Tuesday 2 April 2019

साक्ष्यों के अभाव में सभी समझौता एक्सप्रेस आरोपी बरी

पंचकूला की विशेष एनआईए कोर्ट ने समझौता एक्सप्रेस विस्फोट केस में 12 साल  बाद असीमानंद समेत चारों आरोपियों को साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया। बता दें कि इस धमाके में 68 लोगों की मौत हो गई थी। यह हादसा रात 11.30 बजे दिल्ली से करीब 80 किलोमीटर दूर पानीपत के दिवाना रेलवे स्टेशन के पास हुआ था। धमाकों की वजह से ट्रेन में आग लग गई थी और इनमें महिलाओं और बच्चों समेत कुल 68 लोगों की मौत हो गई थी और 12 लोग घायल हो गए थे। 19 फरवरी को जीआरपी (एसआईटी) हरियाणा पुलिस ने मामले में केस दर्ज किया था और करीब ढाई साल बाद इस घटना की जांच की जिम्मेदारी 29 जुलाई 2010 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपी गई थी। भारत-पाकिस्तान के बीच एक सप्ताह में दो बार च लने वाली समझौता एक्सप्रेस में 18 फरवरी 2007 को धमाका हुआ था। एनआईए ने 26 जून 2011 को पांच लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी। चार्जशीट दाखिल होने के बाद मामले में 224 गवाहों के बयान दर्ज हुए थे। इसमें कुल 299 गवाह बनाए गए थे। कोर्ट ने सुनवाई में वकील मोमिन मलिक की ओर से सीआरपीसी की धारा 311 के तहत गवाही के लिए लगाई गई याचिका को भी खारिज कर दिया। केस में 11 मार्च को ही फैसला आने के कयास लगाए जा रहे थे पर अंतिम क्षण में नया मोड़ आ गया था। पाक की एक महिला वकील राहिला के मेल को आधार बताते हुए वकील मोमिन ने याचिका लगाई थी कि वह इस केस में कुछ प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही करवाना चाहती हैं, क्योंकि हादसे में उनके पिता की मौत हुई थी। कोर्ट ने याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि 12 साल तक यह लोग कहां थे? फैसले के वक्त याचिका मायने नहीं रखती। इस बम धमाके मामले में स्वामी असीमानंद और तीन अन्य आरोपियों को बरी करने वाली एनआईए की विशेष अदालत ने कहा कि विश्वसनीय और स्वीकार्य साक्ष्य के अभाव की वजह से हिंसा के इस नृशंस कृत्य में किसी गुनहगार को सजा नहीं मिल पाई है। अदालत ने चारों आरोपियोंöस्वामी असीमानंद, लोकेश शर्मा, कमल चौहान और रजिंदर चौधरी को 20 मार्च को बरी कर दिया था। एनआईए अदालत के न्यायाधीश जगदीप सिंह ने अपने फैसले में कहा, ‘मुझे गहरे दर्द और पीड़ा के साथ फैसले का समापन करना पड़ रहा है, क्योंकि विश्वसनीय और स्वीकार्य साक्ष्यों के अभाव की वजह से हिंसा के इस नृशंस कृत्य में किसी को भी गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता है। अभियोजन के साक्ष्यों में निरंतरता का अभाव था और आतंकवाद का मामला अनसुलझा रह गया। उन्होंने 28 मार्च को सार्वजनिक किए विस्तृत फैसले में कहा, अदालत को लोकप्रिय या प्रभावी सार्वजनिक धारणा अथवा राजनीतिक भाषणों के तहत आगे नहीं बढ़ना चाहिए। अंतत उसे मौजूदा साक्ष्यों को तवज्जो देते हुए प्रासंगिक वैधानिक प्रावधानों और इसके साथ तय कानूनों के आधार पर अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।’  निस्संदेह यह हैरानी की बात है कि इतनी गंभीर घटना में किसी को सजा नहीं दी जा सकी। छानबीन में कहां कमी रही? अगर हम आतंकी घटना को भी अदालत में साबित नहीं कर पाते तो आतंकवाद से लड़ने का दावा कैसे कर सकते हैं? इस मामले में एनआईए का ट्रेक रिकॉर्ड निराशाजनक रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

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