Thursday 18 April 2019

बढ़ती असहिष्णुता अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर खतरा

कला का उद्देश्य `सवाल उठाना और ललकारना' होता है, लेकिन समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है और संग"ित समूह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहे हैं। यह सख्त टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चिन्ता जताते हुए कहा कि कला-साहित्य, असहिष्णुता का शिकार होते रहेंगे, अगर राज्य कलाकारों के अधिकारों का संरक्षण न करें। जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ एक बंगला फिल्म `भविष्योत्तर भूत' पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ सुनवाई कर रही थी। पीठ ने कहा कि समकालीन घटनाओं से पता चलता है कि समाज में एक तरह की असहिष्णुता बढ़ रही है। यह असहिष्णुता समाज में दूसरों के अधिकारों को अस्वीकार कर रही है, उनके विचारों को स्वतंत्र रूप से चित्रित करने और उन्हें प्रिन्ट, थियेटर या सेल्यूलाइड मीडिया में पेश करने के अधिकार को खारिज कर रही है। स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार के अस्तित्व के लिए संगठित समूहों और हितों ने एक गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। पीठ ने यह भी कहा कि सत्ता शक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि हम लोकतंत्र में महज इसलिए रहते हैं, क्योंकि हमारा संविधान हर नागरिक की बृहद स्वतंत्रता को मान्यता देता है। पीठ ने कहा कि पुलिस नैतिकता की ठेकेदार नहीं है। कानून व्यवस्था का हवाला देकर फिल्म की क्रीनिंग नहीं रोक सकते। यह कृत्य घातक है। राज्य अपने अधिकारों का मनमाने तरीके से इस्तेमाल नहीं कर सकती। पीठ ने यह भी कहा कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित फिल्म को किसी अन्य अथारिटी से अनुमति लेने की दरकार नहीं है। बहुमत तय नहीं कर सकता कि कलाकारों का नजरिया क्या होना चाहिए और क्या नहीं। अभिव्यक्ति के अधिकार का संरक्षण करना राज्य की जिम्मेदारी है। कटु सत्य तो यह है कि एक  लोकतांत्रिक प्रणाली में कोई सरकार, राजनीतिक पार्टी या अन्य सियासी-धार्मिक समूह सिर्प इसलिए किसी कलाकृति के प्रदर्शन को बाधित करते हैं कि किसी राजनीति की हकीकत पर चोट पहुंचती है, यह चिन्ता की बात है। खासतौर पर जब हमारे देश के संविधान में अपनी बात करने, रखने और दिखाने के अधिकार मिले हुए हैं। यह समझना मुश्किल है कि पश्चिम बंगाल सरकार ने इस फिल्म को रिलीज करने में बाधा आखिर क्यों डाली? क्या राज्य सरकार ने फिल्म के प्रदर्शन में इसलिए अड़चन खड़ी की, क्योंकि इसमें राजनीतिक व्यंग्य का सहारा लेकर, अलग-अलग पार्टियों को कठघरे में खड़ा किया गया है और इनमें तृणमूल कांग्रेस भी शामिल है? कायदे से फिल्म पर हमला करने या इसे रोकने के बजाय तृणमूल कांग्रेस और राज्य में उसकी सरकार को यह सोचना चाहिए था कि लोकतांत्रिक दायित्व को पूरा करने में कहां कमी रह गई। सीधे उसके प्रदर्शन पर रोक लगाकर उसने यह साबित किया कि देश की लोकतांत्रिक परंपराओं और कानूनी व्यवस्था की उसे परवाह नहीं है। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमारा सुप्रीम कोर्ट मजबूत है और ऐसी अलोकतांत्रिक पाबंदियों को रद्द करने की क्षमता रखता है। पर इसमें संदेह है कि अब भी कुछ स्वार्थी समूह व सियासी दल संभलेंगे?

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