Friday, 26 September 2014

अफगानिस्तान का चिंतित करता भविष्य

पड़ोसी होने के नाते और एक दोस्त देश के नाते भी भारत को अफगानिस्तान की अंदरूनी सियासत पर कड़ी नजर रखनी होगी। वैसे भी अगर अमेरिका वहां से जाता है तो उसके परिणामों से भी भारत प्रभावित होता है। अफगानिस्तान में महीनों से चल रहा सियासी गतिरोध आखिरकार सकारात्मक समझौते के साथ खत्म हो गया है। राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों के बीच सत्ता विभाजन का समझौता करवा कर अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपना तात्कालिक मकसद हासिल कर लिया है, लेकिन इस प्रक्रिया में लोकतांत्रिक निर्वाचन की अपेक्षाएं जरूर आहत हुई हैं। समझौते के तहत अशरफ गनी राष्ट्रपति बनेंगे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला (अथवा उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति) को सरकार के मुख्य कार्यकारी का पद मिलेगा। यह पद प्रधानमंत्री जैसा होगा, जिसे काफी अधिकार होंगे लेकिन क्या इस राष्ट्रीय एकता की सरकार की लोकतांत्रिक साख भी होगी। यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अप्रैल में हुए चुनावों का तालिबान ने विरोध किया था, इसके  बावजूद आम लोगों ने भारी तादाद में हिस्सा लिया था। इससे यह पता चलता है कि अफगानिस्तान की जनता में अपनी सरकार को चुनने और लोकतांत्रिक व्यवस्था के कायम होने की कितनी प्रबल इच्छा है। लाख टके का सवाल है कि क्या नई सरकार अफगान लोगों की आकांक्षाओं पर खरी उतर सकेगी? हकीकत यह है कि हामिद करजई भले ही एक दशक से भी लम्बे समय से सत्ता में हैं, लेकिन काबुल से बाहर उनका नियंत्रण न के बराबर था। साथ-साथ उनके प्रशासन में भ्रष्टाचार भी फला-फूला और  बेरोजगारी भी बढ़ती गई। अमेरिका और नॉटो सैनिकों की वापसी के मुद्दे पर अमेरिका के साथ उनकी तल्खी भी बढ़ती गई है। हालत यहां तक हो गई कि अमेरिका पिछले दरवाजे से तालिबान तक से बात करने को तैयार हो गया। वास्तव में अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार भले ही चल रही है पर तालिबान ने भी इन वर्षों में फिर से खुद को मजबूत किया है और जब अमेरिकी फौज वहां से लौट  जाएगी, तब तालिबान के और मजबूत होने की आशंका है। गौरतलब है कि जून में राष्ट्रपति चुनाव के दूसरे दौर के मतदान के बाद जब वोटों की गिनती में गनी को आगे बताया गया, तब अब्दुल्ला ने भारी चुनावी धांधली का आरोप लगाते हुए परिणाम को मानने से इंकार कर दिया था। तब गनी और अब्दुल्ला के समर्थकों में हिंसक झड़पें भी हुई थीं। यह अमेरिका के लिए बुरी खबर थी। उसकी तात्कालिक चिंता अफगानिस्तान में अब भी तैनात 30,000 अमेरिकी और 17,000 अन्य नॉटो सैनिकों को निकालने की है। सियासी उथल-पुथल के बीच यह काम अधिक कठिन हो जाता है। इस साल के अंत तक अमेरिका का अपनी बाकी सेना भी वापस बुलाने का प्लान है। ऐसे में सियासी गतिरोध का होना सत्ता को कमजोर करना और तालिबान को अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का अवसर मिलेगा। अफगान समस्या भारत के लिए भी चिंताजनक है क्योंकि भारत का बहुत कुछ दांव पर है। यहां की स्थिति भारत, पाकिस्तान और यहां तक कि समूचे विश्व के लिए चिंता का विषय रही है। क्योंकि यह देश अलकायदा और उसके सरगना बिन लादेन की गतिविधियों का मुख्य ठिकाना रहा है। आज भी तालिबान आतंकियों की यह सबसे सुरक्षित स्थली मानी जाती है। उम्मीद करते हैं कि नई सरकार तालिबान पर नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहेगी।

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