Friday, 24 June 2016

भारत अब दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था

ऐसे समय जब आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन की अचानक बिदाई की घोषणा से वित्तीय बाजारों में चिंता का माहौल है। राजग सरकार ने अपने कार्यकाल के सबसे बड़े और अहम आर्थिक सुधारों को लागू करने का फैसला किया है। पधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में हुई उच्चस्तरीय बैठक में सिविल एविएशन, रक्षा, सिंगल ब्रांड रिटेल व ब्राडकास्टिंग समेत नौ उद्योगों में विदेशी निवेश के नियमों को आसान कर दिया गया है। इन सुधारों के साथ यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत अब दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। इस कदम का उद्देश्य दुनिया भर के निवेशकों को एक पोजिटिव मेसेज देना है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नरेन्द्र मोदी के पधानमंत्री बनने के बाद दुनिया की नजरों में भारत की छवि सुधरी है और पिछले कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय कारोबारी और अर्थ विश्लेषक हमें बड़ी उम्मीद के साथ देखने लगे हैं। कई रेटिंग एजेंसियों ने भारत को निवेश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त जगह माना है। इस फैसले का पूरा-पूरा फायदा मिले, इसके लिए सरकार को कई मोर्चों पर अब भी जूझना होगा। सबसे पहले राजनीतिक विपक्ष इसका जोरदार विरोध करेगा, उस विरोध का सामना करना पड़ेगा। दूसरा बड़ा मोर्चा भारत का पशासनिक तंत्र है। यानि सरकार को अपने ही तंत्र को इतना चुस्त और पारदर्शी बनाना होगा कि वह एफडीआई के  रास्ते में रुकावटें खड़ी न करे। तीसरा मोर्चा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का है, जहां नए निवेश और उद्यम के लिए ज्यादा उत्साह नहीं है। फिर रघुराम राजन के पद छोड़ने से देश की अर्थव्यवस्था के बारे में जो संदेह पैदा हुए हैं या किए जा रहे हैं उससे भी सरकार को निपटना होगा। यहां यह बताना जरूरी है कि विदेशी निवेशक रातोंरात थैलियां लेकर भारत नहीं पहुंचने वाले। जो भी निवेशक भारत में बड़ी पूंजी लगाना चाहेगा वह सबसे पहले यह देखेगा कि देश में इस फैसले के मुताबिक माहौल बन पाया है या नहीं? नौकरशाह के कामकाज का तरीका भी बदलना होगा। विदेशी मल्टीनेशनल जैसे एपल कंपनियों का देश में अपने खुद के स्टोर्स खोलने से भारतीय कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। विदेशी निवेशक उदारीकरण कदमों के साथ ढांचागत सुधार भी देखना चाहते हैं। कुछ पिछली तिथि से कराधान को लेकर सुनिश्चित होना चाहेंगे। लेबर पॉलिसी भी एक बहुत बड़ा गतिरोधक है और इन सब आशंकाओं को दूर करना नौकरशाही का दायित्व है। नौकरशाही को ऐसा माहौल तैयार करना होगा जिससे निवेशकों में विश्वास ब़ढ़े। डिफेंस के क्षेत्र में दिक्कत यह है कि कोई भी विकसित देश अपनी कंपनियों की नवीनतम तकनीक के साथ भारत नहीं आना चाहेगी। विदेशी कंपनियां हमारी जरूरत से ज्यादा अपनी कारोबारी जरूरतों के हिसाब से उत्पादन करना चाहेंगी। बता दें कि भारत हथियारों का दुनिया में सबसे बड़े खरीददारों में से एक है। 5 सालों में एक लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा राशि के हथियार खरीदें हैं। 65 फीसदी रक्षा साजोसामान अभी भी विदेशों से खरीद रहा है। केंद्र के ताजा फैसले से विदेशी रक्षा कंपनियों के लिए भारत में निवेश के रास्ते खुलेंगे। वे अपने कारखाने यहां स्थापित कर भारत को रक्षा सामग्री की आपूर्ति कर सकेंगे। यह फैसला मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए तो ठीक है। क्योंकि विदेशी कंपनियां देश में अपने हथियार बनाकर यहां बेचेंगी। कुछ लोगों को रोजगार भी मिलेगा पर रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता कैसे हासिल होगी। तमाम क्षेत्रों में एफडीआई बढ़ाने का फैसला सही तो है लेकिन भारत में विदेशी पूंजी को लेकर जिस तरह का माहौल है, उससे स्थिति जटिल हो जाती है। यह उस दौर का असर है जब नियंत्रित अर्थव्यवस्था थी और हर विदेशी चीज को शक से देखा जाता था। पार्टियां अब भी इसका इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए करती हैं। भाजपा विपक्ष में जब थी, तो वह एफडीआई के हर पस्ताव का विरोध करती थी और अब अन्य विपक्षी पार्टियां कर रही हैं। बहरहाल सरकार सचेत रहे तो शत-पतिशत एफडीआई को अपने हित में मोड़ा जा सकता है।

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