिड़े गृहयुद्ध की तलवार लटक रही है। इराक में भारतीयों सहित कई देशों के नागरिक इस छिड़े गृहयुद्ध में फंस गए हैं। लेकिन असल खतरा तो इससे भी अधिक भयावह है जिसका एहसास धीरे-धीरे दुनियाभर में गहराता जा रहा है। इराक को संकट में डालने वाले इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया के सुन्नी आतंकियों की निगाह केवल मध्य-पूर्व देशों पर ही नहीं है बल्कि वह पूरी दुनिया में कट्टर इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना करना चाहते हैं और भारत पर अधिपत्य भी उनकी दूरगामी साजिशों में शामिल है। पहले यह गिरोह अलकायदा से जुड़ा था लेकिन इसकी महत्वाकांक्षाओं ने इसे अलग गुट बनाने पर मजबूर कर दिया। अभी हाल में इसने अपने भविष्य का खाका खींचने वाला एक नक्शा प्रसारित किया है जिसका नाम इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासन रखा गया है और इसमें गुजरात सहित भारत के तमाम उत्तरी-पश्चिमी इलाके शामिल हैं। ऐसी खबरें भी हैं कि भारत के अनेक नौजवान इस गिरोह के साथ तथाकथित जिहाद में शामिल हैं। इराक में अगवा 40 भारतीयों को छुड़ाने को लेकर चल रहे संकट के बीच भारत के कई शिया संगठनों का भर्ती अभियान भी चलने की खबर आई है। इस्लामिक सुन्नी आतंकी गुट आईएसआईएस के साथ चल रहे संघर्ष के बीच भारत के कई इस्लामी संगठन मजहब की मदद के नाम पर भारत से युवाओं को इराक भिजवाने की तैयारी में हैं। आईएसआईएस द्वारा भारतीय नागरिकों को बंदी बनाना सरासर गलत है। यह इसलिए भी गलत है कि भारत न सिर्प इराक का पुराना दोस्त है बल्कि वहां दखल देने का उसका दूर-दूर तक कोई इरादा नहीं है और न ही इराक में काम कर रहे भारतीय इस युद्ध में वहां के किसी धड़े के लिए चुनौती या खतरा हैं। हमारी सरकार के एजेंडे में तो फिलहाल इन बंदी लोगों समेत उन तमाम भारतीयों की सकुशल वापसी सबसे ऊपर होनी चाहिए जो कामकाज के सिलसिले में वहां लम्बे समय से रह रहे हैं। तिकरित में एक अस्पताल में 40 से ज्यादा भारतीय नर्सों के फंसे होने की कहानी भी कम दर्दनाक नहीं है जो कर्ज लेकर वहां गई हैं और अब बगैर वेतन के वहां से लौटने को बेताब हैं। पिछले तीन-चार दिनों में मोदी सरकार ने फंसे भारतीय नागरिकों को सुरक्षित लाने के लिए कई कदम उठाए हैं पर वहां की मौजूद जटिल स्थिति स्थिति को और बिगाड़ रही है। इराक की अल मलिकी सरकार का हुक्म बगदाद से बाहर नहीं चलता। जाहिर है इराक का यह घटनाक्रम केंद्र की नई नवेली मोदी सरकार के लिए एक विकट चुनौती की तरह है।

Saturday, 21 June 2014

कुछ एनजीओ के गोरख धंधे

देश के विकास में रोड़ा बनने वाले गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) पर गाज गिर सकती है। गृह मंत्रालय ऐसे एनजीओ को विदेशी सहायता लेने के लिए दी गई इजाजत की समीक्षा करने में जुट गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई आईबी यानि खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट में विदेशी अनुदान प्राप्त करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरनाक करार देते हुए यहां तक कहा गया है कि जीडीपी में दो से तीन फीसद की कमी के लिए यह एनजीओ जिम्मेदार हैं। खुफिया ब्यूरो की इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने से हलचल मचना स्वाभाविक है। नई सरकार का गठन होने के बाद ही जिस तरह यह रिपोर्ट सामने आई उससे यह स्पष्ट है कि उसे पहले ही तैयार कर लिया गया होगा। आश्चर्य नहीं कि उसे जानबूझ कर दबाए रखा गया हो। एनजीओ को विदेशी सहायता लेने के लिए विदेशी सहायता नियामक कानून (एफसीआरए) के तहत गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी होती है। इसके लिए एनजीओ को बताना पड़ता है कि विदेशी मदद का उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए किया जाएगा। आईबी की रिपोर्ट से साफ है कि कुछ एनजीओ विदेशी सहायता का उपयोग सामाजिक कामों के लिए न कर देश के विकास में बाधा डालने के लिए कर रहे हैं। आईबी रिपोर्ट में जिन एनजीओ पर आरोप लगाए गए हैं उन्हें मिली एफसीआरए क्लीयरेंस की समीक्षा हो सकती है। इन एनजीओ को अपनी सफाई देने का मौका भी दिया जाएगा। आईबी की रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को तीन जून 2014 को सौंपी गई। हकीकत यह है कि अपने देश में गैर-सरकारी संगठन बनाना एक कारोबार  बन गया है। अधिकांश संगठन ऐसे हैं जो बनाए किसी और काम के लिए जाते हैं लेकिन वह करते कुछ और हैं। शायद उनकी ऐसी ही गतिविधियों को देखते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले यह कहा था कि 90 फीसद एनजीओ फर्जी  हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है। खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट एक और गंभीर बात कह रही है। उसके मुताबिक कई गैर-सरकारी संगठन विदेश से पैसा लेकर विकास से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। ग्रीन पीस इंटरनेशनल की भारतीय शाखा ग्रीन पीस इंडिया को कोयला और परमाणु ऊर्जा आधारित परियोजनाओं के विरोध के लिए ही जाना जाता है। इसी तरह कुछ और गैर-सरकारी संगठन ऐसे हैं जो हर बड़ी परियोजना का विरोध करते हैं। इन संगठनों की मानें तो न तो बड़े बांध और बिजली घर बनाने की जरूरत है और न ही अन्य बड़ी परियोजनाओं पर काम करने की। पर्यावरण की रक्षा की आड़ में गैर-सरकारी संगठन जिस तरह हर बड़ी परियोजना के विरोध में खड़े हो जाते हैं वह कोई शुभ संकेत नहीं है। यह सही है कि पर्यावरण की रक्षा जरूरी है लेकिन उसके नाम पर औद्योगिकीकरण को ठप कर देने का भी कोई मतलब नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सात ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें लक्षित कर यह एनजीओ आर्थिक विकास दर को नकारात्मक दिशा में ले जाएंगे। करीब 24 पेज की इस रिपोर्ट के मुताबिक जातिगत भेदभाव, मानवाधिकार उल्लंघन और बड़े बांधों के खिलाफ लामबंध यह एनजीओ सारा जोर विकास दर धीमी करने में लगे हैं। इनमें खनन उद्योग, जीन आधारित फसलों, खाद्य, जलवायु परिवर्तन और नाभिकीय मुद्दों को हथियार बनाया गया है। राष्ट्रहित से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करने वाले इन एनजीओ को अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड के अलावा नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्प जैसे देशों या उससे जुड़ी संस्थाओं से अनुदान मिलता है। इस धन का उपयोग तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली घर, कोयला व बाक्साइट  खदान व नदियों को जोड़ने की योजनाओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने में किया जा रहा है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एक एनजीओ के विदेशी कार्यकर्ता के लैपटॉप में भारत का नक्शा मिला है जिसमें मौजूदा व प्रस्तावित 16 परमाणु संयंत्रों और पांच यूरेनियम खदानों को चिन्हित किया गया है। गृह मंत्रालय के विदेशी प्रकोष्ठ ने ग्रीन पीस को विदेशी चन्दे और उसे खर्च करने के उद्देश्यों से जुड़ी प्रश्नावली भेजी है। इस मामले में सच्चाई जितनी जल्दी सामने आए उतना ही बेहतर है। क्योंकि हमारे देश को एक बड़ी संख्या में गैर-सरकारी संगठनों के विकास विरोधी रवैये की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
-अनिल नरेन्द्र


