Wednesday, 11 May 2011

ऑपरेशन बिन लादेन की सफलता ने सीआईए के सारे पाप धोए

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
प्रकाशित: 11 मई 2011
-अनिल नरेन्द्र
अमेरिका की खुफिया एजेंसी सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी उर्प सीआईए ने ऑपरेशन जेरोनिमो ईकेआईएस (यानि एनिमी किल्ड इन एक्शन) करके न केवल अमेरिका के सबसे खतरनाक अंडर कवर ऑपरेशन को सफल अंजाम दिया बल्कि पिछले सारे कलंक एक ही झटके में धो डाले। ओसामा बिन लादेन को पहली बात तो ढूंढना आसान नहीं था, फिर ढूंढने के बाद उसे ठिकाने लगाना वह भी एक दूसरे देश के अन्दर और भी मुश्किल था पर सीआईए ने ह्यूमन इंटेलीजेंस और इलैक्ट्रॉनिक इंटेलीजेंस के बीच जो समन्वय बनाया वह शीत युद्ध के बाद उसकी सबसे बड़ी सफलता है। सीआईए ने यह साबित कर दिया कि वह विश्व की अतिसक्षम खुफिया एजेंसियों में से एक है। 11 सितम्बर, 2001 के बाद से ही इस एजेंसी की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे थे कि विश्व के सर्वाधिक समृद्ध और शक्तिशाली देश के मुंह पर करारा तमाचा रसीद करने वाले ओसामा का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाई। जाने-माने विशेषज्ञों को लगने लगा था कि सीआईए भी दुनिया की अन्य खुफिया एजेंसियों की तरह नौकरशाहों और लालफीताशाही की शिकार हो गई है और यह भी कि उसकी क्षमता का प्रचार ज्यादा है, जिसमें किवंदतियां अधिक और असलियत कम है पर ऑपरेशन जेरोनिमो (ओसामा अभियान का सांकेतिक कूटनाम) ने न केवल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, सीआईए के निदेशक लियोन पनेटा, सीआईए और अमेरिकी खुफिया तंत्र की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए हैं बल्कि आज की तारीख में खुफिया जानकारी के एकत्रीकरण और विश्लेषण के बारे में कुछ कीमती सबक भी मुहैया करवाए हैं।
सीआईए के लिए यह जानकारी काफी महत्वपूर्ण साबित हुई कि लादेन अलकायदा के अभियान को संदेश वाहकों के जरिये चला रहा है। इनमें से दो अभियान चालक अमेरिका की गिरफ्त में आ चुके थे। वर्ष 2004 में अलकायदा के एक कार्यकता की गिरफ्तारी से ओसामा के संदेश वाहक अबू अहमद अल कुवैती की पहचान हुई। कुवैतों उस फराज-उल-लिबी का सहयोगी था, जिसने अलकायदा के अभियान संचालक और 9/11 के सूत्रदार खालिद शेख मोहम्मद की जगह ली थी। वर्ष 2005 में लिबी को पकड़े जाने के बाद इस बात की पुष्टि हो गई कि कुवैती बिन लादेन का तभी से संदेश वाहक बना हुआ था। गौरतलब है कि इंटेलीजेंस का यह महत्वपूर्ण टुकड़ा गिरफ्तारशुदा लोगों से की गई पूछताछ से उभरा है। एक बार जब कुवैती की पहचान हो गई तो अगला सुराग सिग्नल इंटेलीजेंस के जरिये तब मिला जब सीआईए ने कुवैती और एक अन्य व्यक्ति के बीच टेलीफोन पर हो रही बातचीत को इंटरसेप्ट किया। इससे कुवैती को खोजने में मदद मिली, जिसका वाहन एबटाबाद के उस संदिग्ध परिसर में पाया गया। हवाई निगरानी के जरिये उस इमारत पर लगातार नजर रखी गई। अमेरिकी विशेषज्ञों ने सारे इंटेलीजेंस को अच्छी तरह परखते हुए परिसर में ओसामा की मौजूदगी की तार्पिक संभावनाओं की गहन जांच की। बाद की कहानी तो सबको मालूम ही है। पूरे प्रकरण से साफ है सीआईए ने ह्यूमन और इलैक्ट्रॉनिक इंटेलीजेंस दोनों का इस्तेमाल किया और अमेरिका के अब तक के सबसे सफल और कठिन ऑपरेशन को अंजाम दिया। भारत की खुफिया एजेंसियों को इससे कई सबक मिलते हैं। अगर वह लेना चाहे तो?

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