Tuesday, 30 September 2014

राहुल के नेतृत्व पर उठते सवालों से कांग्रेस में असमंजस की स्थिति

बड़े दुख से कहना पड़ता है कि लोकसभा चुनावों के निराशाजनक परिणामों से लगे धक्के से कांग्रेस पार्टी इतने दिन बीतने के बाद भी संभल नहीं सकी। जिस आत्म-चिन्तन या आत्म-निरीक्षण की जरूरत थी वह नहीं किया गया और आज भी कांग्रेस पार्टी नेतृत्वविहीन नजर आ रही है। कांग्रेस नेतृत्व में राहुल गांधी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। श्रीमती सोनिया गांधी अब इतनी सक्रिय नहीं हैं। शायद अपने स्वास्थ्य की वजह से वह अब पार्टी के काम को ज्यादा गंभीरता से नहीं कर रही हैं। सारा दारोमदार उन्होंने राहुल गांधी पर छोड़ रखा है और राहुल गांधी का यह हाल है कि हाल में मोदी सरकार के खिलाफ युवा कांग्रेस की आक्रोश रैली में उनका आक्रोश सिर्प पोस्टर और  बैनरों में ही देखने को मिला। दरअसल राहुल गांधी रैली से गायब रहे। ऐसा करके राहुल गांधी एक बार फिर कांग्रेस को आगे बढ़ाकर पीछे हट गए। राहुल की गैर मौजूदगी से एक बार फिर कांग्रेस के अंदर उनकी राजनीतिक सक्रियता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। संसद के पिछले सत्र के दौरान लोकसभा में देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बढ़ने को लेकर मोदी सरकार को घेरते हुए वे लोकसभा अध्यक्ष के आसन के सामने आ गए थे। मगर जब इस मुद्दे पर बहस का वक्त आया तो उन्होंने बोलना ही मुनासिब नहीं समझा। राहुल गांधी की गैर मौजूदगी से कांग्रेस पार्टी में एक तरह की असमंजस की स्थिति बनी हुई है। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में क्या राहुल गांधी कांग्रेस की तरफ से प्रचार करेंगे? इस सवाल पर कांग्रेस पार्टी को समझ नहीं आ रहा कि क्या करे? पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की घटती लोकप्रियता और राहुल गांधी की अधकचरी सियासी समझ के चलते देश की सबसे पुरानी पार्टी पूरी तरह से नेतृत्वविहीनता के जाल में फंसती जा रही है। हालत यह हो गई है कि सारा दारोमदार अब राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर आ गया है। हालात इतने खराब हैं कि पार्टी के पास न पश्चिम भारत के महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र में और न ही उत्तरी भारत के दिल्ली से सटे हरियाणा में इस पार्टी के पास कोई स्टार प्रचारक बचा है। कांग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य यह है कि न तो लोकसभा में और न ही राज्यसभा में पार्टी नेतृत्व ने ऐसे नेताओं को विपक्षी नेता के पद पर बिठाया है जो जमीन के कार्यकर्ताओं या जनता से मिलते हैं और न ही उनकी कार्यकर्ताओं पर पकड़ है। लोकसभा में कर्नाटक के सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना नेता बनाया है उनका उत्तर भारत से कोई लेना-देना नहीं है। श्री खड़गे को मान्यता प्राप्त विपक्ष के नेता का दर्जा देने से भी मोदी सरकार ने साफ इंकार कर दिया है। शायद सरकार इस बात पर राजी हो सकती थी कि यदि लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के अपने सबसे वरिष्ठ सांसद को नेता विपक्ष पद पर बिठाने के लिए प्रयास करती। यह योग्यता श्री कमल नाथ में है जो महाराष्ट्र से लगते छिंदवाड़ा क्षेत्र से 1980 से लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं। आज वरिष्ठ कांग्रेसियों से लेकर सड़क पर कार्यकर्ता राहुल गांधी की योग्यता और नीयत पर सवाल उठा रहे हैं। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है पर सवाल यह उठता है कि जब राहुल गांधी खुद पार्टी में दिलचस्पी नहीं रखते तो पार्टी का भविष्य चिन्ताजनक बनता जा रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

जयललिता केस ः देर से आया पर दुरुस्त आया

आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को हुई सजा देश की राजनीति में एक अपूर्व घटना है। जहां जयललिता अब अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी मुश्किल से रूबरू होंगी वहीं यह फैसला एक न्यायिक इतिहास भी है। हालांकि भ्रष्टाचार या दूसरे आपराधिक मामले में दिग्गजों के जेल जाने की बात नई नहीं है पर शायद यह पहला मौका है जब एक मुख्यमंत्री को सजा हुई है। इससे यह संदेश तो जरूर जाता है कि कोई कितना भी ताकतवर क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। जयललिता को आय से अधिक सम्पत्ति के 18 साल पुराने मामले में चार साल की सजा के ऐलान से यह कहा जा सकता है कि आखिरकार कानून के लम्बे हाथ उन तक पहुंचे। हमारे सामने ऐसे कई मामले आए हैं। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, पूर्व टेलीकॉम मिनिस्टर सुखराम और हरियाणा के पूर्व सीएम ओम प्रकाश चौटाला को कोर्ट दोषी करार दे चुका है। डीएमके नेता ए. राजा, कनिमोझी और पूर्व संचार मंत्री दयानिधि मारन के मामले भी सामने हैं। जयललिता का फैसला जहां न्यायपालिका में लोगों का भरोसा और बढ़ाएगा वहीं यह उन लोगों के लिए सख्त चेतावनी का काम भी करेगा जो सोचते हैं कि पद या प्रभाव का इस्तेमाल करके वे अपने भ्रष्ट कारनामों का नतीजा भुगतने से बचे रहेंगे। जयललिता के सामने फौरी चुनौती अपनी पार्टी से एक भरोसेमंद व्यक्ति तलाशने की थी, जो उनके नाम पर राज्य का राज चला सके। इस काम के लिए जयललिता ने उन्हीं पनीरसेल्वम को चुना है जो पहले भी ऐसे हालात में उनकी पहली पसंद रहे थे। लेकिन अब पार्टी और सरकार पर जयललिता का एकछत्र वर्चस्व लम्बे वक्त तक कायम रहेगा, इस पर संदेह जरूर है। कारण पिछली बार जयललिता बेहद कम वक्त के लिए कुर्सी से हटने के लिए मजबूर हुई थीं लेकिन इस बार अदालती निर्णय ने पूरे 10 साल के लिए उन्हें चुनाव लड़ने या संवैधानिक पद संभालने से वंचित कर दिया है। अगर ऊपरी अदालतें उन्हें निर्दोष मान लेती हैं तो और बात है पर अगर ऐसा नहीं होता है तो बहुत सालों तक जयललिता सत्ता से बाहर हो सकती हैं। अब यह अहम सवाल है कि जया के बगैर तमिलनाडु की राजनीति कैसी होगी और उनके राजनीतिक कैरियर का क्या होगा? पिछले कुछ सालों में जयललिता ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाई है। जयललिता को सजा होने से तमिलनाडु की राजनीति में नए समीकरण बनेंगे। वर्ष 2016 में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में अन्नाद्रमुक की संभावनाओं पर भी इस फैसले का असर पड़ेगा। उसके प्रतिद्वंद्वी द्रमुक और उनके नेता करुणानिधि हालांकि इन हालातों का फायदा जरूर उठाना चाहेंगे पर उनकी पार्टी में भी एका नहीं है और परिवार बुरी तरह से विभाजित है। फिर अब तक यह पार्टी भी अपने नेताओं के घपले-घोटालों में लगातार घिरने से हलकान रही है। अब राज्य की राजनीति में भाजपा भी अपने लिए नए अवसर देख सकती है। हाल के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु से एक सीट जीतने और मत प्रतिशत में बढ़ोतरी होने से भाजपा उत्साहित है। बहरहाल राजनीतिक नफा-नुकसान का आंकलन तो चलता रहेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह फैसला भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी संघर्ष का एक अहम मुकाम है। खासकर सजायाफ्ता जन प्रतिनिधियों की सदस्यता खत्म करने में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद राजनीतिक भ्रष्टाचार पर प्रहार होने की जो उम्मीद लगाई गई थी, जयललिता का मामला उस उम्मीद को पूरा होने का अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह देखना दयनीय है कि जयललिता के समर्थक रो-धोकर यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी नेता के साथ अच्छा नहीं हुआ। कुछ तो तोड़फोड़ और हिंसा पर आमादा हैं। ऐसे तत्वों को सही संदेश देने की आवश्यकता है। न्याय में 18 साल की देरी का एक दुष्परिणाम यह है कि जब कभी निचली अदालतों से सजा पाए नेता ऊपरी अदालतों से राहत पा जाते हैं तो वे इसका भी सियासी लाभ उठाते हैं। इस निर्णय की जद में हालांकि लालू यादव और रशीद मसूद जैसे नेता भी आए, लेकिन इसके चलते किसी राज्य के शीर्ष पदस्थ राजनेता को पद छोड़ना पड़े ऐसा  जयललिता के मामले में पहली बार हुआ है। हालांकि जिस तरह जयललिता के मामले को अंजाम तक पहुंचने में 18 साल लग गए, इससे न्यायिक प्रक्रिया की लेटलतीफी पर भी सवाल उठते हैं। समयबद्ध न्याय हर व्यक्ति और आवाम का हक है लेकिन नेताओं के मामले में अगर त्वरित निपटारा हो जाए तो राजनीति में सफाई को बल मिल सकता है। हमारे नीति-नियंताओं को यह समझना होगा कि आज जनता जागरूक हो चुकी है और वह अच्छे से देख और समझ रही है कि किस तरह रसूखदार लोगों के मामले में कानूनी प्रक्रिया अलग ढंग से आगे बढ़ती है और आम लोगों के मामले में अलग तरह से।