अच्छे दिनों के सपने तोड़ने लगी महंगाई

अच्छे दिन लाने का वादा कर सत्ता में आई मोदी सरकार के लिए महंगाई बड़ी मुसीबत बनती दिख रही है। थोक महंगाई की दर मई में छह फीसद से कुछ ऊपर पहुंच गई जो पिछले पांच महीनों का उच्चतम स्तर है। अप्रैल में यह 5.2 फीसद थी और पिछले साल मई में करीब साढ़े चार फीसद। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की वित्तीय स्थिति को पटरी पर लाने के लिए कड़े फैसले लेने के संकेत दिए हैं, मगर महंगाई के ताजा आंकड़े बताते हैं कि उनकी पहली आर्थिक चुनौती बेकाबू होती कीमतों को नियंत्रण करने के रूप में सामने खड़ी है। जहां थोक महंगाई दर पांच माह में अपने उच्चतम स्तर पर है वहीं खाद्य पदार्थों की महंगाई दर दो अंकों के करीब पहुंच गई है। मोदी सरकार को सत्ता में आए एक महीना भी नहीं हुआ है लिहाजा इसके लिए उसे जिम्मेदार तो नहीं ठहराया जा सकता मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जो सीधा आम आदमी को प्रभावित करता है और यह किसी भी सरकार को अलोकप्रिय बना सकता है। मोदी सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि यूपीए सरकार के जाने की एक बड़ी वजह यह महंगाई के मोर्चे पर उसकी चौतरफा नाकामी भी थी। गौरतलब है कि कुछ दिन पहले जारी आंकड़ों के मुताबिक मई में खुदरा महंगाई तीन महीने के निम्न स्तर पर पहुंच गई थी। इससे उम्मीद जगी थी कि महंगाई का ताप और कम होगा, फलत जल्द ही ब्याज दरों में कटौती का रास्ता साफ होगा। लेकिन खुदरा महंगाई में कमी से जगी उम्मीद को थोक महंगाई की वृद्धि ने धराशायी कर दिया है। अधिक चिन्ता की बात यह है कि हाल के दिनों में खासकर खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में यकायक वृद्धि होती दिख रही है। खासकर आलू, प्याज और हरी सब्जियों के दाम लगातार बढ़ते जा रहे हैं। मुसीबत मोदी सरकार के लिए यह भी है कि इराक में चल रहे गृहयुद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें बीते नौ महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं। कच्चे तेल की कीमतों में आए उछाल को रुपए की कीमत में आई गिरावट की वजह भी मानी जा रही है। साफ है कि यदि इराक संकट जल्द ही नहीं सुलझा तो आयातित पेट्रो पदार्थों की ऊंची कीमतें महंगाई की समस्या को और बढ़ाएगी। इराक भारत का दूसरा बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है लिहाजा यदि वहां संकट लम्बा खिंचता है तो उसका असर भी अंतत हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। इसके अलावा प्याज को लेकर नासिक के लासलपुर मंडी से आ रही खबरें भी आम आदमी की मुश्किलें बढ़ाती दिख रही हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि खाद्य प्रबंधन के जरिये महंगाई का नियंत्रण किया जा सकता है। वास्तव में सरकार महंगाई के लिए इराक संकट या कमजोर मानसून की आड़ में अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती, खासकर खाद्यान्न के मामले में तो यह इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि हमारा असल संकट इसके रखरखाव और वितरण का है। बेशक जब मोदी सरकार अपना पहला बजट पेश करेगी तो उसका आर्थिक रोड मैप सामने आएगा। लेकिन इस वक्त मोदी सरकार की पहली प्राथमिकता महंगाई को नियंत्रण करने की होनी चाहिए। महंगाई की मारी जनता को तत्काल राहत चाहिए। ऐसे में वायदा व्यापार रोकना और जमाखोरी-कालाबाजारी को काबू करना जरूरी है।

