Sunday, 26 June 2016

यूरोपीय संघ से अलग हुआ ग्रेट ब्रिटेन

द्वितीय महायुद्ध के बाद ब्रिटेन में ईयू यानि यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने (ब्रेक्सिट) के लिए हुआ जनमत संग्रह दूसरी बड़ी घटना है। यह एक ऐसा जनमत संग्रह है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। इसके नतीजों की समीक्षा व परिणाम कई महीनों तक विश्लेषक करते रहेंगे। मोटे तौर पर कुछ प्रभाव जल्द सामने आ सकते हैं। सबसे पहले बता दें कि आखिर यह जनमत संग्रह था क्या? 23 जून यानि गुरुवार को ब्रिटेन में ईयू (यूरोपीय संघ) के साथ रहने या हटने के लिए ब्रिटेन की जनता ने वोट डाले। यह ब्रिटेन के साथ-साथ 28 देशों के समूह यूरोपीय संघ के इतिहास की एक अहम तारीख थी। मतदाताओं को तय करना था कि ब्रिटेन ईयू में बना रहेगा या नहीं? क्या है ईयू, यह यूरोपीय महाद्वीप में स्थित 28 देशों का राजनीतिक और आर्थिक संगठन है। इसकी अलग करेंसी (यूरो), संसद, सेंट्रल बैंक, कोर्ट हैं। ईयू ने आंतरिक रूप से एक बाजार अर्थव्यवस्था बनाई हुई है। इसके कानून सभी सदस्यों पर समान रूप से लागू होते हैं। ग्रीनलैंड के बाद ईयू से बाहर निकलने वाला ब्रिटेन दूसरा देश है। ब्रिटेन में हुए जनमत संग्रह से अलग होने के पक्ष में 51.9 प्रतिशत वोट पड़े। हालांकि प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने ईयू में बने रहने के पक्ष में काफी सक्रियता के साथ प्रचार किया था। जनमत संग्रह के परिणाम की आधिकारिक घोषणा के कुछ ही देर बाद अपना संक्षिप्त बयान देने के लिए कैमरन 10 डाउनिंग स्ट्रीट से बाहर निकले और उन्होंने यह कहते हुए इस्तीफा देने की अपनी मंशा जता दी कि नए प्रधानमंत्री यूरोपीय संघ से बाहर निकलने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए अक्तूबर में पदभार ग्रहण करेंगे। जनता में इनका सम्मान होना चाहिए। ब्रिटेन ईयू से बाहर क्यों निकला, इसके कारणों का विश्लेषण तो लंबे समय तक चलेगा पर मोटे तौर पर एक बड़ा कारण ब्रिटेन पर खर्चा रहा। ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन को 99 हजार 300 करोड़ रुपए की सालाना बचत होगी। ये रकम ब्रिटेन को ईयू में बने रहने के लिए मेम्बरशिप फीस के रूप में चुकानी पड़ती थी। यूरोपियन यूनियन में जारी अफसरशाही ब्रिटेन के लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं है। ब्रेक्सिट का समर्थन कर रहे लोगों का कहना है कि ईयू तानाशाही रवैया अपनाता है। सिर्प कुछ नौकरशाह मिलकर ब्रिटेन समेत 28 देशों के लोगों का भविष्य तय करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक ईयू में करीब 10 हजार अफसर काम करते हैं। इनमें से कई पूर्व राजनेता हैं और अपने देश में राजनीतिक पारी खत्म होने के बाद ये नेता ईयू का हिस्सा बन जाते हैं और मोटी सैलरी भी लेते हैं। ब्रेक्सिट की मांग कर रहे लोगों का दावा है कि ईयू में काम करने वाले ज्यादातर अफसरों की सैलरी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन से भी ज्यादा है। यूरोपियन यूनियन के सांसदों को 19 हजार रुपए का दैनिक भत्ता मिलता है और सालभर में अलग-अलग तरह के खर्च के लिए 31 लाख रुपए मिलते हैं। जबकि स्टाफ रखने के खर्च के नाम पर इन सांसदों को सालभर में एक करोड़ 70 लाख रुपए अलग से मिलते हैं। यूरोपियन यूनियन से अलग होने के बाद अब ब्रिटेन को अमेरिका और भारत जैसे देशों से मुक्त व्यापार करने की छूट मिल गई है। ब्रिटेन में फिलहाल 50 प्रतिशत से भी ज्यादा कानून ईयू के ही लागू हैं। ईयू के मुकाबले ब्रिटेन बाकी दुनिया को करीब दोगुना ज्यादा निर्यात करता है। ईयू से अलग होने की मुहिम का नेतृत्व बहुत हद तक लंदन के पूर्व मेयर बोरिस का दूसरी ओर कहना है कि ब्रिटेन की पहचान, आजादी और संस्कृति को बचाए रखने के लिए ऐसा करना जरूरी है। ये लोग प्रवासियों का भी विरोध कर रहे हैं। 2008 की मंदी के बाद यह विरोध और तेज हो गया है। ब्रिटेन को लगभग नौ अरब डॉलर ईयू के बजट में देने होते हैं, इसका भी विरोध हो रहा है। ईयू के इस जनमत संग्रह के फैसले का राजनीतिक पहलू भी है। ईयू से अलग होने के ब्रिटिश जनता के फैसले के बाद ईयू के लिए और बुरी खबर आई है। डच एंटी-इमिग्रेशन लीडर जीई वाइल्ड्स ने ब्रेक्सिट के नतीजे के बाद नीदरलैंड से भी ईयू को लेकर जनमत संग्रह कराने की मांग की है। सीनियर ईयू अधिकारियों ने गोपनीय तरीके से चेतावनी दी है कि ब्रिटेन की तर्ज पर कई देश ईयू से अलग होने की राह पर बढ़ सकते हैं। इनका कहना है कि यह संक्रमण का रूप ले सकता है। उधर खुद ब्रिटेन के इस फैसले से ब्रिटेन के राजनीतिक भविष्य और एकता पर प्रभाव पड़ सकता है। राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि इस जनमत संग्रह के दौरान वोटिंग का जो पैटर्न देखा गया उससे साफ है कि स्काटलैंड और उत्तरी आयरलैंड के लोगों ने ईयू के पक्ष में रहने के लिए वोट दिया। ब्रिटेन के अलग होने की सुगबुगाहट लंबे अरसे से चल रही थी। उत्तरी आयरलैंड में पिछले कई दशकों से ब्रिटेन से अलग होने का आंदोलन चल रहा है तो दो साल पहले ही स्काटलैंड में ब्रिटेन से अलग होने का रेफरेंडम मामूली वोटों से गिरा था। अब वहां एक दो साल में फिर से रेफरेंडम कराने की मांग जोर पकड़ रही है। ब्रिटेन के इस जनमत संग्रह का असर पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। भारत पर भी इसका सीधा असर हो सकता है। ब्रिटेन भारत का तीसरा सबसे बड़ा निवेशक है। ब्रिटेन में इस वक्त 800 से ज्यादा भारतीय कंपनियां कारोबार कर रही हैं। ब्रिटेन में भारतीय कंपनियों ने दो लाख 47 हजार करोड़ का दांव लगा रखा है। भारतीय कंपनियों की ब्रिटेन में रुचि की एक बड़ी वजह है कि ब्रिटेन के रास्ते यह कंपनियां यूरोप के 28 देशों के बाजार तक सीधी पहुंचती हैं।

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