Sunday, 28 September 2014

महाराष्ट्र में गठबंधनों का तलाक, सभी खुश हैं

वेंटिलेटर पर चल रहे भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने अंतत अपनी अंतिम सांसें ले लीं। भाजपा ने अपने सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना से 25 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया। उधर कांग्रेस और एनसीपी का 15 साल पुराना रिश्ता भी टूट गया। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से तीन हफ्ते पहले दोनों गठबंधनों का टूटने का मतलब है कि अब भाजपा-शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी चारों चुनाव अलग-अलग लड़ेंगे। भाजपा-शिवसेना का गठबंधन टूटने के संकेत तभी मिल गए थे जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अपना मुंबई का दौरा रद्द किया था। भाजपा गठबंधन के टूटने की घोषणा प्रधानमंत्री के अमेरिका रवाना होने से पहले नहीं करना चाहती थी ताकि मोदी पर टूटने का इल्जाम न लगे। जैसे ही मोदी विमान में अमेरिका के लिए उड़ान भरने बैठे वैसे ही भाजपा ने गठबंधन टूटने की घोषणा कर दी। भाजपा सूत्रों के अनुसार भाजपा ने शिवसेना के साथ अपना 25 साल पुराना गठबंधन आनन-फानन में नहीं तोड़ा बल्कि पूरी तैयारी के बाद तोड़ा है। पार्टी सूत्रों के अनुसार भाजपा ने शिवसेना से पीछा छुड़ाने से पहले चुनाव बाद राकांपा और मनसे (राज ठाकरे) से समर्थन की पुख्ता ताकीद कर ली है। बीते एक पखवाड़े से जारी रस्साकसी के दौरान भाजपा चुनाव बाद जरूरत पड़ने पर राकांपा और मनसे से समर्थन की संभावनाएं तलाशती रही। दोनों ही ओर से मिले सकारात्मक संदेश के बाद ही शिवसेना-भाजपा के संबंधों की उलटी गिनती शुरू हो गई। राकांपा ने भी कांग्रेस से दामन छुड़ा कर अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है। बहरहाल अब हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की पहली अग्निपरीक्षा में भाजपा अपने दम पर चुनावी नैया पार करने के लिए मैदान में होगी। इसके साथ ही महाराष्ट्र में हरियाणा की तरह ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पार्टी का चेहरा होंगे। वैसे अपना मानना है कि भाजपा ने हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी अपनी सबसे पुरानी वैचारिक समानता वाली शिवसेना से गठबंधन तोड़कर बड़ा जोखिम उठाया है। इससे यह साबित होता है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर नहीं चल सकती। पहले  जद (यू) फिर कुलदीप बिश्नोई की पार्टी और अब शिवसेना। इससे आम धारणा यह बन रही है कि जैसे ही भाजपा अपने आपको थोड़ा मजबूत मानती है वैसे ही यह अपने सहयोगी दल को धक्का दे देती है। इस हिसाब से अगला नम्बर अकालियों का है। भाजपा ने अभी तक महाराष्ट्र में उसकी तरफ से सीएम कौन होगा, यह तक तय नहीं किया। कटु सत्य तो यह है कि पहले स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने महाराष्ट्र में पार्टी को संभाला, संवारा, फिर स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे ने। इन दोनों के जाने के बाद महाराष्ट्र में भाजपा नेतृत्व शून्य के बराबर है। प्रमोद महाजन ने यूं ही नहीं शिवसेना के साथ गठबंधन किया था। वह जानते थे कि शिवसेना कॉडर बेस्ट पार्टी है और हिन्दुत्व को मानने वाली दोनों पार्टियां अगर आपस में ही लड़ गईं तो वोटों का बंटवारा हो जाएगा पर भाजपा को लगता है कि मोदी की छवि का उसे फायदा होगा। भाजपा गठबंधन की टूट का ठीकरा शिवसेना पर फोड़ रही है। सीटों के बंटवारे और मुख्यमंत्री पद की उद्धव ठाकरे की जिद्द की वजह से 25 साल पुराना गठबंधन टूटा। भाजपा सूत्रों के अनुसार पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उद्धव ठाकरे के अड़ियल रवैये को देखते हुए महाराष्ट्र चुनाव के लिए काफी पहले ही रणनीति तैयार कर ली थी। नई दिल्ली में भाजपा संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति की बैठकों में पार्टी ने पहले ही राज्य की सभी 288 सीटों के लिए उम्मीदवार तय कर लिए थे। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों ने भाजपा नेतृत्व का दिमाग खराब कर दिया। मनसे के राज ठाकरे को इसी बात का इंतजार था। भाजपा भी यदि राज से बात करती है तो लोकसभा चुनावों की तरह उद्धव ठाकरे शिकवा नहीं कर सकेंगे। यह संगम शिवसेना के लिए बड़ा झटका होगा। दिवंगत शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने जिस दिन उद्धव ठाकरे को राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया था उस दिन से वे लगातार अग्निपरीक्षा से गुजर रहे हैं। उनकी आलोचना हुई और पार्टी में बगावत का दौर चला। इन तमाम झटकों और झंझटों को झेलते हुए उद्धव ने महाराष्ट्र की राजनीति में पैर टिकाए रखे। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने 18 सीटें जीतकर इतिहास रचा लेकिन इस जीत का श्रेय उद्धव को नहीं नरेन्द्र मोदी को मिला। इसके बाद उद्धव की उम्मीदों को पंख लग गए और वह महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने लगे। 1995 में जब पहली बार शिवसेना-भाजपा की सरकार बनी थी उस समय बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाए जाने के बाद दंगे का असर था क्योंकि तब तक शिवसेना मराठी मानुष के आगे बढ़कर हिन्दुत्व के मुद्दे पर  लौट आई थी। मोदी लहर के चलते दूसरी बार महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी के खिलाफ माहौल बना है लेकिन इस बार बड़े दोस्त का कंधा नहीं है। नए राजनीतिक घटनाक्रम में उद्धव के सामने फिर क्षमता सिद्ध करने की चुनौती है। उद्धव अपने पिता बाबा साहेब ठाकरे की मृत्यु के बाद सहानुभूति लहर पर भी भरोसा कर रहे हैं। दूसरी ओर अब भाजपा के सामने खुद को शिवसेना से बड़ा साबित करने की चुनौती है। हालांकि दोनों ही दलों ने चुनाव बाद फिर से एकजुट होने का विकल्प खुला रखा है। दूसरी ओर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एनसीपी से गठबंधन टूटने के बाद कांग्रेस मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की ईमानदार छवि को मुद्दा बनाने की तैयारी कर रही है। कांग्रेस के अलावा महाराष्ट्र में किसी पार्टी के पास मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं है, इसलिए पार्टी भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का वादा कर लोगों से वोट देने की अपील करेगी। कांग्रेस रणनीतिकार गठबंधन खत्म होने से ज्यादा परेशान नहीं लगते। वह मानते हैं कि एनसीपी का साथ छूटने से कोई खास नुकसान नहीं होगा। दोनों पार्टियां अगर मिलकर चुनाव लड़तीं तो उन्हें भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने से सत्ता विरोधी वोट बंटने का फायदा मिल सकता था पर अकेले चुनाव लड़ने पर भी कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहेगा। कांग्रेस चुनाव में समाजवादी पार्टी सहित दूसरी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के साथ तालमेल कर सकती है ताकि सेक्युलर वोटों का बंटवारा न हो। भाजपा-शिवसेना गठबंधन के टूटने से सहयोगी दलों पर असर पड़ सकता है। इससे महाराष्ट्र में वोटों का बंटवारा तो होगा ही, सहयोगी दलों में भी संशय होगी। पहले जद (यू) फिर एचजेसी और अब शिवसेना। कहीं नरेन्द्र मोदी लहर पर भाजपा ज्यादा उम्मीदें तो नहीं लगाए बैठी? यह सभी जानते हैं कि मोदी लहर का ग्रॉफ तेजी से गिर रहा है। मजेदार बात यह है कि चारों दल गठबंधन टूटने से खुश हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Saturday, 27 September 2014

क्या चीन में सत्ता संघर्ष चल रहा है?

पूर्वी लद्दाख के चुमार में जिस तरह से चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के जवानों की गतिविधियां जारी हैं उससे उनके राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा से उपजा उत्साह हवा में उड़ता दिख रहा है। जिनपिंग की जुबान फिर से बदली हुई है। भारत का नाम बिना लिए वह अपनी सेनाओं को क्षेत्रीय युद्ध जीतने के लिए तैयार रहने को कह रहे हैं। यह वही शी हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चुमार में चीनी सैनिकों की घुसपैठ और अड्डा जमाने पर आपत्ति पर अपने सैनिकों को तत्काल वापस लौटने के संकेत दिए थे। हालांकि आदेश के बावजूद चीनी सैनिक पूरी तरह से लौटे नहीं हैं। जिन देशों में नाममात्र लोकतंत्र है वहां सेना की भूमिका बहुत प्रबल रही है। चाहे वह पाकिस्तान हो या चीन हो। दोनों देशों की सरकारों और वहां की सेना के बीच अंतर साफ नजर आता है। यह अंतर कहीं अनचाहे, तो कहीं चाहकर पैदा किया जाता है। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार भारत से संबंधों को लेकर बहुत गंभीर है। नवाज शरीफ चाहते हैं कि भारत से उनका संबंध अच्छा हो। उन्होंने पिछले महीने इस बात को स्पष्ट कहा था कि भारत से संबंध सुधरना बहुत जरूरी हैं। मगर पाक सेना लगातार युद्ध विराम का उल्लंघन करती रही। सीमा पर उनके जवान गोलियां बरसा रहे थे और अंत में उनकी बंदूकें तब शांत हुईं जब भारतीय फौजों ने उन्हें करारा जवाब दिया। दरअसल वहां की सेना और पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई बेलगाम रही है। लोकतांत्रिक सरकारें उनके रहमोकरम पर चलती रही हैं। चीन के राष्ट्रपति की गुड़ी-गुड़ी बातों के बावजूद उनके सैनिकों द्वारा उन्माद मुद्रा अपनाना  यह दर्शाता है कि चीन सरकार और चीनी सेना में मतभेद हैं। जिनपिंग का अपनी फौज को सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति पूरी निष्ठा रखने और सभी आदेशों के पालन की नसीहत देना इसका प्रमाण है। चीनी सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैन्य कमांडरों की  बैठक में जिनपिंग ने सेना से अनुशासन का कड़ाई से पालन करने और अंतर्राष्ट्रीय व घरेलू सुरक्षा, परिस्थितियों के प्रति बेहतर समझ विकसित करने को कहा। उन्होंने अपनी चेन ऑफ कमांड को दुरुस्त रखने की भी सलाह दी। याद रहे कि जिनपिंग सेना का नियंत्रण रखने वाले केंद्रीय सैन्य आयोग के प्रमुख और सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव भी हैं। ऐसे में हम नहीं मान सकते कि उनकी सेना उनके आदेशों का उल्लंघन करेगी। क्या इसका यह मतलब भी निकाला जा सकता है कि जिनपिंग और चीन सेना  के कमांडरों में मतभेद हैं और चीनी सेना एक तरह की सत्ता संघर्ष में लगी हुई है। यह मानना मुश्किल लगता है कि भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों की यह हरकतें चीन सरकार की जानकारी के बिना जारी हैं? बल्कि हकीकत तो यह है कि भारत से लौटने के बाद जिनपिंग ने पीएलए के कुछ जनरलों को पदोन्नति दी है और पीएलए की तारीफ करने के साथ उसे क्षेत्रीय युद्ध में विजयी होने के लिए तैयार रहने के लिए भी कहा है। आखिर जिनपिंग का क्षेत्रीय युद्ध से मतलब क्या है? क्या उनका इशारा चुमार सेक्टर में जारी तनाव की ओर है? हैरानी की बात यह है कि उनके इस बयान के आधार पर उपजी आशंकाओं को चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ने कोरी अटकलबाजी करार दिया है। मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग वहां के सत्ता नायक होने के साथ-साथ वहां की सेनाओं के प्रमुख भी हैं। ऐसे में यह संभव नहीं लगता कि उनकी सेना उनके आदेशों का उल्लंघन कर दे। सीमा पर विभाजन का सही चिह्नांकन न होने के कारण भ्रम की स्थिति तो हो सकती है, मगर इसे उलझाए रखना चीन की स्ट्रेटेजी भी हो सकती है, यह चीन की राजनीतिक मंशा भी रही है। बेशक इस बात की आशंका बिल्कुल नहीं है कि दोनों देशों के बीच यह तनावपूर्ण स्थिति युद्ध में तब्दील हो जाएगी लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि चीन की अंदरूनी सियासत या सत्ता संघर्ष चिंता का विषय हो सकती है। साथ ही चीनी व्यवहार यही बताता है कि उनकी नीयत में कहीं खोट जरूर है।
-अनिल नरेन्द्र


218 में से 214 कोल ब्लॉकों का आवंटन रद्द

अंतत सुप्रीम कोर्ट ने कोयला खदानों के वे सभी आवंटन रद्द कर दिए हैं जिन्हें मनमाने ढंग से वर्ष 1993 से लेकर 2010 तक बांटा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 218 कोल ब्लॉकों में सरकारी कंपनियों से जुड़ी चार खदानों को छोड़कर शेष 214 की खुली और  प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी का रास्ता साफ कर दिया है। जिन 46 खदानों को उनसे कोयला उत्पादन शुरू होने के आधार पर राहत मिलने की थोड़ी उम्मीद थी सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें भी कोई रियायत नहीं दी। हालांकि इन खदानों से जुड़ी कंपनियों को आगामी छह महीने तक उत्पादन जारी रखने की इजाजत दी गई है ताकि कोयले की मौजूदा किल्लत और न बढ़ जाए। चूंकि इन खदानों के आवंटन में मनमानी एक घोटाले की शक्ल लेकर सामने आ चुकी थी, इसलिए इसी तरह के फैसले की उम्मीद की जा रही थी, इसलिए और भी, क्योंकि खुद केंद्र सरकार ने यह कहा था कि ऐसे किसी निर्णय से उसे आपत्ति नहीं होगी। एक साथ इतनी बड़ी संख्या में कोयला खदानों का आवंटन रद्द होना नीतियों को लागू करने में मनमानी बरतने के दुष्परिणाम का परिचायक है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में इस तरह की मनमानी और पक्षपात को स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पहले से ही संकट अर्थव्यवस्था के लिए भी मुश्किलें पेश कर सकता है। कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने बीते 21 साल के दौरान सत्ता में रही पांच सरकारों के चेहरे पर कालिख पोत दी है। चूंकि इन 21 सालों में सर्वाधिक अवधि 13 साल तक कांग्रेस या उसकी अगुवाई वाली सरकार शासन में रही, इसलिए फैसले की कालिख भी सबसे ज्यादा उसी के हिस्से में आई। सुप्रीम कोर्ट ने अनियमितताओं के कारण जिन 214 कोल ब्लॉकों के आवंटन को रद्द किया है, उनमें सबसे ज्यादा आवंटन नरसिंह राव और मनमोहन सरकार के दो कार्यकाल में हुआ। इस दौरान लंबे वक्त तक तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास कोयला मंत्रालय का प्रभार था और तकरीबन दो-तिहाई कोयला ब्लॉकों का आवंटन भी इसी दौर में हुआ। इस घोटाले में जब कैग ने खुलासा किया और 1.86 हजार करोड़ रुपए के नुकसान का आंकलन सामने आया तो देश को बेहद हैरत हुई लेकिन अधिक हैरत इस चोरी के बाद सत्ताधीशों की सीनाजोरी को देखकर हुई। घाव पर नमक छिड़कने के अंदाज में दलीलें दी गईं कि जब कोयला जमीन से निकला ही नहीं तो नुकसान कैसा! कांग्रेस के नेताओं और मंत्रियों ने तत्कालीन कैग विनोद राय पर व्यक्तिगत हमले तक किए परन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री से सवाल हुए तो उन्होंने हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी... की तर्ज पर मौन धारण कर लिया। जब नागरिक संगठनों के प्रयास से जांच शुरू हुई तो बाद में यह शर्मनाक खुलासा भी हुआ कि एक केंद्रीय मंत्री और पीएमओ के अफसर सीबीआई की जांच रिपोर्ट में तब्दीली कराने में जुटे रहे। सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह फैसला मोदी सरकार के लिए आफत साबित हो सकता है। जब देश की अर्थव्यवस्था में थोड़े सुधार के लक्षण दिख रहे हों तब इस तरह की चोट बड़ा नुकसान कर सकती है। कोल आवंटन रद्द होने का असर चौतरफा होगा। बैंकों, स्टील, सीमेंट और बिजली समेत कई निजी और सार्वजनिक कंपनियों पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर पड़ेगा। क्योंकि कोयला सेक्टर पर इनके 7.65 लाख करोड़ रुपए दांव पर  लगे हैं। सबसे ज्यादा असर बैंकों पर पड़ेगा। यह ठीक है कि कोयला खदानों के आवंटन रद्द होने के बाद केंद्र सरकार ने एक नई शुरुआत करने की बात कही है, लेकिन इस काम में देरी नहीं होनी चाहिए। मोदी सरकार को कोई ऐसा रास्ता निकालना होगा जिससे अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने की आशंकाओं को दूर किया जा सके। बहरहाल अभी इस बंदरबांट के षड्यंत्र की जांच जारी है। जरूरी है कि शीर्ष पदों पर रहे उन लोगों को भी पूछताछ के दायरे में लाया जाए जिन पर देश के संसाधनों की रक्षा और उनके सही इस्तेमाल का दारोमदार था परन्तु उनके सामने इनकी खुली लूट हो रही थी।