Friday, 20 June 2014

दुनियाभर में आतंक के नए युग की आहट

कुख्यात आतंकी संगठन अलकायदा का वह वीडियो चिंतित करने वाला है जिसमें कश्मीर की आजादी के लिए यहां के मुस्लिमों से संघर्ष छेड़ने की अपील की गई है और कहा गया है कि अफगानिस्तान से इस काम के लिए जेहादी कश्मीर आ रहे हैं। हालांकि इस वीडियो में जो संदेश निहित है उसका अंदेशा पहले से सुरक्षा जानकार जाहिर करते रहे हैं। बार-बार कहा जाता है कि अमेरिकी सेनाओं की अफगानिस्तान से वापसी के बाद अलकायदा और तालिबान का सारा ध्यान भारत की तरफ होगा। रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने आतंकवादी संगठन अलकायदा के इस वीडियो से भारतीय सुरक्षा के लिए दरपेश खतरे से आंख न चुराकर वाजिब सावधानी दिखाई है। इस बीच तालिबान के धन स्रोतों के बारे में संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट चिंताए बढ़ाने वाली है। अलकायदा की अफगानिस्तान इकाई ने सोशल मीडिया पर जारी वीडियो में भारत के खिलाफ पुरजोर जेहाद की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया है कि नशीली दवाओं की तस्करी, लूट-खसोट और प्राकृतिक संसाधनों के अवैध दोहन से तालिबान की आमदनी में इजाफा हुआ है। जहां तक आतंक की बात है तो बात सिर्प भारत की ही नहीं है, दुनिया के तमाम देशों में इस वक्त आतंकवाद का नया उद्यान देखने को मिल रहा है। इराक में अलकायदा इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इराक एंड लेवेंट के नाम पर पूरे देश पर कब्जा करने की फिराक में है। नाइजीरिया में बोको हरम का आतंक बढ़ता जा रहा है। केन्या के पेकेटोनी शहर में अत्याधुनिक हथियारों से लैस दर्जनों सोमाली आतंकियों ने रविवार रात हमला कर 48 लोगों को मौत की नींद सुला दिया। हमले के समय स्थानीय लोग फुटबाल विश्व कप देख रहे थे। आतंकियों ने दो होटल और एक पुलिस स्टेशन को भी आग के हवाले कर दिया और सड़कों पर अंधाधुंध फायरिंग की। इस हमले के लिए अलकायदा से संबंधित सोमालिया के आतंकी संगठन अल-शबाब को जिम्मेदार ठहराया गया है। इराक में आईएसआईएल आतंकियों ने 1700 लोगों की नृशंस हत्या करने का दावा किया है। केन्या से लेकर इराक तक दो महाद्वीपों में हो रहे अत्याचार से बर्बर आतंक की काली छाया दुनिया में पांव पसारती नजर आ रही है। पिछले करीब एक महीने में वैश्विक मीडिया में इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, कीनिया, फलस्तीन और सीरिया को लेकर जो भी खबरें या तस्वीरें सामने आई हैं उनमें आतंकियों की बढ़ती ताकत और बर्बरता दिखाई देती है। इससे दुनिया में आतंकवाद का एक नया घिनौना रूप उभरकर सामने आया है। यह हालात देखकर यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि आतंकी सोच और संगठन दुनिया की सिरदर्दी बढ़ाते लग रहे हैं। इराक में जिस तरीके से आईएसआईएल बढ़ रहा है उसने तो ईरान और अमेरिका को करीब लाकर खड़ा कर दिया है। इराक की शिया नूरी अल मालिकी सरकार को दोनों अमेरिका और ईरान बचाना चाहते हैं। अगर दोनों देश मिलकर काम करते हैं तो यह  बड़ी बात होगी। खबरों के मुताबिक खुफिया ब्यूरो ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह को जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है उससे निष्कर्ष यही निकलता है कि अमेरिकी और नॉटो सैनिकों के जाने के बाद भारत के सामने यह जेहादी सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित होंगे। भारत को खतरा दो मोर्चों पर है पहला तो कश्मीर में जहां जेहादी नए सिरे से अशांति फैलाने की कोशिश करेंगे। साथ ही यह तत्व भारत के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गुटों को हथियार और धन मुहैया कराने की कोशिश करेंगे ताकि देश की आर्थिक समृद्धि एवं सामाजिक सामंजस्य पर हमला किया जा सके। आतंकवादियों की बढ़ती शक्ति भारत के लिए तो चुनौती है ही दुनिया के अन्य देशों में भी इनकी बढ़ती ताकत चिंताजनक होती जा रही है।

