Sunday, 5 June 2016

14 साल देरी से ही सही गुलबर्ग सोसायटी का फैसला आया तो

आखिरकार 14 साल बाद ही सही गुजरात के 2002 के दंगों के सबसे चर्चित मामलों में से एक गुलबर्ग सोसायटी में हुए नरसंहार केस में फैसला आ ही गया। गुजरात में गोधरा के पास 27 फरवरी 2002 को 59 लोगों को जिन्दा रेलवे बोगी में जलाने के बाद यमनपुरा इलाके में स्थित गुलबर्ग सोसायटी पर 20 हजार लोगों ने हमला बोल दिया था, जिसमें 69 लोगों की जान चली गई थी। 39 शव तो बरामद हो गए थे जबकि कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी व 14 साल के एक पारसी बच्चे अजहर मोडी समेत 31 लोग लापता हो गए थे। सात साल बाद इन 31 में से 30 को मृत घोषित कर दिया गया और मुजफ्फर शेख 2008 में जिन्दा मिले। उनको एक हिन्दू परिवार ने पाला और नाम विवेक रखा। यह दंगा उस वक्त के गुजरात के हालात को समझने के लिए काफी है, जहां गुलबर्ग सोसायटी सहित नौ बड़े मामलों की जांच सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष जांच दल (एसआईटी) के जरिये अपने नियंत्रण में ले ली थी। 14 साल की देरी के बाद एक विशेष अदालत ने हिंसा और हत्या की इस भीषण वारदात के लिए 24 लोगों को दोषी ठहराया। इस मामले के दोषियों में 11 पर हत्या का जुर्म साबित हुआ है। विश्व हिन्दू परिषद नेता अतुल वैद्य समेत बाकी 13 को अन्य आरोपों में दोषी करार दिया गया। स्पेशल प्रॉसिक्यूटर ने कहा कि हम 11 दोषियों के लिए मौत, जबकि 13 दोषियों के लिए 10-12 साल जेल की मांग करेंगे। सजा कितनी होगी इसका ऐलान छह जून को होगा। कोर्ट ने 36 आरोपियों को बरी कर दिया। इनमें भाजपा के पार्षद विपिन पटेल, कांग्रेस के पार्षद मेध सिंह चौधरी और गुलबर्ग सोसायटी इलाके के उस वक्त पुलिस इंस्पेक्टर रहे केजी एरडा भी शामिल हैं। गुरुवार को फैसला सुनाने में जज पीवी देसाई ने महज 20 मिनट का समय लिया। सबसे पहले बरी किए गए आरोपियों के नाम पुकारे और कहा कि आप सब खड़े हो जाएं। मैं आपके चेहरे पर हंसी देखना चाहता हूं। इसके बाद उन्होंने दोषियों के नाम लिए कहा कि इनकी सजा की घोषणा छह जून को की जाएगी। इस फैसले के बाद 2002 के गुजरात दंगों के नौ में से आठ के फैसले आ चुके हैं अब सिर्प एक नारोडा गांव का फैसला आना बचा है। इन दंगों में अपना सब कुछ गंवा चुके लोगों को लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी और कहा नहीं जा सकता कि उनकी यह लड़ाई खत्म हो गई है। खासतौर से इसलिए क्योंकि अदालत ने इस क्षेत्र के भाजपा पार्षद विपिन पटेल सहित 36 लोगों को बरी कर दिया है, दूसरी ओर जिन लोगों को दोषी ठहराया गया है, वे भी इस फैसले को चुनौती दे सकते हैं। आखिरकार पीड़ितों को न्याय मिला, लेकिन अगर फैसला आने में इतनी अधिक देरी नहीं होती तो शायद पीड़ितों को और ज्यादा संतोष होता और साथ ही फैसले का असर भी कहीं अधिक प्रभावी होता। यह स्वाभाविक है कि इस फैसले से सभी संतुष्ट नहीं। असंतोष का कारण यह है कि एक तो अदालत ने 24 में से 11 लोगों को ही हत्या का दोषी पाया और 36 आरोपियों को बरी कर दिया और दूसरे, यह मानने से इंकार कर दिया कि घटना के पीछे कोई आपराधिक साजिश थी। देखना है कि ऊंची अदालतें विशेष अदालत के फैसले में कोई फेरबदल की जरूरत महसूस करती है या नहीं? जो भी हो, ज्यादा जरूरी यह है कि ऊंची अदालत का फैसला आने में और अधिक देरी न हो। उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री होने के नाते स्वाभाविक रूप से नरेंद्र मोदी सबके निशाने पर थे और जाफरी की पत्नी ने उन्हें भी आरोपी बनाए जाने की याचिका दायर की थी, लेकिन एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दे दी। इस फैसले की चाहे जैसी व्याख्या की जाए, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गुजरात में हिंसा और हत्या की जो गंभीर नौ घटनाएं थीं उनमें से आठ का फैसला आ चुका है। इस पर आश्चर्य नही कि गुलबर्ग सोसायटी की इस घटना पर विशेष अदालत का फैसला आते ही राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का भी दौर शुरू हो गया और कुछ राजनीतिक दलों की ओर से यह साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि गुलबर्ग हत्याकांड समेत जो अन्य गंभीर घटनाएं घटीं उनकी साजिश सत्ता में बैठे लोगों की ओर से ही रची गई थी। जाहिर है कि उनका इशारा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर है। ऐसा लगता है कि वे इस तथ्य की जानबूझ कर अनदेखी करना चाहते हैं कि गुलबर्ग मामले में विशेष जांच दल की ओर से नरेंद्र मोदी से भी पूछताछ की गई थी और उसने यह पाया था कि दंगे की इस घटना अथवा अन्य घटनाओं में उनकी कोई भूमिका नही थी। विशेष जांच दल के इस निष्कर्ष पर देश की सर्वोच्च अदालत ने भी अपनी मुहर लगाई थी पर मोदी विरोधी लॉबी इसे मानने को तैयार नहीं और अब भी कह रही है कि दंगे तत्कालीन सरकार की सोची-समझी साजिश का नतीजा है। नरेंद्र मोदी की मीडिया ट्रायल भी 14 साल से चल रही है और थमने का नाम नहीं ले रही। दुखद पहलू यह भी है कि कोई भी गोधरा में मारे गए दर्जनों कारसेवकों को जिन्दा जलाने की अत्यंत दुखद घटना पर चर्चा नहीं करना चाहता। यह तथ्य सभी को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे देश में दंगों के दोषियों को मुश्किल से ही सजा सुनाई जाती है। गुजरात दंगों से कहीं अधिक गंभीर 1984 के सिख दंगे थे और यह किसी से छिपा नहीं कि अपेक्षाकृत कम ही लोगों को सजा सुनाई गई है। शायद यह हमारे सिस्टम की विसंगति है कि कई बार पूरे समाज को दिख रहा सच कानून की नजर में सच साबित होने से वंचित रह जाता है।

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