Friday, 26 September 2014

समय पर सही तरीके से मदद मिलती तो मकसूद शायद बच जाता

राजधानी स्थित चिड़ियाघर में मंगलवार को एक अत्यंत दुखद हादसा हुआ। दोपहर करीब एक बजे एक नौजवान जो चिड़ियाघर घूमने आया था, सफेद बाघ की तस्वीर लेने के लिए बाड़े पर चढ़ा और फिसल कर अंदर की ओर सूखी खाई में गिर गया। 20 साल का मकसूद नामक यह युवा बाघ से बचने के लिए बाघ के सामने करीब 10 मिनट तक हाथ जोड़ कर उम्मीद करता रहा कि शायद वह  बच जाए और उसे बचा लिया जाए पर जब आसपास के लोगों ने बाघ को दूर करने की कोशिश में पत्थर मारने शुरू किए तो बाघ बिगड़ गया और मकसूद की गर्दन पर हमला करके उसे दूर ले गया। वहां उसने उसे बड़ी बेरहमी से मार डाला। एक प्रत्यक्षदर्शी ने सारा सीन बयान करते हुए बताया कि हम सब लोग चिड़ियाघर में घूम रहे थे। तभी मैंने देखा कि एक लड़का सफेद बाघ `विजय' के बाड़े के भीतर झांक रहा है। वह आगे की ओर बार-बार झुक रहा था। वहां बाड़े की ऊंचाई भी कम थी। इतने में वह लड़का बाड़े के अंदर जा गिरा। अंदर जो नाला बना है उसमें पानी नहीं है। लड़का उसी में गिरा। इतने में बाघ लड़के के पास आ धमका। लड़का चुपचाप बैठा रहा और हाथ जोड़ कर माफी मांगता रहा या ऊपर वाले से अनुरोध करता रहा कि उसे बचा ले। थोड़ी देर ठिठकने के बाद बाघ ने पहले पंजा मारा फिर दूर जा खड़ा हुआ। लेकिन तभी किसी ने बाघ पर पत्थर मारा। इस पर बाघ गुर्राया और लड़के पर झपट पड़ा। उसने लड़के को गर्दन से पकड़ा और घसीटकर दूर कोने में ले गया। इस बीच सिक्यूरिटी गार्ड आ गए और बाड़े की ग्रिल पर डंडे मारने लगे। इसके बाद बाघ फिर लड़के को घसीटने लगा और फिर लड़के की मौत हो गई। लड़के की गर्दन से खून बह  रहा था। गर्दन की हड्डी भी दिख रही थी, शायद टूट चुकी थी। मकसूद को यदि समय पर मदद मिलती तो उसकी जान बचाई जा सकती थी। बाघ के बाड़े में गिरने से लेकर युवक की मृत्यु के दरम्यान 15 मिनट का वक्त था। लेकिन उसे बचाने के लिए चिड़ियाघर प्रशासन द्वारा गंभीरता से प्रयास ही नहीं किया गया। अगर प्रशासन बाघ को बेहोश करने के लिए ट्रेक्यूलाइजर गन का इस्तेमाल करता तो मकसूद बच जाता। यह गन मौके से करीब 250 मीटर दूर चिड़ियाघर के अस्पताल में पड़ी थी लेकिन इसे इस्तेमाल नहीं किया गया। नियमानुसार खतरनाक जानवरों के बाड़े के पास ट्रेक्यूलाइजर (बेहोश करने वाली) गन के साथ तीन कर्मचारियों (एक कीपर, एक असिस्टेंट कीपर और एक अटेंडेंट) की तैनाती होनी चाहिए। वह तब तक तैनात रहेंगे जब तक चिड़ियाघर आम जनता के लिए खुला रहता है। लेकिन घटना के वक्त मौके पर कोई कर्मचारी नहीं था। एक बाघ विशेषज्ञ का कहना है कि बाघ ने तो उस युवक को छोड़ दिया था, अगर लोग पत्थर न फेंकते तो वह युवक बच जाता। रणथम्भौर फाउंडेशन के विशेषज्ञ पीके सेन ने बताया कि जंगल में रहने वाले बाघों में जरूर लोगों को मारने व शिकार करने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन विजय यहीं पैदा हुआ है और इसी माहौल में पला-बढ़ा है तो उसमें लोगों को मारने की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। मकसूद जब बाड़े में गिरा तो बाघ उसके पास आया व उसे चाट कर छोड़ दिया और मुड़कर जाने भी लगा। जब लोगों ने पत्थर मारने शुरू किए तो बाघ आक्रामक हो गया। ऐसे में खतरा भांप कर उसने युवक पर हमला कर दिया। कहीं न कहीं इसमें गलती उन लोगों की भी है जिन्होंने बाघ को पत्थर मारें। चिड़ियाघर में रहने वाले बाघ आमतौर पर आक्रामक नहीं होते हैं तभी तो देशभर में किसी चिड़ियाघर में इस तरह का हादसा पहले नहीं हुआ। मारा गया  लड़का दिल्ली के ही आनंद पर्वत इलाके का रहने वाला था। वह 12वीं कक्षा का छात्र था। चिड़ियाघर के क्यूटेटर रिवाज अहमद खान ने बताया कि सफेद बाग को देखने के लिए रोजाना हजारों लोग चिड़ियाघर आते हैं। सूचना पटल पर साफ-साफ लिखा हुआ है कि कोई भी पर्यटक जानवर को किसी भी तरह से परेशान न करे, खतरनाक जानवरों से पर्याप्त दूरी बनाए रखें। सफेद बाघ को कवर करने के लिए चिड़ियाघर प्रशासन ने लोहे की ऊंचे जाल और दीवार बनाई हुई है। लेकिन मकसूद बेचारे की मौत आई हुई थी इसीलिए वह दीवार पर चढ़ा और फोटो खींचने के चक्कर में सफेद बाघ विजय के बाड़े में जा गिरा।

-अनिल नरेन्द्र

अफगानिस्तान का चिंतित करता भविष्य

पड़ोसी होने के नाते और एक दोस्त देश के नाते भी भारत को अफगानिस्तान की अंदरूनी सियासत पर कड़ी नजर रखनी होगी। वैसे भी अगर अमेरिका वहां से जाता है तो उसके परिणामों से भी भारत प्रभावित होता है। अफगानिस्तान में महीनों से चल रहा सियासी गतिरोध आखिरकार सकारात्मक समझौते के साथ खत्म हो गया है। राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों के बीच सत्ता विभाजन का समझौता करवा कर अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपना तात्कालिक मकसद हासिल कर लिया है, लेकिन इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक निर्वाचन की अपेक्षाएं जरूर आहत हुई हैं। समझौते के तहत अशरफ गनी राष्ट्रपति बनेंगे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला (अथवा उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति) को सरकार के मुख्य कार्यकारी का पद मिलेगा। यह पद प्रधानमंत्री जैसा होगा, जिसे काफी अधिकार होंगे लेकिन क्या इस राष्ट्रीय एकता की सरकार की लोकतांत्रिक साख भी होगी। यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अप्रैल में हुए चुनावों का तालिबान ने विरोध किया था, इसके  बावजूद आम लोगों ने भारी तादाद में हिस्सा लिया था। इससे यह पता चलता है कि अफगानिस्तान की जनता में अपनी सरकार को चुनने और लोकतांत्रिक व्यवस्था के कायम होने की कितनी प्रबल इच्छा है। लाख टके का सवाल है कि क्या नई सरकार अफगान लोगों की आकांक्षाओं पर खरी उतर सकेगी? हकीकत यह है कि हामिद करजई भले ही एक दशक से भी लम्बे समय से सत्ता में हैं, लेकिन काबुल से बाहर उनका नियंत्रण न के बराबर था। साथ-साथ उनके प्रशासन में भ्रष्टाचार भी फला-फूला और  बेरोजगारी भी बढ़ती गई। अमेरिका और नॉटो सैनिकों की वापसी के मुद्दे पर अमेरिका के साथ उनकी तल्खी भी बढ़ती गई है। हालत यहां तक हो गई कि अमेरिका पिछले दरवाजे से तालिबान तक से बात करने को तैयार हो गया। वास्तव में अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार भले ही चल रही है पर तालिबान ने भी इन वर्षों में फिर से खुद को मजबूत किया है और जब अमेरिकी फौज वहां से लौट  जाएगी, तब तालिबान के और मजबूत होने की आशंका है। गौरतलब है कि जून में राष्ट्रपति चुनाव के दूसरे दौर के मतदान के बाद जब वोटों की गिनती में गनी को आगे बताया गया, तब अब्दुल्ला ने भारी चुनावी धांधली का आरोप लगाते हुए परिणाम को मानने से इंकार कर दिया था। तब गनी और अब्दुल्ला के समर्थकों में हिंसक झड़पें भी हुई थीं। यह अमेरिका के लिए बुरी खबर थी। उसकी तात्कालिक चिंता अफगानिस्तान में अब भी तैनात 30,000 अमेरिकी और 17,000 अन्य नॉटो सैनिकों को निकालने की है। सियासी उथल-पुथल के बीच यह काम अधिक कठिन हो जाता है। इस साल के अंत तक अमेरिका का अपनी बाकी सेना भी वापस बुलाने का प्लान है। ऐसे में सियासी गतिरोध का होना सत्ता को कमजोर करना और तालिबान को अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का अवसर मिलेगा। अफगान समस्या भारत के लिए भी चिंताजनक है क्योंकि भारत का बहुत कुछ दांव पर है। यहां की स्थिति भारत, पाकिस्तान और यहां तक कि समूचे विश्व के लिए चिंता का विषय रही है। क्योंकि यह देश अलकायदा और उसके सरगना बिन लादेन की गतिविधियों का मुख्य ठिकाना रहा है। आज भी तालिबान आतंकियों की यह सबसे सुरक्षित स्थली मानी जाती है। उम्मीद करते हैं कि नई सरकार तालिबान पर नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहेगी।