-अनिल नरेन्द्र

यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाने पर मचा घमासान

केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद राज भवनों में बदलाव होना स्वाभाविक ही है। केंद्र ने यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए कुछ राज्यपालों को बदलने का मन बना लिया है। जिन राज्यपालों के कार्यकाल इस साल या अगले साल जनवरी में समाप्त हो रहे हैं उनके लिए इंतजार किया जा सकता है। मगर इतना तय है कि बड़े राज्यों या उन राज्यों में जहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां के राज्यपालों को बदला जाएगा। जिन राज्यपालों को मोदी सरकार बदलना चाहती है उनमें प्रमुख हैंöशीला दीक्षित (केरल), डीवाई पाटिल (बिहार), वीवी वांचू (गोवा), सैयद अहमद (झारखंड), रामनरेश यादव (मध्यप्रदेश), एससी जमीर (उड़ीसा), के. रोसैया (तमिलनाडु)), अजीज कुरैशी (उत्तराखंड) और देवेन्द्र पुंवर (त्रिपुरा)। गौरतलब है कि गृह सचिव के जरिये सात राज्यपालों को इस्तीफा देने का संदेश पहुंचाया गया है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी और छत्तीसगढ़ के शेखर दत्त ने केंद्र सरकार की मंशा भांपकर इस्तीफा दे दिया। संभव है और गवर्नर भी ऐसा करें। राज्यपालों को बदलने का मामला संवेदनशील माना जा रहा है। केंद्र सरकार उन्हें अपने प्रतिनिधि के तौर पर देखती है इसलिए हर जगह वह मनोनुकूल व्यक्ति को बिठाना जरूरी समझती है। दूसरी बात यह है कि राज्यपाल का पद राजनेताओं को एडजस्ट करने का जरिया भी बन गया है। केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों से इस्तीफे मांगे जाने पर कांग्रेस मुश्किल में फंस गई है। पार्टी चाहकर भी मोदी सरकार के इस फैसले का विरोध नहीं कर पा रही है क्योंकि 10 साल पहले 2004 यूपीए-1 सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने भी एनडीए के शासनकाल में नियुक्त हुए राज्यपालों को पद से हटाया था। पार्टी संवैधानिक पद का हवाला देते हुए राज्यपालों के त्यागपत्र पर राजनीति नहीं करने की वकालत कर रही है। दिलचस्प बात यह है कि राज्यपालों के हटाए जाने पर नाराजगी जताते हुए कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के जिस आदेश का हवाला दे रही है वह आदेश भी यूपीए सरकार द्वारा राज्यपालों को हटाने के मामले में आया था। कांग्रेस महासचिव अजय माकन ने कहा कि पार्टी इस मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं करना चाहती। हम चाहते हैं कि सरकार संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करे और 2010 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान हो। 2004 में सत्ता में आते ही यूपीए सरकार ने भाजपा शासन में बनाए गए चार राज्यपालों को एकदम हटा दिया था। तत्कालीन गृहमंत्री और वर्तमान में पंजाब के राज्यपाल यह कहने से भी नहीं चूके थे कि उक्त राज्यपाल संघ की विचारधारा वाले हैं। उन राज्यपालों में उत्तर प्रदेश के विष्णुकांत शास्त्राr, गोवा के केदारनाथ साहनी, गुजरात के कैलाशपति मिश्रा और हरियाणा के बाबू परमानंद शामिल थे। इस कदम का विरोध हुआ और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2010 को दिए अपने फैसले में कहा कि राज्यपाल को हटाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त कारण होना चाहिए। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि राज्यपाल को पहले साबित करना होगा कि उसे दुर्भावनापूर्ण तरीके से हटाया गया है। मगर यह साबित करना मुश्किल है। विडम्बना देखिए कि 2004 में हटाए गए राज्यपालों के केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती देने वाले भाजपा के सांसद रहे वीपी सिंघल ने भी सुप्रीम कोर्ट में इसको चुनौती दी थी। जिस पर 2010 में फैसला आया। कांग्रेस से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि जनता द्वारा सिरे से नकार दी गईं शीला दीक्षित को चुनाव हारने के बाद 10 दिन के अंदर केरल का राज्यपाल नियुक्त करके उसने क्या संकेत देना चाहा था? संविधान के अनुच्छेद 156.1 में राज्यपाल को हटाने की कोई प्रक्रिया नहीं दी गई है। अगर केंद्र सरकार कैबिनेट नोट लाकर यह कह दे कि वह राज्यपाल से विश्वास खो चुकी है तो राष्ट्रपति के पास इसे मंजूरी देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। यूपी के राज्यपाल बीएल जोशी ने मंगलवार को इस्तीफा दे दिया। मगर कुछ राज्यपाल अब भी अड़े हुए हैं। कुछ कह रहे हैं कि हमें लिखित में हटाने को कहा जाए तब सोचेंगे। ऐसे राज्यपालों का तबादला करने का भी केंद्र सरकार के पास हक है। बाद में उन्हें कारणों के आधार पर हटाया जा सकता है। बहरहाल यह तय है कि लगभग डेढ़ दर्जन नए राज्यपाल नियुक्त होंगे।

Thursday, 19 June 2014

बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना डॉ. हर्षवर्धन की पाथमिकता है

दस वर्ष बाद भी जनता को स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाएं देने में विफल रही यूपीए सरकार की विफलता से निपटने के लिए मोदी सरकार को इस क्षेत्र में एक ठोस नीति पेश करनी होगी। स्वास्थ्य मंत्रालय को ऐसी योजनाएं लानी होंगी जिससे आम जनता को सस्ता और टिकाऊ उपचार मिल सके। आम आदमी तक स्वास्थ्य नीतियों का सीधा लाभ पहुंचाना होगा। नई सरकार से समाज के हर वर्ग को काफी उम्मीदें हैं। मोदी सरकार के कमान थामने के बाद अपने महकमे को लेकर खासे सकिय मंत्रियों में स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन का नाम शामिल है। वे देश की खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाओं में अच्छे दिन लाने का दावा कर रहे हैं। डॉ. हर्षवर्धन का पयास है कि रोगियों को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराई जाएं। दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष एवं दिल्ली से एक मात्र मंत्री बने डॉ. हर्षवर्धन पदभार संभालने के बाद से देश की खस्ता हाल स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का एजेंडा बनाने में जुट गए हैं। राजधानी दिल्ली में चिकित्सीय सुविधाओं के मद्देनजर उदाहरण के तौर पर यमुनापार के घनी आबादी वाले क्षेत्र में दिल्ली के अन्य इलाकों की अपेक्षा कम फासले पर आधा दर्जन अस्पताल इसे मेडिकल हब का रूप देते हैं किंतु यहां भी पशासनिक उदासीनता ही मरीजों पर भारी पड़ने लगी है। लंबी कतार, जांच में लंबी तिथि मिलना, दोयम दर्जे की सफाई व्यवस्था के अलावा दवा पूरी न मिलने के अलावा पशासनिक अवहेलना से मरीज हलकान हैं। नई सरकार से समाज के हर वर्ग को काफी उम्मीदें हैं। ऐसे में क्या सरकार के पास जनता को महंगी दवाओं से निजात दिलवाने का कोई विकल्प हैजब यह पश्न डॉ. हर्षवर्धन से पूछा गया तो उनका जवाब थाः स्वास्थ्य क्षेत्र में आम जनता को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने के लिए मंत्रालय एक साथ कई एजेंडों पर काम कर रहा है। इनमें से एक है सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली दवाएं सुलभ कराना। इस कम में जेनरिक दवाओं का उपयोग बढ़ाने और आसानी से उपलब्ध कराने के लिए मंत्रालय एक पॉलिसी तैयार कर रहा है। अच्छे सरकारी अस्पतालों की कमी व सरकारी सुपर स्पेशलिटी सेंटर के अभाव में आम आदमी को महंगे पाइवेट अस्पतालों का रुख करना पड़ता है। क्या मोदी सरकार के आने से यह तस्वीर बदलेगी? इसके जवाब में डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि देश में छह एम्स तैयार करने का काम पहले से ही चल रहा है लेकिन इससे जरूरत पूरी नहीं होगी। नई सरकार इसी तर्ज पर दस नए एम्स खोलने का पस्ताव तैयार कर रही है। कैंसर के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है लेकिन इस बीमारी के इलाज के लिए राष्ट्रीय कैंसर संस्थान का निर्माण अब तक नहीं हो सका है। इसलिए देश में पहली बार नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट खोलने की तैयारी है। अलग-अलग राज्यों में 20 कैंसर संस्थान व 50 सुपर स्पेशलिटी केयर सेंटर खोलने की योजना है। गरीब तबके के मरीजों के लिए अच्छे दिन कैसे आएंगे? निजी और सरकारी अस्पतालों में गरीबों को फी बैड की सुविधा मिलनी चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा। सरकार को इसे सख्ती से लागू करना होगा। वहीं गरीबों की मदद के लिए विशेष हेल्थ बीमा योजना शुरू करने पर सभी पक्षों से विचार चल रहा है। डॉ. हर्षवर्धन से उम्मीद की जाती है कि अब जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जनता को किसी का मोहताज नहीं रहना पड़ेगा। कुछ सामान्य बीमारियों के इलाज, आपातकालीन दवाएं और मूलभूत स्वास्थ्य सस्ती सुविधाएं हर व्यक्ति को गारंटी के साथ उपलब्ध हेंगी।

