Thursday, 27 August 2015

जघन्य अपराध में मृत्युदंड की सजा अमानवीय नहीं

पिछले डेढ़ दशक में जिन चार लोगों को फांसी पर लटकाया गया है, उनमें से तीन आतंकवादी थे। इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ है कि आतंकवाद से निपटने के लिए फांसी की सजा जरूरी है। मुंबई बम विस्फोटों के दोषी याकूब मेमन की फांसी की सजा की बहस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मौत की सजा अमानवीय या बर्बर नहीं है। जघन्य अपराधों में मृत्युदंड जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर, न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल और न्यायमूर्ति एके गोयल की तीन सदस्यीय पीठ ने हत्या के मामले में मौत की सजा के एक दोषी की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। एक लड़के के अपहरण और हत्या के दोषी ने अपनी याचिका में तर्प दिया था कि मौत की सजा सिर्प आतंकवादियों पर ही लागू होती है। इस पर पीठ ने कहा कि हत्या के मामले में मौत की सजा दुर्लभ है लेकिन अगर अदालत ने पाया कि यही सजा हो तो उस पर सवाल खड़ा करना मुश्किल है। फिरौती के लिए अगवा करने के बढ़ते मामलों को रोकने के लिए सख्त सजा देना जरूरी है। फिर चाहे अपहरण पैसे के लालच में साधारण अपराधियों ने या संगठित गतिविधि के तौर पर किया हो या आतंकी संगठनों ने। माननीय पीठ ने आईपीसी की धारा 364ए के तहत मृत्युदंड जायज ठहराते हुए टिप्पणी की। पीठ ने कहाöसंसद ने यह कानून देश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए बनाया था। इसे तैयार करते वक्त देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता की सुरक्षा पर चिन्ता जताई गई थी। ऐसे में धारा 364ए के तहत मृत्युदंड की सजा को अपराध की तुलना में ज्यादा कूर करार नहीं दिया जा सकता। इसे असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय है कि विक्रम सिंह को 2005 में एक छात्र के अपहरण और हत्या के मामले में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर मोहर लगा दी थी। फिरौती के लिए अपहरण में धारा 364 का दोषी ठहराए जाने पर उसने सजा के खिलाफ अपील की थी। याकूब मेमन की फांसी के बाद इन मानवाधिकार संगठनों ने हायतौबा मचा दी थी। इस पर विधि आयोग ने फांसी को बनाए रखने के हक में राय देते हुए कहा था कि फांसी की सजा के बारे में कोई भी फैसला करते समय समाज की सुरक्षा और मानवता की रक्षा की जरूरत ध्यान में रखनी होगी। फांसी की जरूरत पर बल देते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि यहां सवाल भारतीय दंड संहिता का प्रावधान बनाए रखने का नहीं है बल्कि सवाल यह है कि भय पैदा करने वाले दंड को खत्म करने का क्या प्रभाव होगा? मौजूदा मुश्किल और अशांत माहौल में यह निरोधात्मक (डिटेरेंट) दंड अगर नहीं बनाए रखा तो देश में अराजकता छा जाएगी।

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