Thursday, 25 September 2014

चिदंबरम और उनकी पत्नी जांच एजेंसियों के राडार पर

केंद्र में सत्ता परिवर्तन से यूपीए शासन काल में हुए घोटाले की जांच में तेजी आना स्वाभाविक ही है। यूपीए शासन में जांच एजेंसियों पर सत्ता पक्ष का दबाव बना हुआ था जो अब खत्म हो गया है। अब जांच एजेंसियां जांच बिना किसी दबाव के कर सकती है। इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। फिलहाल निशाने पर हैं पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम और उनका परिवार। एयरसेल मैक्सिस मामले की सुनवाई कर रही विशेष 2-जी अदालत को सीबीआई ने सोमवार को बताया कि पूर्व वित्त मंत्री  पी चिदंबरम द्वारा सौदे में एफआईपीबी की मंजूरी दी गई थी और यह मंजूरी देनी गलत थी। मामले के जांच अधिकारी ने विशेष न्यायाधीश ओ पी सैनी को बताया कि 80 करोड़ डॉलर का निवेश था जो 3500 करोड़ रुपए (अनुमानित) होता है। एफआईपीबी को मंजूरी देना (तत्कालीन  वित्त मंत्री द्वारा) गलत था। इसकी जांच हो रही है कि 2006 में एयरसेल-मैक्सिस सौदे में चिदंबरम ने कैसे विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड (एफआईपीबी) को मंजूरी दे दी? इसने कहा कि वित्त मंत्री को 600 करोड़ रुपए तक की मंजूरी देने का अधिकार था लेकिन  चिदंबरम ने 80 करोड़ डॉलर की मंजूरी दे दी जो करीब 3500 करोड़ रुपए होता है। चिदंबरम ने यह मंजूरी क्यों दी इस पर जांच चल रही है। इधर करोड़ों रुपए के सारदा चिट फंड घोटाले की जांच की आंच चिदंबरम के घर तक पहुंच गई है। जांच के सिलसिले में सीबीआई ने पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी व सुपीम कोर्ट की वकील नलिनी चिदंबरम से पूछताछ की है। वैसे जांच एजेंसी खुलकर नलिनी से पूछताछ के बारे में नहीं बता रही लेकिन माना जा रहा है उनसे घोटाले के सूत्रधार सुदीप्त सेन से एक करोड़ रुपए फीस लेने के बारे में सवाल पूछे गए हैं। हालांकि नलिनी ने पूछताछ से इंकार करते हुए कहा कि जांच एजेंसी ने उनसे सिर्फ व्यावसायिक मुद्दों पर ही चर्चा की। दरअसल घोटाले के खुलासे के बाद सारदा ग्रुप पमुख सुदीप्त सेन ने सीबीआई निदेशक को एक पत्र लिखा था जिसमें बताया था कि कानूनी सलाह के लिए नलिनी चिदंबरम को एक करोड़ रुपए की फीस देनी पड़ी थी। सेन के अनुसार पूर्व केंद्रीय मंत्री मंगल सिंह की पत्नी मनोरंजना सिंह ने पूर्वेत्तर के एक टीवी चैनल के अधिग्रहण के कम में नलिनी से कानूनी सलाह लेने को कहा था। सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि कानूनी सलाह के लिए  इतनी ज्यादा फीस लेने के बारे में नलिनी चिदंबरम से शनिवार को चेन्नई में पूछताछ की गई। वहीं नलिनी का कहना है कि सीबीआई ने मुझसे कोई पूछताछ नहीं की। वहीं उड़ीसा में निवेशकों को करोड़ों रुपए का चूना लगाने वाली पोंजी कंपनी `अर्थ तत्व ग्रुप' के साथ कथित रूप से जुड़े होने के आरोप  में ओडिशा के पूर्व महाधिवक्ता अशोक मोहंती को सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया है। सूत्रों ने बताया कि मोहंती को कटक स्थित उनके निवास से गिरफ्तार किया गया है। हालांकि मोहंती ने दावा किया है कि अर्थ तत्व ग्रुप के सीएमडी पदीप सेठी से एक मकान खरीदने के अलावा उनका कंपनी से कोई लेना-देना नहीं है। जैसा मैंने कहा कि अब सत्ता परिवर्तन के साथ दबे हुए घोटालों में इन बड़े नेताओं की भूमिका का शायद पर्दाफाश हो जाए।

-अनिल नरेंद्र

इसरो की ऐतिहासिक सफलता है मिशन मंगल

बुधवार 24 सितम्बर की सुबह जब देश नींद की खुमारी से जाग रहा था तब भारत मंगल की दहलीज तक पहुंच चुका था। यह हर्ष और गौरव की बात है कि भारत दुनिया का पहला देश है जो अपने पहले ही पयास में ऐसा करने में सफल रहा। मंगल तक पहुंचने वाले अमेरिका, रूस और यूरोप कई कोशिशों के बाद ही मंगल की कक्षा का स्पर्श कर पाए थे। तीन साल पहले चीन भी ऐसी कोशिश में हार चुका है, इसलिए इस सफलता तक पहुंचने वाले हम पहले एशियाई देश हैं। पृथ्वी से मंगल की औसत दूरी करीब 22 करोड 50 लाख किलोमीटर है। इस दूरी को मंगलयान ने करीब 80 हजार किलोमीटर पति घंटे की रफ्तार से तय किया है। मंगलयान को पिछले साल 5 नवम्बर को 2 बजकर 36 मिनट पर इसरो द्वारा श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से रवाना किया गया था। इसे पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (पीएसएलवी) सी-25 की मदद से छोड़ा गया। इस पर 450 करोड़ रुपए की लागत आई है। यान का वजन 1350 किलो है। मंगलयान को  छोड़े जाने के बाद से इसकी यात्रा में सात करेक्शन किए गए ताकि यह मंगल की दिशा में अपनी यात्रा जारी रख सके। इस अभियान के पीछे भारत का मकमसद है कि इस मिशन के तहत स्पेस साइंस के मामले में अपना रुतबा कायम करना। हकीकत यही है कि अगर भारत इस मुहिम में कामयाब होता है तो उसे स्पेस साइंस के मामले में दुनिया में नया मुकाम हासिल हो जाएगा। मंगलयान के जरिए भारत मंगल ग्रह पर जीवन के सूत्र तलाशने के साथ ही वहां के पर्यावरण की जांच करना चाहता है। वह यह भी पता लगाना चाहता है कि इस लाल ग्रह पर मीथेन गैस मौजूद है या नहीं? मीथेन गैस की मौजूदगी जैविक गतिविधियों का संकेत देती है। इसके लिए मंगलयान को करीब 15 किलो वजन के कई अत्याधुनिक उपकरणों से लैस किया गया है। इसमें कई पवारफुल कैमरे भी शामिल हैं। मीथेन के अलावा और खनिजों के बारे में भी पता चल सकेगा। इससे उन कारणों का पता चल सकेगा कि जिनके चलते कभी जीवन के लिए अनुकूल यह ग्रह सूखे का शिकार बन गया। अगर हमारी पृथ्वी पर कभी ऐसा जीवन-चरण का खतरा आया तो क्या मंगल हमारी शरणस्थली बन सकता है। इंसान के अस्तित्व से सीधे जुड़े ऐसे गंभीर सवालों के जवाब मंगल ग्रह से जुड़े हैं। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि पिछले दिनों अंतरिक्ष अभियान पर हालीवुड में `ग्रेविटी' नामक एक फिल्म बनी थी जिसका बजट हमारे इस मंगल अभियान से दोगुना अधिक था। जो काम 4026 करोड़ रुपए लगाकर अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने किया वह हमने सिर्फ 450 करोड़ रुपए में कर दिखाया। गेविटी फिल्म की लागत भी 600 करोड़ थी। सस्ती लागत लेकिन विश्वसनीय गुणवत्ता वाला हमारा अंतरिक्ष उद्योग दुनिया के गरीब और विकासशील देशों के सपनों को साकार करने का साधन बनने की क्षमता रखता है। इस सफल अभियान का आर्थिक लाभ विदेशी सैटेलाइट लांच करने में मिलेगा। जाहिर है कि स्पेस बिजनेस के मामले में भी भारत कई छलांग लगा सकता है। वैसे अब भी भारत को विदेशी सैटेलाइट छोड़ने के, कई आर्डर मिल चुके हैं। इस अत्यंत महत्वपूर्ण सफलता पर इसरो व तमाम भारतीय वैज्ञानिकों को ढेर सारी बधाई। भारत के स्वर्णमय इतिहास में एक और उपलब्धि जुड़ गई है।

Wednesday, 24 September 2014

प्रशांत भूषण ने बुरी तरह फंसाया सीबीआई निदेशक सिन्हा को

2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले के आरोपियों से अपने सरकारी आवास पर मिलने के आरोप में  बुरी तरह फंसे सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा विवादित गेस्ट लिस्ट की खामियों से ही बचाव का रास्ता निकालने की कोशिश में हैं। इस दौरान यह आरोप सिन्हा पर लगाने वाली स्वयंसेवी संस्था सीपीआईएल ने सूचना देने वाले का नाम बताने से इंकार कर दिया है। संस्था ने व्हिसल ब्लोअर की सुरक्षा का हवाला देते हुए उसकी पहचान उजागर करने से इंकार कर दिया। हालांकि जनहित की दुहाई देते हुए कोर्ट से अनुरोध किया है कि रंजीत सिन्हा को 2जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच से अलग किया जाए। सीपीआईएल ने यह बात सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हल्फनामे में कही है। सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को तब तनावपूर्ण स्थिति बन गई जब सीबीआई डायरेक्टर के वकील के रवैये से बुरी तरह झल्लाए चीफ जस्टिस ने उन्हें कड़ी चेतावनी दे डाली। जजों ने सुनवाई 17 अक्तूबर के लिए टालते हुए कहा कि हम दोनों मामलों पर केंद्र सरकार का व्यू जानना चाहते हैं। रंजीत सिन्हा के खिलाफ अर्जी पर करीब डेढ़ घंटे की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के बीच तीखे शब्दों का इस्तेमाल हुआ। जांच एजेंसी के डायरेक्टर के वकील को तेज आवाज में आपत्तियां उठाकर और डायरेक्टर के खिलाफ दायर करने वाले याचिकाकर्ता को अपनी दलीलें पेश करने में व्यवधान डालकर इस प्रकरण की एक तरह से सुनवाई ठप कराने के लिए कोर्ट की फटकार भी सुननी पड़ी। गौरतलब है कि सीबीआई डायरेक्टर पर प्रशांत भूषण ने आरोप लगाया था कि उन्होंने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में संदिग्ध आरोपियों का फेवर किया और केस कमजोर किया। भूषण ने इसके लिए सीबीआई डायरेक्टर के घर के बाहर रखे विजिटर रजिस्टर में दर्ज नामों का हवाला दिया। उधर रंजीत सिन्हा ने घर की विजिटर डायरी की सत्यता व उसके स्रोत का खुलासा न करने पर सवाल खड़े करते हुए मुख्य न्यायाधीश के कोर्ट से भी अपने खिलाफ नोटिस रुकवा लिया। सिन्हा के वकील ने कहा कि विवादित डायरी के स्रोत का मामला जस्टिस एमएल दत्तू (सीजेआई चयनित) की कोर्ट में लंबित है। ऐसे में इस मुद्दे पर उनके फैसले के बिना कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। अटार्नी जनरल ने भी कहा कि कोर्ट को इस मामले को तीन हफ्ते के लिए स्थगित कर देना चाहिए। इस दौरान जस्टिस दत्तू की कोर्ट के रुख का भी पता चल जाएगा। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की तीन जजों की पीठ के समक्ष शुक्रवार को सिन्हा के वकील विकास सिंह ने कहा कि प्रशांत उस डायरी के बारे में बात कर रहे हैं जिसकी सत्यता पर एमएल दत्तू की पीठ प्रशांत भूषण से  जवाब मांग चुकी है। सीबीआई निदेशक को Šजी स्पेक्ट्रम मामले में 15 और कोयला घोटाला मामले में अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब देना है। सिन्हा अपनी पत्नी के साथ 8 से 17 अप्रैल तक इटली और वैटिकन सिटी की यात्रा पर थे, लेकिन गेस्ट लिस्ट में मुलाकात करने वालों की एंट्री को आधार बनाया जा सकता है। वकील प्रशांत भूषण की ओर से सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई कथित लिस्ट में वैसे कुछ लोगों के भी नाम मौजूद हैं जो उनकी अनुपस्थिति में सिन्हा के सरकारी आवास  गए और करीब दो घंटे का समय बिताया। यह हाई-प्रोफाइल केस है और सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन भी है, इसलिए इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती।

-अनिल नरेन्द्र

...और अब पाकिस्तान में भी पैदा हुआ एक पप्पू ः बिलावल भुट्टो

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के युवा अध्यक्ष, बेनजीर भुट्टो और आसिफ अली जरदारी के पुत्र बिलावल भुट्टो ने कश्मीर के बारे में एक ऐसा बयान दिया है कि वह हंसी के पात्र बन गए हैं। बिलावल ने शुक्रवार को मुल्तान में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि मेरी पार्टी भारत से पूरा का पूरा कश्मीर हासिल करेगी। मैं इसका एक इंच हिस्सा भी नहीं छोड़ूंगा। अन्य प्रांतों की तरह पूरा कश्मीर भी पाकिस्तान का हिस्सा है। हम उसे भारत से वापस लेकर रहेंगे। इस दौरान पूर्व पीएम यूसुफ रजा गिलानी और राजा परवेज मुशर्रफ भी उनके करीब मौजूद थे। लगता है कि अब पाकिस्तान को भी एक पप्पू मिल गया है। एक समय था कि बिलावल के नाना जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी कहा था कि पाकिस्तान हिन्दुस्तान से एक हजार साल तक जंग जारी रखेगा। दरअसल पाकिस्तानी नेताओं के सिर से कश्मीर का भूत उतरता नहीं दिख रहा है। ऐसा शायद इसलिए भी कि कट्टरपंथियों, आईएसआई और सेना की त्रिगुटी में फंसी वास्तविक सत्ता तक लोकतांत्रिक दल और सरकारें वैसी पकड़ नहीं बना पाईं जैसी भारत में है। जबकि कट्टरपंथी, आईएसआई और सेना का गठजोड़ भारत विरोधी विषवमन कर जनमानस को बरगलाए रखने के साथ ही निजी स्वार्थ साधने में कामयाब दिखता है। पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की कमान संभाल रहे उनके बेटे बिलावल ने कश्मीर पर यह विवादास्पद बयान देकर पाकिस्तान की सियासत पर पैठ जमाने का दांव खेला है। अनुभवहीनता और बचकानी हरकतों के लिए बिलावल पहले भी विवादों में रहे हैं। गौरतलब है कि पाक की राजनीति और सैन्य तैयारी भारत और कश्मीर के इर्द-गिर्द घूमती है। पाक सेना सरकार को अपने प्रभाव में रखने के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल करती है और सियासी दल भी कश्मीर मुद्दे को हवा देकर सत्ता में पहुंचने के लिए कसरत करते रहते हैं। नाना जुल्फिकार एक हजार साल लड़ने की बात करते-करते फांसी के फंदे पर लटक गए। मम्मी बेनजीर कश्मीर की आजादी की बात करते और इसे वापस लेने की बात करते हुए गोली का शिकार हो गईं। पीढ़ियां बदली हैं मगर मानसिकता नहीं। पाकिस्तान में अगला चुनाव अभी चार साल दूर है और विपक्ष के आंदोलन से पैदा गतिरोध के बाद बाढ़ से बेहाल इस मुल्क के बड़े हिस्से को राहत की जरूरत है। ऐसे में कश्मीर पर बोलने की बजाय अगर बिलावल मुल्क की बेहतरी के बारे में कुछ बोलते तो इससे उनकी परिपक्वता का पता चलता। पाकिस्तान के राजनीतिक दलों ने भी इस फॉर्मूले को अपना लिया है कि भारत के खिलाफ जहर उगलो और समर्थन जुटाओ। कभी-कभी तो भारत विरोधी बयानों की ऐसी होड़ लगती है कि मानो अपना पकौड़ा ज्यादा कुरकुरा साबित करके ही रहना है। बिलावल की इस तकरीर को बड़बोलेपन के सिवाय और क्या कहा जाए? बिलावल शायद यह भूल गए कि उनके नाना के बड़बोलेपन की वजह से पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) बन गया। बिलावल सत्ता से दूर हैं, उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि इस बार हिमाकत की तो अधिकृत कश्मीर की बारी है। कश्मीर का मुद्दा उठाकर वहां की जनता को लम्बे समय तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। यकीन है कि बिलावल के इस बयान को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया होगा।