 -अनिल नरेंद्र

पधानमंत्री मोदी ने भूटान यात्रा से एक तीर से कई शिकार किए

पधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली विदेश यात्रा सफल रही। मोदी ने पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान ही क्यों चुना? यह एक सोचा समझा दूरगामी परिणाम का चयन था। भूटान भारत का अकेला ऐसा पड़ोसी है जिसके साथ आपसी रिश्तों में किसी तरह की कोई खटास नहीं है। पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका सभी के साथ छोटी-बड़ी उलझनें हैं, समस्याएं हैं लेकिन भारत और भूटान के बीच मोटे तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं है। फिर चीन की ओर से भूटान को लुभाने की कोशिश तेज होते देख नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए हिमालय की गोद में बसे इस देश को चुना। इस समय पूरे उपमहाद्वीप में भूटान भारत के लिए कई तरह से सबसे महत्वपूर्ण है। खासतौर पर ऐसे समय में जब चीन तकरीबन हर तरफ से भारत को घेरने की कोशिश में जुटा हुआ है। वह श्रीलंका में बंदरगाह बना रहा है तो नेपाल में सड़कें बना रहा है, म्यामांर के तेल कारोबार पर पकड़ बनाने की कोशिश तो वह पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कर रहा है। बांग्लादेश के बाजार में भी इसका अच्छा-खासा दखल है और पाकिस्तान को तो खैर वह अपना सदाबहार दोस्त मानता है। ऐसे में अकेले भूटान ही है जहां चीन की दाल अभी बहुत ज्यादा नहीं गल सकी है। भारतीय विदेश नीति के लिए भूटान में चीन के पवेश को रोकना फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती है और पधानमंत्री ने अपनी सफल यात्रा से इसमें काफी हद तक सफलता पाई है। पधानमंत्री ने पूर्वेत्तर भारत और भूटान के बीच संपर्क के नए पुल बनाने पर भी जोर दिया है। भूटान की संसद को संबोधित करने के बहाने मोदी ने संदेश दिया कि मजबूत भारत ही पड़ोसी सार्क मुल्कों की परेशानियों में मदद कर सकता है। पीएम मोदी की तारीफ के लिए भूटानी संसद ने अपनी परंपरा भी तोड़ दी। सोमवार को जब मोदी ने संसद की संयुक्त बैठक में हिंदी में अपना धारापवाह भाषण समाप्त किया तो भूटानी सांसदों ने तारीफ में जोरदार तालियां बजाईं। भूटान में किसी की पशंसा या स्वागत में तालियां नहीं बजाई जातीं। वहां बुरी आत्माओं को भगाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। जैसे ही मोदी ने अपना भाषण खत्म किया भूटानी पधानमंत्री शोरिंग तोबगे और नेशनल असेंबली और नेशनल काउंसिल के सदस्यों ने तालियों से उनका स्वागत किया। अपने संबोधन में पधानमंत्री मोदी द्वारा सांस्कृतिक विरासत को द्विपक्षीय रिश्तों का आधार बताया जाना निश्चित ही पड़ोसी देशों को आश्वस्त करने वाला है। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में परिवार का सबसे छोटा सदस्य सबसे ज्यादा प्यारा होता है। भूटान हमारा सबसे छोटा पड़ोसी है इसीलिए उसे सर्वाधिक महत्व देते हुए मोदी ने कहा कि अपने दिल की आवाज पर मैंने सबसे पहले भूटान आने का निर्णय किया। पड़ोसियों से ज्यादातर भारत का तनाव रहा है और इसी का फायदा उठाकर चीन चौधरी बनना चाहता है। मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह मे सार्क के सदस्य राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर न केवल तनाव शैथिल्य की पहल की अपितु सामाजिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण इस क्षेत्र के स्वाभाविक नेता  के रूप में खुद को पस्तुत किया। भारत विरोधी शक्तियां उसके पड़ोसियों को यह कहकर भड़काया करती थीं कि भारत की पवृत्ति विस्तारवादी है। मोदी ने सबसे छोटे पड़ोसी देश को भावनात्मक एकता का संदेश देकर इस दुष्पचार को तोड़ा और संदेश दिया कि शांत, समृद्ध, सुदृढ़ भारत अपने पड़ोसियों को भी वैसा ही बनाने में सहायक होगा। दिल्ली लौटने के बाद पधानमंत्री ने इस यात्रा को बेहद सफल करार दिया। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि यह दौरा मेरी यादों में बसा रहेगा। मोदी ने एक बात और अच्छी कही, उन्होंने भूटान को भारत की पूरी मदद का आश्वासन देते हुए कहा कि सत्ता बदलने के बावजूद पहले किए गए समझौतों के पति उसकी पतिबद्धता बरकरार रहेगी। इसके बदले भूटान ने वादा किया कि वह अपनी जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं होने देगा। कुल मिलाकर कहा जाएगा कि पधानमंत्री की यह पहली विदेश यात्रा सफल रही।

