Tuesday 30 September 2014

जयललिता केस ः देर से आया पर दुरुस्त आया

आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को हुई सजा देश की राजनीति में एक अपूर्व घटना है। जहां जयललिता अब अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी मुश्किल से रूबरू होंगी वहीं यह फैसला एक न्यायिक इतिहास भी है। हालांकि भ्रष्टाचार या दूसरे आपराधिक मामले में दिग्गजों के जेल जाने की बात नई नहीं है पर शायद यह पहला मौका है जब एक मुख्यमंत्री को सजा हुई है। इससे यह संदेश तो जरूर जाता है कि कोई कितना भी ताकतवर क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। जयललिता को आय से अधिक सम्पत्ति के 18 साल पुराने मामले में चार साल की सजा के ऐलान से यह कहा जा सकता है कि आखिरकार कानून के लम्बे हाथ उन तक पहुंचे। हमारे सामने ऐसे कई मामले आए हैं। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव, पूर्व टेलीकॉम मिनिस्टर सुखराम और हरियाणा के पूर्व सीएम ओम प्रकाश चौटाला को कोर्ट दोषी करार दे चुका है। डीएमके नेता ए. राजा, कनिमोझी और पूर्व संचार मंत्री दयानिधि मारन के मामले भी सामने हैं। जयललिता का फैसला जहां न्यायपालिका में लोगों का भरोसा और बढ़ाएगा वहीं यह उन लोगों के लिए सख्त चेतावनी का काम भी करेगा जो सोचते हैं कि पद या प्रभाव का इस्तेमाल करके वे अपने भ्रष्ट कारनामों का नतीजा भुगतने से बचे रहेंगे। जयललिता के सामने फौरी चुनौती अपनी पार्टी से एक भरोसेमंद व्यक्ति तलाशने की थी, जो उनके नाम पर राज्य का राज चला सके। इस काम के लिए जयललिता ने उन्हीं पनीरसेल्वम को चुना है जो पहले भी ऐसे हालात में उनकी पहली पसंद रहे थे। लेकिन अब पार्टी और सरकार पर जयललिता का एकछत्र वर्चस्व लम्बे वक्त तक कायम रहेगा, इस पर संदेह जरूर है। कारण पिछली बार जयललिता बेहद कम वक्त के लिए कुर्सी से हटने के लिए मजबूर हुई थीं लेकिन इस बार अदालती निर्णय ने पूरे 10 साल के लिए उन्हें चुनाव लड़ने या संवैधानिक पद संभालने से वंचित कर दिया है। अगर ऊपरी अदालतें उन्हें निर्दोष मान लेती हैं तो और बात है पर अगर ऐसा नहीं होता है तो बहुत सालों तक जयललिता सत्ता से बाहर हो सकती हैं। अब यह अहम सवाल है कि जया के बगैर तमिलनाडु की राजनीति कैसी होगी और उनके राजनीतिक कैरियर का क्या होगा? पिछले कुछ सालों में जयललिता ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाई है। जयललिता को सजा होने से तमिलनाडु की राजनीति में नए समीकरण बनेंगे। वर्ष 2016 में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में अन्नाद्रमुक की संभावनाओं पर भी इस फैसले का असर पड़ेगा। उसके प्रतिद्वंद्वी द्रमुक और उनके नेता करुणानिधि हालांकि इन हालातों का फायदा जरूर उठाना चाहेंगे पर उनकी पार्टी में भी एका नहीं है और परिवार बुरी तरह से विभाजित है। फिर अब तक यह पार्टी भी अपने नेताओं के घपले-घोटालों में लगातार घिरने से हलकान रही है। अब राज्य की राजनीति में भाजपा भी अपने लिए नए अवसर देख सकती है। हाल के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु से एक सीट जीतने और मत प्रतिशत में बढ़ोतरी होने से भाजपा उत्साहित है। बहरहाल राजनीतिक नफा-नुकसान का आंकलन तो चलता रहेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह फैसला भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी संघर्ष का एक अहम मुकाम है। खासकर सजायाफ्ता जन प्रतिनिधियों की सदस्यता खत्म करने में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद राजनीतिक भ्रष्टाचार पर प्रहार होने की जो उम्मीद लगाई गई थी, जयललिता का मामला उस उम्मीद को पूरा होने का अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह देखना दयनीय है कि जयललिता के समर्थक रो-धोकर यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी नेता के साथ अच्छा नहीं हुआ। कुछ तो तोड़फोड़ और हिंसा पर आमादा हैं। ऐसे तत्वों को सही संदेश देने की आवश्यकता है। न्याय में 18 साल की देरी का एक दुष्परिणाम यह है कि जब कभी निचली अदालतों से सजा पाए नेता ऊपरी अदालतों से राहत पा जाते हैं तो वे इसका भी सियासी लाभ उठाते हैं। इस निर्णय की जद में हालांकि लालू यादव और रशीद मसूद जैसे नेता भी आए, लेकिन इसके चलते किसी राज्य के शीर्ष पदस्थ राजनेता को पद छोड़ना पड़े ऐसा  जयललिता के मामले में पहली बार हुआ है। हालांकि जिस तरह जयललिता के मामले को अंजाम तक पहुंचने में 18 साल लग गए, इससे न्यायिक प्रक्रिया की लेटलतीफी पर भी सवाल उठते हैं। समयबद्ध न्याय हर व्यक्ति और आवाम का हक है लेकिन नेताओं के मामले में अगर त्वरित निपटारा हो जाए तो राजनीति में सफाई को बल मिल सकता है। हमारे नीति-नियंताओं को यह समझना होगा कि आज जनता जागरूक हो चुकी है और वह अच्छे से देख और समझ रही है कि किस तरह रसूखदार लोगों के मामले में कानूनी प्रक्रिया अलग ढंग से आगे बढ़ती है और आम लोगों के मामले में अलग तरह से।

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