Tuesday, 23 September 2014

Tread cautiously with china Beware of China’s double standard

 By Anil Narendra

It rarely happens in India that a head of state of a foreign country begins his visit from a city other than New Delhi. It was charisma of Prime Minister Narendera Modi that he attracted one the most powerful world leader Xi Jinping to Ahmedabad, Gujarat first. 
The way top leadership of India and China had had a happy swing in Ahmadabad and shown confidence in each other is not only worthy for Asia but for the whole world.
They way China had expectation from India, later too had hope from China. At the summit level meet Prime Minister Narendra Modi message was very clear and candid that two great developing nations cannot remain captive of status quo.
It was unfortunate that the day Jinping visited India, the troop of Chinese People's Liberation Army made incursion into Chumar in Ladakh sector of Jammu and Kashmir in India territory. Despite this provocation the two leaders remained committed to strengthening the relationship between the two neighbouring countries.
At the time when Chinese president was in India, more than 300 Chinese troops were inside Chumar and nearly 40 inside Demchuk in Indian Territory. Despite being head of Chinese’s defence forces president Xi Jinping might not be aware of these minor incursion, but his troops must be aware its President visit to India.   This time not only troops but Chinese civilians too were staring at us.  Obviously China is trying to test India’s new government with its double standard.
It is matter of satisfaction that it is getting proper reply from our side. We are happy that Prime Minister Narendra Modi had categorically conveyed to Chinese leader that development can not be expected without peace and tranquillity along the border.
It is for the first time that an India prime minister so categorically raised the issued of activities along border with Chinese leader.
Earlier only statements were issued for the formality. With full hospitality, PM Modi made Chinese leader fully aware of India’ concern.
Nine year ago both the countries had agreed to a mechanism that border skirmish did not led to a war and special representatives had been appointed for the purpose. But the recent activities along the border of Ladakh show that Chinese have forgotten the agreement.
Modi also raised the issue of pin up visa and disturbance on the river Barhamputra.
In fact border dispute between the two countries is the major hitch in the relation between the two countries. Despite several round of talks since 1990 actual line of control could not be demarcated yet. When Modi raised the issue Xi Jinping later too promised to resolved the issue at earliest.
We must know that today bilateral ties are not only strategic one but it is done on economic interest too.
China will invest $20 billion in India. During summit both the countries also signed 12 agreements including on five years economic and trade development plan and new route from Nathula to Kailash Mansarovar. This will also be usable during rains.
 An agreement on audio visual co-production, two documents on railways, another document on work plan for drug administration and an MoU on culture were exchanged between the two countries.
An MoU on peaceful use of outer space and a twinning agreement between Shanghai and Mumbai were also signed.
Japan had promised to invest $33 billion in India during Modi visit to that country. It was expected that China will invest more ion India but it promised to invest only $ 20 billion in five years.
It is also interesting that while China is looking for its interest in Indian sea India is looking its interest in South China Sea.
Interestingly at time when china signed an agreement on sea project in Sri Lanka, Indian President Pranab Mukharjee signed an agreement with Vietnam for oil exploration South China Sea.
Jinping postponed his visit to Pakistan, he had to go there too. It was also the subject of discussion. India should not forget that the very strong relationship between China and Pakistan.  Overall Jinping's visit to India was successful.
After the visit of  Chinese leader, the Prime Minister Modi has made his mark in the international diplomatic arena. Prime Minister Modi is making his place in world diplomacy. After his visit to Nepal, Bhutan Japan and Brazil and forthcoming visit to US, Narnerda Modi is going to become a world leader.

बाल विवाह बलात्कार से भी बदतर बुराई है, इसे समाज से खत्म होना चाहिए

देश में सामाजिक कुरीतियों की फेहरिस्त में  बाल विवाह एक बड़ा अभिशाप है। दुख से कहना पड़ता है कि इससे निजात पाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास फेल हो गए हैं। विडम्बना यह है कि तमाम कानूनों के चलते आए दिन बाल विवाह के मामले सामने आते ही रहते हैं। बाल विवाह को बलात्कार से भी बदतर बुराई बताते हुए दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि उसे समाज से पूरी तरह समाप्त होना चाहिए। उसने कम उम्र में बच्ची का विवाह करने के लिए लड़की के माता-पिता के विरुद्ध मामला दर्ज करने को कहा। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट शिवानी चौहान ने लड़की के माता-पिता द्वारा उसके पति और ससुराल वालों के खिलाफ दहेज प्रताड़ना के मामले की सुनवाई के दौरान यह निर्देश दिया। दहेज देना और लेना कानून के तहत दंडनीय अपराध है। अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि बाल विवाह रोकथाम कानून और दहेज निषेध कानून के उचित प्रावधानों के तहत 14 वर्षीय लड़की के माता-पिता और उसके ससुराल वालों के खिलाफ मामला दर्ज किया जाए। ससुराल वालों के खिलाफ घरेलू हिंसा का मामला पहले से ही दर्ज है। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कहाöबाल विवाह बलात्कार से भी बदतर बुराई है और इसे समाज से पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए। यदि सरकार जैसे पक्षकार इस तरह के अपराध करने वालों के खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं करेंगे, तो ऐसा करना संभव नहीं होगा। उन्होंने दक्षिण दिल्ली के पुलिस उपायुक्त को 19 अक्तूबर को प्रगति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश देते हुए कहा कि अदालत मूकदर्शक बने रहने और इस बुराई होते रहने देने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। अदालत ने लड़की के माता-पिता को भी आड़े हाथ लेते हुए कहा कि उन्होंने भी गंभीर अपराध किया है। अदालत ने कहा कि बाल विवाह के गंभीर नतीजे होते हैं। यह बच्चों के प्रति प्रतिवादियों (पति और उसके परिवार) द्वारा ही नहीं बल्कि उसके अपने माता-पिता द्वारा घरेलू हिंसा का वीभत्स रूप है। वास्तव में इस सामाजिक बुराई का खामियाजा एक अबोध बच्ची को ही नहीं बल्कि कालांतर में पूरे परिवार और अंतत समाज को भुगतना पड़ता है। बाल विवाह किसी भी बच्ची के जीवन में ऐसा स्याह पक्ष है, जिसका दंश उसे अपनी सेहत की बर्बादी के रूप में जीवनभर भोगना ही होता है, कच्ची उम्र में मां का दायित्व निभाने की जिम्मेदारी न होने के कारण वह अपने बच्चों के रूप में भविष्य के जिम्मेदार नागरिकों का निर्माण करने में भी अक्सर असफल होती हैं। विडम्बना यह है कि कानूनी प्रावधानों के बावजूद मूल रूप से गरीबी, अशिक्षा और लिंग भेद के कारण घर कर गई इस बुराई से यूनिसेफ भी चिंतित नजर आया है। उसकी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में होने वाले बाल विवाहों में 40 प्रतिशत अकेले भारत में होते हैं और 49 प्रतिशत बच्चियों का विवाह 18 साल से भी कम आयु में कर दिया जाता है। उसके अनुसार राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में बाल विवाह के मामले सबसे  ज्यादा आगे आते हैं। राजस्थान में तो 82 फीसदी बच्चियों का 18 साल से पहले ही विवाह कर दिया जाता है। यह समस्या अकेले कानूनों से दूर होने वाली नहीं, इसमें समाज की मानसिकता को भी बदलने की जरूरत है।

-अनिल नरेन्द्र

स्कॉटलैंड का नो अलगाववादियों के लिए एक सबक है

भारतीय महाद्वीप सहित दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रों को विभाजित करने वाला ब्रिटेन खुद टूटने से बाल-बाल बच गया। यदि सिर्प चार लाख स्कॉटिश नागरिक यानि लखनऊ के किसी मुहल्ले के बराबर आबादी के समान स्कॉटलैंड की आजादी के पक्ष में मतदान कर देते तो ग्रेट ब्रिटेन टूट जाता। स्कॉटलैंड ने ब्रिटेन के साथ रहने का फैसला किया है। आजादी के लिए कराए गए जनमत संग्रह में 55 फीसदी लोगों ने नो वोट दिया यानि वह इंग्लैंड से अलग नहीं होना चाहते। ब्रिटेन ही नहीं पूरे यूरोप की सांस इस बात पर अटकी पड़ी थी कि अगर स्कॉटलैंड अलग हो गया तो क्या होगा? यह पिछले काफी वक्त से लग रहा था कि पक्ष और विपक्ष की ताकत लगभग बराबर है, इसलिए आजादी चाहने वालों और इंग्लैंड के साथ रहने की राय रखने वालों का यह मुकाबला कांटे का है। दस दिन में ऐसे बदला यस को नो में। डेविड कैमरन (प्रधानमंत्री) की भावनात्मक अपील ने माहौल बदलने में मदद की। कैमरन मिलिबैंड और निक क्लिक ने स्कॉटलैंड को ज्यादा अधिकार देने के वचन पत्र पर हस्ताक्षर किए। एलिस्टेयर डार्लिंग के साथ ब्रिटिश मीडिया ने भी बैटर टु गेदर अभियान चलाया। महारानी एलिजाबेथ ने बहुत सोच-समझकर वोट देने की अपील की। युवाओं को ललचाया कि ब्रिटेन से आजाद होकर अपनी नौकरी, पेंशन, पाउंड, स्वास्थ्य सेवाओं और भविष्य को खतरे में मत डालो। अगर बहुमत ने अलगाव के पक्ष में वोट दिया होता तो यह ब्रिटिश साम्राज्य या यूनाइटेड किंग्डम की औपचारिक रूप से समाप्ति हो जाती। जिस साम्राज्य का किसी दौर में आधी दुनिया पर राज था और जिसके बारे में कहा जाता था कि उसके राज में सूर्य कभी नहीं डूबता, उस साम्राज्य की व्यवस्था का यह पूर्ण अंत होता। प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को इस बिखराव को होने से बचाने का श्रेय अवश्य जाता है। उन्होंने अपना बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था। यह जनमत संग्रह ब्रिटेन की श्रेष्ठता ग्रंथि को जवाब है जो दूसरों को कमतर करके आंकता है। स्कॉटलैंड में लंदन के खिलाफ गुस्सा नहीं पनपता अगर वह उसके आत्मसम्मान की कद्र करता। मारग्रेट थैचर के समय उनकी पार्टी स्कॉटलैंड में एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई थी, इसी प्रतिशोध में थैचर ने वहां सामुदायिक कर लगाने का फैसला लिया था। डेविड कैमरन की पार्टी के सिर्प एक सांसद स्कॉटलैंड से हैं। इसके बावजूद उसका तौर-तरीका वर्चस्ववादी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जनमत संग्रह का यह नतीजा ब्रिटिश निरंकुशता पर लगाम लगाने के साथ दुनियाभर के देशों के रवैये पर लचीलापन लाएगा। वैसे यह जनमत अपने आप में एक मिसाल भी है कि इस मुद्दे को किस तरह शांतिपूर्ण, तर्पसंगत तरीके से सुलझाया गया। भारत में जो लोग उग्र राष्ट्रवादी हैं और अनुदार हैं और जो अलगाववादी हैं उन सबके लिए इसमें सबक है। उग्र राष्ट्रवाद और अनुदार रवैये की वजह से अलगाववाद भी मजबूत होता है, लेकिन यह भी सच है कि अलगाव से अलग हुए देश के नागरिकों का भला हो ही, यह जरूरी नहीं। छोटे देश आर्थिक और सामरिक क्षेत्रों में दूसरी ताकतों पर निर्भर रहते हैं और अक्सर ऐसी ताकतों के खेल का हथियार बन जाते हैं। स्कॉटलैंड के लोगों ने बहुत परिपक्व रिस्पांस दिया है। दोनों स्कॉटलैंड और ब्रिटेन बधाई के पात्र हैं।