Wednesday, 18 June 2014

नेस ने कहा ः तुम मामूली एक्ट्रेस हो प्रीति, गायब करा दूंगा

कभी देशभर में लव बर्ड के रूप में मशहूर फिल्म स्टार प्रीति जिन्टा और नेस वाडिया की लव स्टोरी आखिर हेट स्टोरी में क्यों बदल गई? लव स्टोरी ऐसी बिगड़ी कि प्रीति जिन्टा को नेस के खिलाफ पुलिस के पास जाकर बाकायदा एफआईआर दर्ज करानी पड़ी? सबसे  पहले बता दें कि यह नेस वाडिया कौन हैं। नेस वाडिया कारोबार सहित फैशन जगत के जाने-माने नाम हैं। वह नुसली वाडिया और मौरीन वाडिया के बेटे हैं। वह मोहम्मद अली जिन्ना के ग्रेट ग्रैंड सन हैं। प्रीति जिन्टा ने अपने पुराने दोस्त नेस वाडिया के खिलाफ केस दर्ज कराया है। एफआईआर में प्रीति ने कहा कि नेस ने मुझे भद्दी-भद्दी गालियां दीं। धमकी देते हुए कहा कि तुम एक मामूली एक्ट्रेस हो। मैं बहुत ताकतवर हूं। तुम्हें गायब करा दूंगा। प्रीति की शिकायत पर मुंबई के मरीन ड्राइव थाने में गत शुक्रवार रात  को केस दर्ज किया गया। शनिवार को प्रीति ने सफाई देते हुए कहा कि मेरा किसी को नुकसान पहुंचाने का इरादा नहीं है। बस अपनी सुरक्षा की फिक्र है। मामला 30 मई का है। मुंबई के वानखेड़े में प्रीति (39) और वाडिया (44) की टीम किंग्स इलेवन पंजाब का चेन्नई सुपर किंग्स से मैच था। शिकायत के मुताबिक वाडिया से विवाद के समय आईपीएल के सीईओ सुन्दर रमन, किंग्स इलेवन के कुछ खिलाड़ी और वानखेड़े स्टेडियम के कई स्टाफ मौजूद थे। प्रीति और उनके पूर्व प्रेमी का रिश्ता तो कुछ समय पहले ही खत्म हो चुका है। लेकिन अभी तक दोनों आईपीएल टीम किंग्स इलेवन पंजाब के सह-मालिक के तौर पर बरकरार हैं। प्रीति का यह भी कहना है कि नेस ने कई मौकों पर उन्हें प्रताड़ित किया है। यही नहीं, यह भी अफसोसनाक है कि उस समय वहां मौजूद लोगों ने उनकी कोई मदद नहीं की। झगड़े की आखिरी बात गत 30 मई को उस समय सामने आई थी जब नेस और उनका परिवार थोड़ी देर से स्टेडियम पहुंचा था। टीमों के ऑनर, कोöऑनर के लिए सीटें रिजर्व होती हैं पर उस दिन शायद नेस के परिवार को कुछ देर तक सीटों के लिए इंतजार करना पड़ा। नेस इस बात से भी नाराज हो गए बताए जाते हैं कि प्रीति के गेस्ट आगे की लाइन में सभी रिजर्व कुर्सियों पर  बैठ गए थे और उन्हें इंतजार करना पड़ा था। अब नेस की ओर से भी यह बयान आया है कि प्रीति द्वारा लगाए गए आरोप गलत और बेबुनियाद हैं। वह इसके खिलाफ मुकदमा और शिकायत करेंगे। नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर वाडिया के करीबी ने बताया कि नेस ने गरवारे पैवेलियन में 14 सीटें बुक कराई थीं। वह उस समय नाराज हो गए जब उन्होंने देखा कि उनकी मां मौरीन वाडिया खड़ी थीं तथा सभी सीटों पर प्रीति तथा उनके अतिथि बैठे हुए थे। इसके बाद वाडिया की अपनी मां के प्रति शिष्टाचार नहीं दिखाने को लेकर प्रीति से बहस हुई जिसे अब छेड़छाड़ के मामले का रूप दिया जा रहा है। असल में मामला क्या है यह तो पुलिस जांच के बाद ही पता चलेगा। मुंबई पुलिस ने इस केस में दो लोगों के बयान दर्ज किए हैं। प्रीति देश से बाहर हैं इसलिए उनके बयान नहीं हो सके। जिन दो लोगों के बयान दर्ज किए गए हैं वह 30 मई को कथित घटना के समय गरवारे पैवेलियन में मौजूद थे। पुलिस सीसीटीवी फुटेज भी देखना चाहती है। पुलिस अधिकारी का कहना है कि कुछ पर्याप्त सबूत एकत्र करने के बाद ही नेस वाडिया को समन जारी किया जाएगा। पुलिस ने 354 (छेड़छाड़), 504 (बेइज्जत करना), 566 (धमकाना), 509 (अश्लील हरकत करना) के तहत केस दर्ज किया है जिसमें तीन साल की सजा हो सकती है।

