Thursday 30 June 2016

अखिलेश यादव के नए तेवर

उत्तर प्रदेश के ज्यों-ज्यों विधानसभा चुनाव करीब आते जा रहे हैं सूबे की राजनीति में उबाल आता जा रहा है। सभी पार्टियों की नजर पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं को लुभाने में लगी है। अखिलेश यादव को ही ले लीजिए। अखिलेश का एक नया स्वरूप देखने को मिल रहा है। मामला चाहे उनके मंत्रिमंडल विस्तार का हो या मुख्तार अंसारी के नेतृत्व वाली कौमी एकता पार्टी के सपा में विलय होने का पुरजोर विरोध का रहा हो या फिर मुख्यमंत्री का अपने चाचा व राज्य के मंत्री शिवपाल सिंह यादव के खिलाफ जाने का हो। यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ। शिवपाल कौमी एकता दल का सपा में विलय चाहते थे पर अखिलेश ऐसा नहीं चाहते थे। यह टकराव इतना बढ़ गया कि विलय में मुख्य भूमिका निभाने वाले बलराम यादव को मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वह मुख्तार अंसारी जैसे लोगों को पसंद नहीं करते और यही वजह है कि पार्टी में उनके शामिल होने का विरोध किया। सामान्य तौर पर अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में मुख्यमंत्री चुनावी तैयारियों को ध्यान में रखकर ही अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करते हैं। लेकिन अखिलेश ने अपने सातवें और कार्यकाल के संभवत आखिरी फेरबदल में जिन परिस्थितियों में महज एक हफ्ते पहले हटाए गए बलराम सिंह यादव को दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल किया उससे उनकी मजबूरी झलकती है। इस  लिहाज से जेल में बंद मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल का सपा में विलय रोकने के लिए कड़ा रुख अख्तियार करना सही है। दरअसल 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिलाने में अखिलेश की युवा, क्लीन छवि और कड़ी मेहनत जिम्मेदार थी। पर मुख्यमंत्री बनने के बाद चौतरफा पारिवारिक दबाव के चलते, अधिकारियों की तैनाती को लेकर व नीतिगत फैसलों तक में अखिलेश फिसलते नजर आए। अब अखिलेश ने साहस से काम लेने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि जनता ने मुझे चुनकर भेजा है और नेता जी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया है। जो मुझे ठीक लगेगा वह मैं करूंगा। निर्णय चाचा-भतीजे का नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी सरकार का होता है और सरकार वही फैसला लेती है जो जनता के हित में है, आरोप तो लगते ही रहते हैं। एक बार तो डॉ. राम मनोहर लोहिया को भी लोकसभा में गुंडा कह दिया गया था, इसका मतलब तो यह नहीं कि लोहिया जी गुंडे थे। सपा और बसपा उत्तर प्रदेश की पारंपरिक रूप से दो बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टियां हैं और दोनों को इसका अहसास होगा कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 73 सीटें जीतकर अपने लिए बड़ी जगह बना ली है। मंत्रिमंडल विस्तार में अखिलेश ने नए तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं, देखिए आगे-आगे होता है क्या?

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