Sunday, 21 September 2014

याद रहे चीन के दो चेहरे हैं, दोस्ती करो पर सावधानी से

ऐसा भारत के इतिहास में कम ही हुआ है जब किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष अपनी भारत की यात्रा किसी अन्य भारतीय शहर से करे। मैं  बात कर रहा हूं चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जिन्होंने अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण भारत यात्रा अहमदाबाद से शुरू की। आम तौर पर कोई भी राष्ट्राध्यक्ष जब भारत यात्रा पर आता है तो वह सबसे पहले नई दिल्ली आता है पर यह नरेन्द्र मोदी का करिश्मा ही है जिन्होंने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के अध्यक्ष को सबसे पहले अहमदाबाद आने के लिए तैयार कर लिया। भारत और चीन के शीर्ष नेतृत्व ने जिस तरह अहमदाबाद में झूला झूला उससे एक-दूसरे के प्रति विश्वास जताया है वह एशिया के ही लिए नहीं पूरे विश्व के लिए महत्वपूर्ण है। जिस तरह चीन को भारत से तमाम उम्मीदें हैं उसी तरह भारत को भी उससे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का शिखर बैठक में संदेश बहुत साफ था। दुनिया के दो सबसे बड़े विकासशील देशों के नेता द्विपक्षीय संबंधों में यथास्थिति को बनाए नहीं रखना चाहते। बावजूद इसके कि जिनपिंग की यात्रा के दौरान लद्दाख के चुमार सेक्टर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के घुस आने से तनाव बना हुआ है, दोनों नेताओं ने आपसी रिश्तों को मजबूत करने की प्रतिबद्धता जताई। जिस दिन जिनपिंग दिल्ली आए थे उसी समय लेह के चुमार में चीनी सैनिक दो किलोमीटर अंदर घुसे हुए थे। चीनी सैनिक चुमार में तीन सौ की संख्या और डेमचोक में करीब 40 चीनी सैनिक भारत की धरती पर मौजूद थे। सेना के सर्वोच्च कमांडर होने के बावजूद हो सकता है कि चीनी राष्ट्रपति को सीमा पर घट रही इन छोटी-मोटी घटनाओं की जानकारी न हो लेकिन उनकी सेना के लोगों को तो अपने राष्ट्रपति के इस दौरे की जानकारी यकीनन ही रही होगी। इस बार तो चीनी सेना के गले में बाहें डाले उसके नागरिक भी हमें आंखें दिखाने साथ चले आए हैं। जाहिर है कि चीन अपने इन दोनों चेहरों के साथ भारत की नई सरकार को टटोलने की कोशिश कर रहा है। संतोष की बात है कि उसे हमारी ओर से सटीक जवाब मिल रहा है। हमें इस बात की खुशी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट शब्दों में जिनपिंग से कहा कि सीमा पर शांति के बिना विकास की कल्पना कैसे की जा सकती है। यह पहली बार था जब भारत के किसी प्रधानमंत्री ने चीनी राष्ट्रपति को इतने खुले शब्दों में सीमा पर चल रही चीनी गतिविधियों का मुद्दा उठाया है। इससे पहले दो लाइनों का औपचारिक बयान आ जाता था और रस्म पूरी कर ली जाती थी। शी जिनपिंग और नरेन्द्र मोदी की बातचीत के बाद संयुक्त विज्ञप्ति की जगह दोनों नेताओं का अपना अलग बयान पढ़ना रिश्तों में पेच की कहानी बता रहा था। नरेन्द्र मोदी ने मेहमाननवाजी का पूरा सम्मान रखते हुए बेहिचक देश की तमाम चिंताओं को चीनी राष्ट्रपति के सामने उढेल कर रख दीं। सीमा पर नियमित रूप से होने वाली ऐसी उकसाऊ हरकतें कहीं लड़ाई वाले हालात न बना दें, इस पर नियंत्रण के लिए दोनों देशों के बीच नौ साल पहले बाकायदा समझौता हुआ था और इस पर विशेष प्रतिनिधियों को लगाया भी गया था। वक्त के साथ चीन इसे कैसे भूलता गया, लद्दाख की ताजा घुसपैठ उसका उदाहरण है। भारतीय नागरिकों को नत्थी वीजा देकर भारत की संप्रभुता पर सवाल खड़ा करने और ब्रह्मपुत्र नदी से छेड़छाड़ कर भारत के लिए समस्या खड़ी करने जैसे गंभीर मुद्दों पर चिंता जताने से भी मोदी नहीं चूके। दरअसल दोनों देशों के रिश्तों की राह में सीमा संबंधी मामला सबसे बड़ा रोड़ा है और हकीकत यह है कि 1990 के दशक से कई दौर की बातचीत के बावजूद वास्तविक नियंत्रण रेखा का निर्धारण नहीं हो सका। मोदी ने जब यह मसला उठाया तो जिनपिंग ने इसे जल्दी सुलझाने का वादा किया। यह समझने की जरूरत है कि द्विपक्षीय संबंध अब सिर्प सामरिक ही नहीं बल्कि आर्थिक हितों के आधार पर तय होते हैं। चीन फिलहाल भारत में 20 अरब डॉलर का निवेश करेगा। शिखर वार्ता में दोनों देशों के बीच 12 समझौते हुए जिनमें पांच साल के आर्थिक प्लान पर हुआ करार बेहद अहम है। कैलाश यात्रा के लिए नया रूट, आडियो-वीडियो मीडिया, रेलवे के आधुनिकीकरण, अंतरिक्ष, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में सहयोग को लेकर भी समझौता हुआ। मुंबई को शंघाई की तरह विकसित करने में चीन मदद करेगा और गुजरात तथा महाराष्ट्र में दो इंस्ट्रीयल पार्प बनाएगा। जाहिर है कि भारत के तेज विकास और आधुनिकीकरण में चीन की अहम भूमिका होगी। निश्चय ही इसका लाभ चीनी इकॉनिमी को भी मिलेगा। हालांकि मोदी की जापान यात्रा जिसमें उन्हें 33 अरब डॉलर के निवेश का भरोसा मिला, के बाद जिनपिंग की भारत यात्रा को लेकर कयास थे कि चीन से भारत को भारी-भरकम निवेश मिल सकता है। इसके उल्टे जिनपिंग की मौजूदगी में हुए समझौतों के तहत अगले पांच वर्षों में भारत में सिर्प 20 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा से थोड़ी मायूसी जरूर हुई। गौर करने की बात यह भी है कि चीन जहां हिन्द महासागर में अपने हित देख रहा है वहीं भारत दक्षिण चीन सागर में अपने। यह संयोग नहीं है कि जिनपिंग भारत आने से पहले श्रीलंका से होकर आए हैं जहां उन्होंने भारतीय सीमा से महज दो सौ किलोमीटर दूर एक समुद्री परियोजना में निवेश की मंजूरी दी तो भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी वियतनाम के साथ दक्षिणी चीन सागर में तेल की संभावनाएं तलाशने के लिए करार कर लौटे हैं। पाकिस्तान के सियासी हलकों और पाक मीडिया  की जिनपिंग की यात्रा पर नजरें टिकी हुई थीं। जिनपिंग ने अपनी पाकिस्तान यात्रा स्थगित कर दी, उन्हें वहां भी जाना था। यह भी चर्चा का विषय बना हुआ था। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन और पाकिस्तान के बीच बहुत मजबूत रिश्ते हैं। चीन के सरकारी मीडिया और विदेश मंत्रालय ने साफ कर दिया है कि जिनपिंग के पाक दौरे को आगे बढ़ाया गया है और इसकी तिथियां फिर से तय होंगी। कुल मिलाकर शी जिनपिंग की भारत यात्रा सफल रही। भारत के प्रधानमंत्री ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक क्षेत्र में अपनी पहचान बना ली है। नेपाल, जापान, आस्ट्रेलिया, चीन और थोड़े दिनों में अमेरिका की यात्रा पर जाने वाले नरेन्द्र मोदी अब सही मायनों में वर्ल्ड नेता बन गए हैं। बेशक चीन से सीमा मुद्दे पर सहमति न हुई हो पर आर्थिक क्षेत्रों में मोदी ने सफलता जरूर पाई है।

-अनिल नरेन्द्र

Saturday, 20 September 2014

गंदगी फैलाने वालों पर कार्रवाई करने की एमसीडी की पहल

दिल्ली की दशा सुधारने के लिए प्रस्तावित सैनिटेशन बायलॉज को लागू करने के लिए 1957 में  बनाए गए निगम एक्ट में संशोधन किया जाएगा। यह इसलिए जरूरी है कि इसे लागू करने में निगम एक्ट आड़े आ रहा है। इस पूरी व्यवस्था को देख रहे नगर निगम दक्षिणी के आयुक्त मनीष गुप्ता का कहना है कि मामले को उपराज्यपाल के सामने रखा गया है। महामहिम ने निगम एक्ट में संशोधन की बात को स्वीकार कर लिया है और इसके लिए शीघ्र ही एक प्रस्ताव उपराज्यपाल को भेजा जाएगा। फिर इसे स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार के पास भेजा जाएगा। गंदगी फैलाने, सार्वजनिक स्थानों पर थूकने, पेशाब या शौच करने वालों को अब राजधानी में भारी जुर्माना देना होगा। ऐसा नहीं करने पर जेल की भी हवा खानी पड़ेगी। इसके लिए दिल्ली में सैनिटेशन बायलॉज लागू करने के लिए नगर निगम गंभीर है। आदेशों के पालन कराने के लिए निजी कंपनियों के माध्यम से न्यूसेंस डिटेक्टर तैनात रहेंगे। इन लोगों का काम उसी तरह का होगा जिस तरह से यातायात पुलिस अपना काम करती है। निगम ने 2012 में दिल्ली सरकार के पास सैनिटेशन बायलॉज को स्वीकृति के लिए भेजा था। उस समय थूकने व सार्वजनिक स्थानों पर पेशाब करने के लिए दो सौ रुपए जुर्माने का प्रस्ताव भेजा गया था। मगर अब निगम ने इसे बढ़ाकर पांच सौ रुपए कर दिया है। मुंबई में कुछ वर्ष पूर्व ही सैनिटेशन बायलॉज लागू किए जा चुके हैं। सार्वजनिक स्थल के लिए सैनिटेशन बायलॉज में जो प्रावधान होंगे वह हैंöथूकने पर पांच सौ रुपए जुर्माना। पेशाब करने पर पांच सौ रुपए जुर्माना। कूड़ा फेंकने पर 200 रुपए जुर्माना, कार धोने पर एक हजार रुपए जुर्माना। शौच करने पर एक हजार रुपए जुर्माना। कुत्ते को सार्वजनिक स्थल पर शौच कराने पर 500 रुपए जुर्माना। सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने पर दो सौ रुपए जुर्माना। घर के आगे कूड़े की पॉलीथिन फेंकने पर 500 रुपए जुर्माना और खतरनाक कचरे को अलग नहीं रखने पर 10 हजार रुपए तक का जुर्माना प्रस्तावित है। नॉर्थ एमसीडी ने अपने अधीन क्षेत्रों को साफ-सुथरा रखने के लिए तो कड़ा रुख अख्तियार करना भी शुरू कर दिया है। गंदगी फैलाने के लिए आम लोगों पर तो कार्रवाई हो ही रही है। अब एमसीडी ने सरकारी एजेंसियों पर भी कार्रवाई का मन बना लिया है। सरकारी एजेंसियों पर कार्रवाई बाकायदा प्रूफ यानि सुबूतों के साथ की जाएगी। एमसीडी के इस तरह से एक्टिव होने का कारण 100 दिन का सफाई अभियान है जो कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर नॉर्थ एमसीडी ने शुरू किया है। नॉर्थ एमसीडी के मेयर योगेन्द्र चांदोलिया ने कहा कि दिल्ली को साफ-सुथरा रखने के लिए जो भी करने योग्य काम होंगे एमसीडी जरूर करेगी। इसके लिए हमें सख्ती बरतनी पड़ेगी, तो वह भी हम करेंगे। हम एमसीडी द्वारा इस सफाई अभियान का समर्थन करते हैं पर एक दिक्कत नजर यह आती है कि कानून तो बन जाएगा पर इसे लागू करना इतना आसान नहीं होगा। जरूरत इस बात की भी है कि दिल्लीवासियों को यह सोचने पर मजबूर किया जाए कि यह उनके हित में ही है कि वह दिल्ली को साफ-सुथरा बनाने में मदद करें।