-अनिल नरेन्द्र

क्या सोनिया गांधी कांग्रेस को पुनर्स्थापित कर पाएंगी

लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद कांग्रेस के लिए अभी तूफान थमा नहीं है। दरअसल महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और हरियाणा में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का डर सताने लगा है। सोनिया और राहुल को चुनावी राज्यों में कई नेता और कार्यकर्ताओं से लगातार जानकारी मिल रही है कि चुनावी राज्यों में पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ सकता है। दिल्ली के विधायकों ने सोनिया गांधी से मुलाकात कर उन्हें कहा कि अगर इस समय दिल्ली में चुनाव होते हैं तो पार्टी का खाता खुलना अभी सम्भव नहीं लग रहा, हालिया आम चुनाव में हुई कांग्रेस की बुरी हार के बाद अब तमाम जगह से पार्टी के कार्यकर्ताओं का गुस्सा अपने स्थानीय और प्रादेशिक नेतृत्व के खिलाफ फूट रहा है। जहां कई जगह लोगों ने केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी है वहीं कई जगहों पर हाथापाई और आपसी झड़प भी देखने को मिल रही है। महाराष्ट्र के कई मंत्री राज्य में पार्टी की स्थिति खराब होने की रिपोर्ट राहुल गांधी को दे चुके हैं। बगावत के कुछ सुर महाराष्ट्र में अब उठने लगे हैं। वहां लोग सीएम पृथ्वीराज चव्हाण के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। नारायण राणे और सरकार में मंत्री नितिन राउत जैसे नेताओं ने न सिर्प मुखर विरोध किया बल्कि इसकी शिकायत दिल्ली आकर हाई कमान से भी की। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के इंदौर में पीसीसी चीफ अरुण यादव के घर पर हुई मीटिंग में प्रदेश के कुछ नेताओं के समर्थक आपस में ऐसे भिड़े कि उन्होंने हाथापाई के साथ-साथ नेताओं को भी लपेटे में ले लिया। ऐसी ही घटनाएं हरियाणा से भी सामने आ रही हैं जहां सीएम भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के सपोर्टरों और वहां के दिग्गज नेता कुमारी शैलजा और चौधरी वीरेन्द्र सिंह के समर्थकों के बीच आए दिन जोर-आजमाइश होती है। कुमारी शैलजा ने तो सोनिया गांधी से यहां तक कह दिया है कि राज्य में हुड्डा के नेतृत्व में अगर चुनाव लड़ा जाएगा तो पार्टी को दो दर्जन से ज्यादा सीटें नहीं मिल पाएंगी। दूसरी ओर हुड्डा के समर्थकों ने कहा कि हुड्डा ने राज्य में इतना विकास किया है कि वह पार्टी को जिताने में सक्षम हैं। झारखंड के कांग्रेस प्रभारी बीके हरिप्रसाद ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को प्रदेश में झामुमो के साथ गठबंधन में बंधी कांग्रेस को आगामी विधानसभा चुनाव में घाटा होने की रिपोर्ट दी है। वहीं जम्मू-कश्मीर में भी नेशनल कांफ्रेंस के साथ सरकार में शामिल कांग्रेस को संकट का सामना करना पड़ रहा है। राज्य के कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेशनल कांफ्रेंस से नाता तोड़ने की पैरवी कर रहे हैं। उधर कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता एआर अंतुले ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की बुरी हार का ठीकरा आलाकमान पर फोड़ा है। उन्होंने कहा कि आलाकमान की वजह से ही कांग्रेस आज इस हाल में पहुंची है। उसकी अक्षमता की वजह से पार्टी को यह दिन देखने पड़ रहे हैं। चौतरफा हो रहे हमलों के कारण अब सोनिया गांधी ने लगता है तय कर लिया है कि वह कमान सम्भालेंगी। रायबरेली में फिरोज गांधी कॉलेज के मैदान पर कांग्रेस के बूथ स्तर तक के कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में सोनिया ने कहा कि वह कांग्रेस के पुनर्स्थापित होने तक चैन से नहीं बैठेंगी। कांग्रेस जनों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि हम अपने कठिन परिश्रम से जरूर कामयाब होंगे। सोनिया ने लोकसभा चुनाव में हारे नेताओं से कहा है कि वह हताश न हों और अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय रहें, समय पलटेगा।

Tuesday, 17 June 2014

केदार घाटी आपदा के जख्म अब भी हरे हैं, श्रद्धालु लाचार

जिंदगी की दुश्वारियों से जद्दोजहद करती केदार घाटी बीते साल 16-17 जून की आपदा के साल भर बाद भी बरसात से सिहर उठती है। केदार घाटी के लिए तय करना मुश्किल है कि यह बारिश की बूंदे जीवनदायिनी हैं या मौत की आहट। वजह केदार घाटी के लोगों और श्रद्धालुओं को यकीन नहीं है कि वह पहाड़ों में सुरक्षित हैं। केदार घाटी और उत्तराखंड के अन्य भागों में दैवीय आपदा से हुई तबाही को एक साल पूरा हो चुका है मगर इस त्रासदी के जख्म अब भी हरे नजर आ रहे हैं। कुदरत के कहर से तबाह हुए गांवों में न तो जिंदगी पटरी पर लौट पाई है और न ही क्षतिग्रस्त सड़कें, पुल, स्कूल व अस्पताल ही पूरी तरह दुरुस्त हो सके। इस त्रासदी में मारे गए लोगों के परिजनों व पीड़ित परिवारों को फौरी राहत भले ही मिल गई हो मगर आपदा में बेघर हुए हजारों परिवारों को एक साल बाद भी नई छत नसीब नहीं हो पाई।  चार धाम यात्रा शुरू करने के लिए लगातार हाथ-पैर मारती सूबे की सरकार ने अब तक उन 337 गांवों की सुध लेना भी मुनासिब नहीं समझा जो खतरे के मुहाने पर खड़े हैं। 16-17 जून 2013 की आपदा में बेघर हुए करीब ढाई हजार परिवारों को एक साल बाद भी नई छत मुहैया नहीं हो पाई है। 16-17 जून 2013 के बाद आपदा से निपटने के वादे तो बहुतेरे हुए लेकिन धरातल पर नहीं उतरे। खतरे की पूर्व चेतावनी का तंत्र भी विकसित नहीं हो सका। कटु सत्य तो यह है कि अगर बीते साल जैसी आपदा फिर आई तो फिर पहले जैसा ही हाल होगा। सरकार के पास खतरे के अनुमान तक नहीं हैं। न नदियों के बाढ़ क्षेत्र, नदी-नालों के किनारे से लोग हटे और न ही यह आंकलन हो पाया कि नदियां, नाले अगर विकराल हो जाएं तो कितना नुकसान हो सकता है। न इस बात की पड़ताल हुई की आपदा के लिहाज से कौन-कौन से गांव, शहर खतरे की जद में हैं। न वैकल्पिक सड़क बन पाई और न ही पुल। न नदियों का मलबा हट पाया और न बाढ़ नियंत्रण के काम पूरे हुए। न प्रदेश का आपदा प्रबंधन तंत्र डाल्पर राडार लग पाया न ग्लेशियर, झीलों की निगरानी तंत्र विकसित हो पाया। आपदा प्रबंधन की अधिकतर योजनाएं कागजों पर हैं और वक्त आने पर उनका कितना उपयोग हो पाएगा यह भी साफ नहीं है। आपदा प्रबंधन तंत्र संविदा अधिकारियों के भरोसे हैं। अधिकारियों की मुसीबत यह है कि जिला स्तर पर यह पुलिस व अन्य विभागों के सम्पर्प में कम ही हैं। पुनर्वास कार्यक्रम फाइलों में कैद हैं। उत्तराखंड सरकार के अनुसार कुल लापता और मृतकों की संख्या 3890 है। इनमें से कुल 574 शव बरामद हो पाए। 42000 गांव प्रभावित हुए। सेना का रेस्क्यू ऑपरेशन 16 दिन चला और सेना ने 109000 श्रद्धालुओं को सुरक्षित निकाला। कुल नुकसान का अनुमान है 40 हजार करोड़। शवों के मिलने का सिलसिला अब भी जारी है। केदारनाथ पैदल मार्ग पर जंगलों में गत शनिवार को 17 और मानव कंकाल मिले हैं। चीरवासा में भैरवनाथ मंदिर के ऊपर जंगल से आठ मानव कंकाल मिले। शुक्रवार को भी जंगल से 12 मानव कंकाल मिले थे। सबका अंतिम संस्कार कर दिया गया है। इसी बीच मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सोनप्रयाग से केदारनाथ तक लापता लोगों की तलाश के लिए फिर से सघन अभियान चलाने का निर्देश दिया है। यह अभियान 20 दिनों तक चलेगा, इसके लिए स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया गया है।

