Saturday 27 April 2019

बिहार में वामपंथ का भविष्य कन्हैया पर टिका हुआ है

बिहार के चौथे चरण में 29 अप्रैल को पांच संसदीय सीटों पर हो रहे चुनाव में सबसे ज्यादा फोकस इस समय बेगूसराय पर लगा हुआ है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि बिहार की बेगूसराय में इस बार चुनाव नहीं बल्कि दो विचारधाराओं की जबरदस्त टक्कर है। एक के सामने फिर से खड़े होने की चुनौती है तो दूसरे के सामने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का मौका है। माकपा के के उम्मीदवार और जेएनयू छात्र नेता कन्हैया कुमार और भाजपा के फायर ब्रांड नेता गिरिराज सिंह आमने-सामने हैं। चौथे चरण में 29 अप्रैल को 19 लाख 58 हजार मतदाता जब अपने मताधिकार का प्रयोग करने जाएंगे तो उनके सामने तीसरा विकल्प भी होगा। राजद के तनवीर हसन को दोबारा उतारकर कन्हैया की सियासी रफ्तर पर ब्रेक लगाने की कोशिश की है, ताकि लालू प्रसाद यादव के उत्तराधिकारी का भविष्य महफूज रहे। बेगूसराय में कन्हैया कुमार के आने से देश में वामपंथी विचारधारा को एक बार फिर प्रासंगिक होने का मौका मिला है। कम्युनिस्ट पार्टी की चूलें पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी हिल चुकी हैं। केरल एकमात्र एक राज्य बचा है जहां आज भी वाम विचारधारा चल रही है। बिहार के लेलिनग्राड के नाम से मशहूर बेगूसराय में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार का प्रचार करने के लिए कई मशहूर हस्तियां आ रही हैं। इसके साथ-साथ भूमिहार बहुल बेगूसराय में चारों तरफ बिरादरी की बात भी उछाली जा रही है। गिरिराज और कन्हैया दोनों भूमिहार हैं। तनवीर मुस्लिम। लिहाजा जाति-धर्म के आधार पर समीकरण बनाए-बिगाड़े जा रहे हैं। भाजपा के परंपरागत वोटर और जातीय समीकरण गिरिराज के काम आ सकता है। ऐसा ही संयोग कन्हैया के साथ भी है। राजद के मजबूत माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के सहारे खड़े हैं तनवीर हसन। तीनों ही अपने-अपने एक तरह से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कन्हैया की जीत बिहार में वामपंथ को पुनर्जीवन दे सकता है। हार गए तो गिरिराज की हनक बढ़ने से इंकार नहीं किया जा सकता है। बेगूसराय में आम जनमानस में दो तरह के विचारों के बीच ही मुकाबला है। गिरिराज सिंह जिस तरीके की सियासत के प्रतीक माने जाते हैं, कन्हैया की प्रसिद्धि उसके विपरीत है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के परिसर में तीन साल पहले कन्हैया की मौजूदगी में जो कुछ भी हुआ, उसकी धमक बेगूसराय की गली-मोहल्ले में सुनाई देती है। कन्हैया को कई जगह विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। उन्हें घर का बच्चा मानने वालों के सामने उन पर देशद्रोह का आरोप लगाने वालों की संख्या भी कम नहीं है। भाजपा और राजद के  लोग इसे जमकर भुना भी रहे हैं। कन्हैया को कठघरे में खड़ा करने की कवायद में न गिरिराज के लोग पीछे हैं और न ही तनवीर के। बात छिड़ते ही दोनों खेमों पर देशभक्ति हावी हो जाती है। जाहिर है कि दोनों में से कोई कामयाब हुआ तो खामियाजा वामपंथ को ही भुगतना पड़ेगा। भाजपा समर्थकों का मानना है कि बेगूसराय में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आकर्षण बना हुआ है, जबकि विपक्षी  गठबंधन को उम्मीद है कि वह अपने सामाजिक अंकगणित से कई स्थानों पर इसकी काट कर सकते हैं। कन्हैया अगर जीत जाते हैं तो अगली संसद में एक जोरदार वक्ता पहुंच जाएगा। अगर मोदी जीतते हैं तो उन्हें संसद में कन्हैया का जबरदस्त सामना करना पड़ सकता है। सीट बदलने के कारण गिरिराज सिंह का प्रचार-प्रसार धीमा शुरू हुआ है और भाजपा के अंदर भी उन्हें नाकाम होने के प्रयासों से इंकार नहीं किया जा सकता।

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