-अनिल नरेन्द्र

आईएस की बढ़ती बर्बरता और ताकत से कैसे निपट़ें

दो अमेरिकी पत्रकारों के बाद अब इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने तीसरे बंधक ब्रिटिश नागरिक और सामाजिक कार्यकर्ता डेविड हैंस की हत्या कर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी पर दबाव बनाने की कोशिश की है। यदि यह खबर सही है कि उसके कब्जे में अब भी 24 से अधिक पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और अन्य लोग हैं तो यह वाकई सभी के लिए एक चिंता की बात है। यह अलग बहस का विषय हो सकता है कि इराक और सीरिया की वर्तमान दुर्दशा में अमेरिका और उसके गठबंधन साथियों की कितनी भूमिका है लेकिन इस्लामिक स्टेट (आईएस) द्वारा खिलाफत (इस्लामिक राज्य) की स्थापना और जिस बर्बरता का प्रदर्शन वह कर रहे हैं उसे रोकना और उसके खिलाफ सैन्य कार्रवाई जरूरी हो गई है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ब्रिटेन के मानवीय सहायता कर्मी डेविड हैंस की जघन्य और कायराना हत्या किए जाने पर इस आतंकी समूह आईएस की कड़ी निंदा की है और कहा है कि इस संगठन को हराया जाना चाहिए तथा उसके द्वारा अपनाई गई हिंसा को उखाड़ फेंका जाना चाहिए। 15 सदस्यीय परिषद ने एक बयान में कहा कि यह अपराध याद दिलाता है कि सीरिया में मानवीय सहायता कर्मियों के लिए हर रोज खतरा बढ़ रहा है। यह एक बार फिर आईएस की बर्बरता को दिखाता है जो हजारों सीरियाई और इराकी लोगों के खिलाफ अपराधों के लिए जिम्मेदार है। आईएस लगातार अमेरिका सहित तमाम देशों को जिस तरह चुनौती दे रहा है उससे अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी उसके खिलाफ कार्रवाई करने पर मजबूर है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 9/11 की बरसी पर कहा कि अमेरिका आईएस को पूरी तरह से मिटाकर ही दम लेगा। उन्होंने कहा कि जो देश अमेरिका के लिए खतरा बनेगा, उसका नामोनिशान मिटा दिया जाएगा। अपने भाषण में उन्होंने इराक और सीरिया में आईएस के खिलाफ बड़े सैन्य अभियान का ऐलान भी किया। जिसमें सीरिया में अमेरिकी हवाई हमले और इराक में 475 से ज्यादा सैन्य सलाहकारों की तैनाती भी शामिल है। विडम्बना यह भी है कि अमेरिका में बराक ओबामा की सियासी हैसियत पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर द्वारा अफगानिस्तान और इराक में छेड़े गए युद्धों का विरोध करते हुए बनी थी। इराक से अमेरिकी सैनिकों की वापसी को उन्होंने बड़ी उपलब्धि बताया था। अफगानिस्तान से इस वर्ष के अंत तक उनके देश के फौजी लौटने वाले हैं। इस बीच खिलाफत का खतरा उठ खड़ा हुआ। दो अमेरिकी पत्रकारों की बर्बर हत्या के बाद उनके देश में एक बार फिर जज्बाती माहौल बना और इस्लामी चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग तेज हो गई। नतीजतन ओबामा को यह फैसला लेना पड़ा जो संभवत वे नहीं लेना चाहते थे। इस बीच आईएस के खिलाफ आगे की रणनीति तय करने के लिए पेरिस में एक अहम बैठक हुई जिसमें 10 अरब सुन्नी देशों सहित 30 से अधिक देश शामिल हुए। यह भी विडम्बना ही है कि पिछले तीन वर्षों से अमेरिका सीरिया राष्ट्रपति बशर अल असद को हटाने की मुहिम में जुटे लड़ाकों की मदद करता रहा है जबकि आईएस पर कार्रवाई का लाभ अल असद को भी मिलेगा। अमेरिका के लिए तो इधर पुंआ है तो उधर खाई। देखें, आगे क्या स्थिति बनती है?

Friday, 19 September 2014

Is by poll results hint of the end of Modi wave?

Ani Narendra

Riding on Narendra Modi wave to reach the throne of Delhi, BJP has been shown a reflection of shock by the people in recent by polls. Though, these results usually do not reflect the full picture of the future but they serve as an indicator for the winning or losing political parties. From the results of by election held for three Parliament and 33 Assembly seats the party which needs to learn a lesson is the BJP. Even in many areas where BJP won tremendously in the last general elections, this time it had to face a defeat in Assembly by elections. 
Particularly in Uttar Pradesh where the party failed to save the seats vacated by its own members should be a major cause of concern for BJP. Moreover, the results are a testimony to the fact that the Parliament election results of the states were more in the favor of Narendra Modi than the BJP. In the Parliament elections, BJP had won all the 25 seats in Rajasthan and earlier to that the Congress was decimated in the Rajasthan Assembly elections. This time, Congress has won three out of four assembly seats and the BJP has been able to get only one seat in Rajasthan. It is true that the recent and earlier held elections are not an examination for Modi government, but it was also not expected that the opposition party is going to succeed in getting maximum number of seats in comparison to the BJP.
First in Uttrakhand and then in Bihar, the same has happened in Rajasthan as well as in Gujarat. From these results, one thing is clear that people voted in different pattern while voting for Parliament and Assembly elections. In the Parliament elections, Narendra Modi’s name as a contender for PM’s post was the main reason behind the people voting for BJP and due to this many local issues and patterns were ignored by them. Whereas in these by elections, Narendra Modi was not an issue  as these by elections would in no way have affected his remaining in power as prime minister therefore voters have given much more importance to the other concerns than Modi which resulted in the loss to the party. It would not be incorrect to say that in these by election Modi factor was the main issue. If BJP has won the Parliament elections due to the image of Modi then it would not be wrong to say that this time BJP has lost due to the falling image of Modi.
The ego of various BJP leaders has also resulted in heavy loss to the party. Today BJP workers are frustrated and dispirited and have not come out of their homes. Elections are usually won more on the performance of the grass root workers rather than the leaders, but after coming to power, the BJP leaders seems to be on the seventh sky where workers cannot reach, therefore the workers also teach you a lesson.
BJP opponents can interpret this win in by polls in whatever way they wish but they should not get carried away by this win and should avoid saying that we have gained by the disillusionment of the public with the Modi Government. Similarly, BJP has to refrain from saying that it is a fact that election results are always in the favor of the ruling party in the state. Rajasthan is a glaring example of this reverse trend. Gujarat is also showing a similar picture. But in Uttar Pradesh, circumstances were totally different as it was not expected that BJP is going to lose its eight seats to Samajwadi Party whose administration was universally being criticized. 
However, there is cheering news for the party from West Bengal. By winning one out of two assembly seats in West Bengal party has been successful in giving a hint that it is the main political force against Mamta Banerjee. If we talk about non BJP camp then SP’s success in Uttar Pradesh is very beneficial and has not only been able to win eight out of eleven Assembly seats but it has also been able to maintain its hold on Manpuri. With this victory SP not only been able to revamp its lost image in Parliament elections but it has been able to prove its overwhelming lead over BJP. 
As far as congress is concerned, for it Rajasthan results will work as rejuvenating force, similarly party considers win on three seats in Gujarat as significant. It is stated with pain that the strategy adopted by the party for the by polls became the reason of its loss. Ironically, how its leaders forgot that that the reason for its thumping win was the developmental issues rather than emphasizing on Love-Jihad type issues. 
But it is typical of any by elections, the winners claim that these results are a mandate against the opposition but the losers demean these results by trying to blame the local issues for the loss.
However, the picture of politics will get clearer with the outcome of Maharashtra and Haryana Election which are likely to come in the next month. Till then there will be more discussions on the Assembly results. But it is clear that Narendra Modi and BJP Leadership would have to change their conduct in order to win elections in future.

गडकरी का आश्वासन रामसेतु किसी हालत में नहीं टूटेगा, का स्वागत है

हम मोदी सरकार द्वारा इस आश्वासन का स्वागत करते हैं कि रामसेतु किसी हालत में नहीं टूटेगा। सरकार के सौ दिन के कामकाज पर अपने मंत्रालय की उपलब्धियां गिना रहे केंद्रीय जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि रामसेतु के प्राचीन ढांचे को किसी भी हालत में तोड़ने की इजाजत नहीं दी जाएगी। हालांकि उन्होंने कहा कि सेतु समुद्रम केनाल प्रोजैक्ट के लिए वैकल्पिक मार्ग बनाने के उपाय अवश्य किए जाएंगे। इस संबंध में अध्ययन की जिम्मेदारी राइट्स को सौपी गई थी जिसने अपनी रिपोर्ट दे दी है। एक महीने के भीतर कैबिनेट बैठक में फैसला लिया जाएगा। इससे पहले केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन सेतु समुद्रम के मुद्दे पर पुरजोर शब्दों में ऐलान किया था कि किसी भी सूरत में रामसेतु (सेतु समुद्रम) को तोड़ा नहीं जाएगा। नितिन गडकरी ने लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान कहा कि हम किसी भी हालत में रामसेतु को नहीं तोड़ेंगे। उन्होंने कहा कि यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है और इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। उच्चतम न्यायालय में इस मुद्दे पर हम ऐसा सुझाव देंगे जो सभी संबंधित पक्षों को मान्य होगा। गडकरी ने कहा कि इस मामले को देखने के लिए वह तमिलनाडु का दौरा करेंगे। प्रस्तावित सेतु समुद्रम शिपिंग केनाल प्रोजैक्ट केंद्र सरकार की परियोजना है जिसमें इस क्षेत्र को बड़े पोतों के परिवहन योग्य बनाना और साथ ही तटवर्ती इलाको में मत्स्य और नौवहन बंदरगाह स्थापित करना है। सेतु समुद्रम परियोजना के जरिये समुद्र में नया रास्ता बनाने की तैयारी थी। इसके लिए पाक वे और मन्नार की खाड़ी के बीच समुद्र में खुदाई कर नया रास्ता बनाया जाना था। इसके लिए रामसेतु को तोड़ा जाना था। हिन्दू शास्त्राsं के मुताबिक रामसेतु का निर्माण नल और नील की मदद से भगवान राम ने रावण विजय अभियान के तहत अपनी वानर सेना को समुद्र पार करने के लिए किया था। करोड़ों भारतीयों की इस पत्थरों के रास्ते  में आस्था जुड़ी हुई है। कोई भी भारतीय जो भगवान राम को मानता है, भगवान हनुमान को मानता है वह कभी बर्दाश्त नहीं करेगा कि इस पौराणिक पुल को तोड़ा जाए। यह तो रावण वंशज (द्रमुक) की चाल थी हिन्दुओं को अपमानित करने की और यूपीए सरकार भी अपने गठबंधन को बचाने के लिए द्रमुक की मांग मान गई। दरअसल द्रमुक नेताओं को इस परियोजना से करोड़ों रुपए का फायदा होता। वह अपने लालच में इस ऐतिहासिक महत्व के पुल को तोड़ने पर आमादा थे। मामला उच्चतम न्यायालय में चल रहा है। उम्मीद करते हैं कि केंद्र सरकार अपने स्टैंड पर अडिग रहेगी और इस परियोजना को प्रस्तावित रूप में जो तोड़ने की योजना है वह समाप्त हो जाएगी और वैकल्पिक रास्ता निकाला जाएगा। मगर इस परियोजना के पीछे कौन है और क्यों है तो मामला साफ हो जाएगा। यह करोड़ों भारतीयों खासकर हिन्दुओं की आस्था से जुड़ा है। हमारा तो मानना है कि गडकरी ने सही स्टैंड लिया है और इस पर मोदी सरकार और गडकरी कायम रहेंगे। जय श्रीराम।