-अनिल नरेन्द्र

पाकिस्तान को ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा

पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा शुक्रवार को फिर संघर्ष विराम का उल्लंघन करना और पुंछ जिले में नियंत्रण रेखा से लगी भारतीय चौकियों पर फायरिंग करना नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए एक चुनौती है। क्षेत्र में संघर्ष विराम का उल्लंघन और फायरिंग पाकिस्तान के इरादों पर नए सिरे से सवालिया निशान भी लगाता है। शुक्रवार को पाक सेना ने जम्मू-कश्मीर के पुंछ सेक्टर में गोले दागे और फायरिंग की। करीब आधा घंटा चली गोलाबारी में सेना की चौकी के साथ-साथ रिहायशी इलाकों को भी निशाना बनाया गया। इससे पहले गुरुवार को दो आईईडी धमाके हुए थे। इसमें सेना का जवान शहीद हो गया था और मेजर समेत पांच जवान घायल हुए थे। सीमा पर हो रही इन घटनाओं के बीच शुक्रवार करीब 10 बजे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सेना मुख्यालय पहुंचे। उन्होंने वॉर रूम देखा और करीब पौने तीन घंटे तक सेना प्रमुख जनरल विक्रम सिंह से सैन्य तैयारियों और जरूरतों पर रिपोर्ट ली। यह घटना पाकिस्तान के इरादों पर नए सिरे से सवालिया निशान लगाता है। यह घटना एक ऐसे समय में हुई है जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारत के प्रधानमंत्री के बीच पत्रों का आदान-प्रदान हो रहा है और दोनों ओर से अमन-शांति की पहल की जा रही है। पाकिस्तान की ओर से फायरिंग के कई कारण हो सकते हैं। पाकिस्तानी सेना व आतंकी संगठन शायद यह नहीं चाहते कि शरीफ-मोदी शांति वार्ता सफल हो। बौखलाहट में वह माहौल खराब करने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ ही दिनों में अमरनाथ यात्रा शुरू होने वाली है। यात्रा के दौरान आतंकी यात्रा में विघ्न डालने के लिए हमले करते हैं। पाकिस्तान यात्रा से पहले आतंकियों की घुसपैठ कराने की कोशिश भी करता है। अप्रैल के अंतिम हफ्ते से 15 मई तक पाक की ओर से 19 बार फायरिंग हो चुकी है। पिछले साल फायरिंग की 149 घटनाएं हुई थीं जिनमें हमारे 12 जवान शहीद हुए थे। भारत सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि गत दिवस सीमा पार से गोलियां बरसाए जाने के कुछ ही घंटे पहले पुंछ की सीमा पर बारुदी सुरंग से विस्फोट किए गए, जिसमें एक सैनिक शहीद हुआ और मेजर समेत छह अन्य जवान घायल हो गए। इधर अरुण जेटली (रक्षा मंत्री) पहली बार सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने पहुंचते हैं और पहुंचने से ठीक पहले यह घटनाएं होती हैं। क्या यह समझा जाए कि सीमा पार से उकसाने वाली हरकतों को जानबूझ कर अंजाम दिया जाता है? रक्षा मंत्री ने शनिवार को कहा कि देश के सशस्त्र बल नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान द्वारा किए जाने वाले संघर्ष विराम उल्लंघन का जवाब देने में सक्षम हैं। उल्लेखनीय है कि मोदी के पीएम बनने के बाद से अब तक नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सेना चार बार संघर्ष विराम  का उल्लंघन कर चुकी है। पाकिस्तान सरकार इससे अच्छी तरह परिचित है कि संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाएं आम तौर पर आतंकियों की घुसपैठ कराने के मकसद से होती हैं। मुश्किल यह है कि पाकिस्तान सरकार न तो आतंकियों पर कोई अंकुश लगाना चाहती है और न ही अपनी सेना पर। भले ही नवाज शरीफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हों पर न तो पाक सेना और न ही आतंकी संगठन इसमें रोड़ा लगाने से बाज आ रहे हैं। देश नरेन्द्र मोदी की ओर देख रहा है कि वह क्या नीति अपनाते हैं। अपने प्रचार में तो मोदी ने बहुत कुछ कहा था। अब देखना यह है कि उनमें से कितनी बातों पर अमल कर पाते हैं। शांति वार्ता और सीमा पर गोलाबारी व धमाके दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। यह जरूरी है कि भारत की ओर से पाकिस्तान सरकार के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया जाए कि सीमा पर शांति कायम रखना उसकी जिम्मेदारी है और वह अपनी इस जिम्मेदारी को ठीक से निभा नहीं पा रही है। भारत को सीमा पर अपनी तैयारी पूरी रखनी होगी और सेना को स्पष्ट आदेश देना होगा कि वह पाकिस्तान को माकूल जवाब दे। पिछले 10 सालों में यूपीए सरकार ने कुछ ठोस नहीं किया। पाकिस्तानी आकर हमारे जवानों के सिर काट कर ले जाते हैं और हम हाथ पर हाथ धरे सिवाय चेतावनी देने के कुछ नहीं करते। अब मोदी सरकार को अपने वादों पर पूरा उतरना होगा। पाकिस्तान को ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा। तभी जाकर यह जेहादी संगठन और पाक सेना भारत को गम्भीरता से लेगी।