-अनिल नरेन्द्र

ब्रिटेन टूटने की कगार पर, स्काटलैंड अलग होने पर उतारू

एक जमाना था जब ग्रेट ब्रिटेन का झंडा आधी दुनिया में छाया रहता था। अंग्रेज कहते थे कि हमारे राज में सूरज कभी नहीं डूबता। आज यूके लगभग टूट चुका है। इंग्लैंड, वेल्स और स्काटलैंड को मिलाकर बनता है ग्रेट ब्रिटेन। कई दशकों से कुछ नेशनलिस्ट मांग कर रहे हैं कि स्काटलैंड को एक आजाद देश होना चाहिए क्योंकि स्काटलैंड की अलग सभ्यता और संस्कृति है, अलग पहचान है। वे लोग मानते हैं कि संस्कृति (कल्चर) और एजुकेशन में उसका लेवल इंग्लैंड से पीछे नहीं बल्कि आगे है। कुछ बरस  पहले यूनेस्को ने पहली `सिटी ऑफ लिटरेचर' चुना तो स्काटलैंड की राजधानी ने लंदन और ऑक्सफोर्ड को पीछे छोड़ दिया। स्काटलैंड पहले आजाद देश था। 1603 में वेल्स और स्काटलैंड ने इंग्लैंड के साथ मिलकर एक नया देश बनाया जाना मंजूर किया था। 1707 में स्काटलैंड इंग्लैंड में शामिल हुआ और नए राज्य को यूनाइटेड किंग्डम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन नाम दिया गया। पिछले कई वर्षों से स्काटलैंड में आजादी की मांग जोर से उठने लगी। अब स्काटलैंड में एक जनमत संग्रह होने जा रहा है जो तय करेगा कि स्काटलैंड ब्रिटेन में रहेगा या नहीं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने स्काटलैंड की जनता से जनमत संग्रह में  ब्रिटेन में बने रहने का विकल्प चुनने की अपील की है। उन्होंने कहा कि 307 साल से चले आ रहे इस गठजोड़ को तोड़ने से सभी को नुकसान होगा। कैमरन ने यह वादा भी किया कि ब्रिटेन को एक साथ रखने के लिए उनकी सरकार से जो भी बन पड़ेगा वह करेंगे। प्रधानमंत्री ने कहा कि वह स्काटलैंड जाकर एकता के लिए अभियान चलाएंगे। उन्होंने कहा कि मैं इस समय संसद में बैठने के  बजाय  स्काटिश जनता के बीच जाकर सुनना चाहता हूं। वह हमारे साथ रहें या न रहें, इसका फैसला उन्हें करना है। मगर मैं  ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें पूरे देश की जनता की आवाज पहुंचाऊंगा कि हम चाहते हैं कि वह हमारे साथ रहें। यदि स्काटलैंड की जनता आजादी के पक्ष में मतदान करती है तो कैमरन के पद पर भी आंच आएगी। देश को एक रखने की मुहिम में पूर्व पीएम और मूल रूप से स्काटिश नेता गार्डन ब्राउन भी उतर आए हैं। उन्होंने स्काटलैंड की संसद को दी जाने वाली नई ताकतों के लिए समयसीमा का ऐलान किया। इस बीच सांसदों के एक दल ने महारानी एलिजाबेथ द्वितीय से दखल देकर देश को टूटने से बचाने की अपील की है। 18 सितम्बर को 40 लाख से ज्यादा स्काट तय करेंगे कि वे इंग्लैंड के साथ रहना चाहते हैं या नहीं? हालांकि ब्रिटेन ने स्काटलैंड को धमकी भी दी है कि अगर वह अलग होगा तो उसका ब्रिटेन के साथ आर्थिक संबंध भी खत्म हो जाएगा। अगर स्काटलैंड ब्रिटेन से अलग होने के लिए मतदान करता है तो यह ब्रिटेन के लिए एक बहुत बड़ा झटका होगा। जैसे मैंने कहा कि वह माइटी ब्रिटिश एम्पायर जहां सूरज कभी नहीं डूबता था छिन्न-भिन्न होकर सिकुड़ती जा रही है। देखें स्काटलैंड की जनता ब्रिटेन के साथ रहती है या नहीं?

Thursday, 18 September 2014

सीटों के बंटवारे पर भाजपा-शिवसेना में टकराव

राजग के दो सबसे पुराने घटक दलों शिवसेना और भाजपा के बीच महाराष्ट्र विधानसभा सीटों के बंटवारे व मुख्यमंत्री पद को लेकर रार बढ़ती दिखाई दे रही है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से ठीक एक महीने पहले सीट बंटवारे को लेकर तनातनी चिंताजनक है। शनिवार को शिवसेना के मुख पत्र सामना ने अपने संपादकीय में लिखा है कि ज्यादा लालच करने से रिश्ते टूट जाते हैं। यह दरअसल अपने सहयोगी भाजपा पर कटाक्ष था जो इस बार ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है जबकि शिवसेना इसके लिए राजी नहीं है। क्योंकि अब तक शिवसेना महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका में रही है। महाराष्ट्र विधानसभा में 288 सीटें हैं। 2009 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना लड़ी थी 169 सीटों पर और उसके हाथ आई थीं 44 सीटें जबकि भाजपा लड़ी थी 119 और उसके उम्मीदवार 46 सीटों पर जीते थे। इस बार शिवसेना चाहती है कि गठबंधन की चार अन्य पार्टियों राष्ट्रीय समाज प्रकाश, शिव संग्राम पार्टी, शेतकारी संगठन और रामदास अठावले की आरपीआई पार्टी को 18-20 सीटें भाजपा अपने कोटे से दे जबकि भाजपा का कहना है कि पहले इन पार्टियों को एडजस्ट किया जाए और जो बाकी बची सीटें हैं उनमें आधी-आधी सीटों पर शिवसेना और भाजपा लड़े। शिवसेना इसके लिए तैयार नहीं। शनिवार को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने एक टीवी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर करते हुए जनता से एक मौका देने की अपील कर यह भी बता दिया कि झगड़ा सिर्प सीटों के बंटवारे का ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री पद के लिए भी है। उद्धव ठाकरे ने कहा कि 15 अक्तूबर को होने वाले चुनाव में यदि भगवा गठबंधन सत्ता में आया तो महाराष्ट्र में शिवसेना का ही मुख्यमंत्री होगा। उद्धव ने कहा था कि यह लोगों को तय करना है कि क्या वह मुझ पर भरोसा करते हैं। वह तय करेंगे कि चेहरा (मुख्यमंत्री) कौन हो जबकि भाजपा के प्रभारी राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि चुनावों से पहले इस तरह (मुख्यमंत्री पद के  बारे में) का बयान नहीं देने की अपेक्षा की जाती है। चुनाव के बाद यह मुद्दा तय किया जाएगा। दरअसल कटु सत्य तो यह है कि स्वर्गीय प्रमोद महाजन और स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे के  बाद महाराष्ट्र भाजपा में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया  है कि अभी तक भाजपा उससे संभल नहीं पाई। नतीजा यह है कि अभी तक भाजपा यह तय नहीं कर पाई कि महाराष्ट्र विधानसभा में उसका नेता कौन होगा? मुख्यमंत्री किसको बनाएगी। कुछ राज्यों में विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को धक्का लगा है। इससे हम समझते हैं कि महाराष्ट्र में सीटों के बंटवारे को लेकर भी फर्प पड़ेगा। भाजपा केवल मोदी लहर पर भरोसा कर रही है और मोदी लहर अब धीमी पड़ती नजर आ रही है। दोनों दलों के गठबंधन की शुरुआत से ही यह फॉर्मूला चला आ रहा है कि विधानसभा चुनाव में जिस दल को अधिक सीटें मिलेंगी वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार होगा। इसी दावे को मजबूत करने के लिए शिवसेना स्वयं 169 सीटों पर लड़कर भाजपा को 119 सीटें देती रही है। उद्धव ठाकरे का कहना है कि महाराष्ट्र में मोदी लहर नहीं चलने वाली। यह बिल्कुल हो सकता है कि भाजपा की स्थिति महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में वह न रहे जो लोकसभा चुनाव के समय थी। शिवसेना के आक्रामक रवैये से हैरत में आई भाजपा ने भी रविवार को पलटवार करते हुए कहा कि विधानसभा चुनाव में जीत होने की स्थिति में अगली सरकार भाजपा के नेतृत्व में बनेगी। घोटालों और भारी मतभेदों के कारण बदनाम हो चुकी राज्य की कांग्रेस-एनसीपी सरकार को भाजपा के साथ मिलकर सत्ता से बाहर करने का सुनहरा मौका है अगर जल्द भाजपा-शिवसेना का यह सीटों पर विवाद समाप्त हो। अब ज्यादा समय नहीं बचा। कहीं ऐसा ही न हो कि पानी सिर से गुजर जाए और जीती हुई पारी हार में बदल जाए?

-अनिल नरेन्द्र

क्या मोदी लहर की समाप्ति का संकेत है उपचुनावों के परिणाम?

नरेन्द्र मोदी लहर पर सवार होकर दिल्ली की गद्दी पर पहुंची भारतीय जनता पार्टी को ताजा उपचुनावों में जनता ने एक झटके में ही आईना दिखा दिया है। वैसे उपचुनावों के नतीजे कभी भी भविष्य की पूरी तस्वीर तो पेश नहीं करते फिर भी वह जीते-हारे राजनीतिक दलों को कुछ न कुछ संदेश अवश्य देते हैं। तीन लोकसभा और 33 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों के नतीजों से जिस दल को सबक सीखने की जरूरत है तो वह है भाजपा। ऐसे कई सारे इलाकों में जहां पिछले आम चुनाव में भाजपा को जबरदस्त जीत हासिल हुई थी वहां उसे हार का सामना करना पड़ा है। खासकर उत्तर प्रदेश में जिस तरह अपने ही सांसदों द्वारा रिक्त की गई ज्यादातर सीटों को बचाने में नाकाम रही वह पार्टी के लिए खासा चिंता का सबब होना चाहिए। परिणाम इस बात की गवाही दे रहे हैं कि प्रदेश के लोकसभा चुनाव के नतीजे नरेन्द्र मोदी के हक में ज्यादा थे, पार्टी भाजपा के पक्ष में कम। राजस्थान में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में सारी 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी और उससे पहले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की सफाई हो गई थी। मगर इन उपचुनावों में कांग्रेस ने राजस्थान की चार में से तीन सीटें जीत ली हैं और भाजपा के हाथ एक सीट ही लगी। यह सही है कि हाल के और इसके पहले हुए उपचुनावों में मोदी सरकार की परीक्षा नहीं हो रही थी, लेकिन यह भी अपेक्षित नहीं था कि भाजपा के मुकाबले उसके विरोधी दल बढ़त हासिल करने में सफल रहेंगे। पहले उत्तराखंड और अब बिहार, राजस्थान के साथ-साथ एक हद तक गुजरात में भी ऐसा ही हुआ। इनसे एक बात साफ होती है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में लोग अलग-अलग किस्म से मतदान करते हैं। लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री पद का दावेदार होना एक बड़ा कारण था जिसकी वजह से लोगों ने भाजपा को वोट दिया था और कई स्थानीय मुद्दे और समीकरण भुला दिए थे। इन उपचुनावों में नरेन्द्र मोदी कोई मुद्दा नहीं थे, इन उपचुनावों से उनके पीएम बने रहने पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है इसीलिए मतदाताओं ने अन्य वजहों को तरजीह दी और नतीजे भाजपा के विरुद्ध गए। अगर यह कहा जाए कि इन उपचुनावों में मोदी फेक्टर प्रमुख मुद्दा था तो शायद गलत नहीं होगा। अगर लोकसभा चुनाव में मोदी की छवि ने जीत दिलाई तो इन उपचुनावों में भाजपा की हार भी मोदी की गिरती छवि के कारण हुई। भाजपा नेताओं के अहंकार ने भी पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया। आज कार्यकर्ता निराश हैं और मायूस होकर घरों में बैठ गए हैं। चुनाव नेता कम कार्यकर्ता ज्यादा जिताते हैं और सत्ता में आने के बाद भाजपा नेता मानो सातवें आसमान पर जा बैठे हों जहां कार्यकर्ता पहुंच ही नहीं सकता, सो कार्यकर्ता भी कहीं आपको सबक चखाते हैं। भाजपा  विरोधी दल उपचुनावों के नतीजों की व्याख्या जैसे चाहें क्यों न करें वे अपनी जीत के उत्साह में यह कहने से बचें तो बेहतर होगा कि हमें मोदी सरकार के प्रति जनता में मोह भंग होने का लाभ मिला। भाजपा को भी इस तर्प की आड़ लेने से बचना होगा कि उपचुनावों के नतीजे तो राज्य में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में ही जाते हैं। राजस्थान इस तर्प की काट पेश कर रहा है। गुजरात में भी ऐसा ही कुछ दिखाई दे रहा है। उत्तर प्रदेश के हालात ऐसे नहीं थे कि भाजपा की आठ सीटें उस समाजवादी पार्टी के खाते में चली जातीं जिसके शासन की सर्वत्र आलोचना हो रही थी। पश्चिम बंगाल से अलबत्ता भाजपा के लिए अच्छी खबर है। दो विस सीटों में से एक जीतकर पार्टी संकेत देने में सफल रही है कि ममता बनर्जी के सामने अब वही मुख्य सियासी ताकत है। गैर भाजपा खेमे की बात करें तो यूपी में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन उसके लिए बहुत लाभकारी और राहतकारी है। सपा ने 11 में से आठ विस सीटें तो जीती हीं, मैनपुरी पर अपना कब्जा बरकरार रखा है। इस जीत से यकीनन सपा का लोकसभा चुनाव में खोया रुतबा कायम हुआ है और पार्टी भाजपा पर अपना दबदबा साबित करने में सफल रही है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है राजस्थान के नतीजे उसके लिए संजीवनी का काम करेंगे, साथ ही गुजरात में तीन सीटों पर मिली जीत को भी पार्टी खास मान रही है। दुख से कहना पड़ता है कि भाजपा ने यूपी में उपचुनाव जीतने के लिए जिस रणनीति पर अमल किया वही उसकी पराजय का कारण बनी। पता नहीं उसके नेता यह कैसे भूल गए कि लोकसभा चुनावों में उसकी प्रचंड जीत का आधार विकास पर बल देना था, न कि लव जेहाद सरीखे मुद्दों को धार देना। बहरहाल उपचुनावों की खासियत होती है कि इनमें जीतने वाले परिणामों को विपक्षियों के खिलाफ जनादेश बताते हैं लेकिन हारने वाला स्थानीय कारणों को इसका जिम्मेदार बताकर परिणामों को महत्वहीन साबित करने की कोशिश करता है। वैसे अगले माह जब महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजे आएंगे तब ठीक-ठीक साफ होगा कि राजनीति कौन-सी करवट ले रही है। तब तक उपचुनावों के नतीजों का विश्लेषण जारी रहेगा। इतना तय है कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेतृत्व को अपना आचरण बदलना होगा अगर भविष्य में चुनाव जीतने हैं।