Tuesday 3 May 2011

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
प्रकाशित: 03 मई 2011
अनिल नरेन्द्र
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने शनिवार को देश के सबसे बड़ी जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) नए मुख्यालय के उद्घाटन समारोह में एजेंसी के शीर्ष अधिकारियों से कहा कि वे मामलों की जांचö(1) गहन छानबीन करके (2) जल्द परिणाम दें और (3) बिना किसी डर के काम करें। चूंकि सीबीआई होता तो कार्मिक मंत्रालय के तहत है और यह मंत्रालय राज्यमंत्री चलाता है जो सीधे तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन होता है, इसलिए प्रधानमंत्री का यह उपदेश मात्र औपचारिकता ही थी।
कोई पूछे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से कि 2004 से अब तक सीबीआई के कामकाज में सुधार के लिए कौन-सा सुधार किया है उनके नेतृत्व वाली सरकार ने। तमाम बाधाओं के बावजूद इस एजेंसी का अभियोजन दर 67 प्रतिशत है। किसी भी दूसरी जांच एजेंसी की इतनी दर नहीं है बल्कि 50 प्रतिशत से नीचे ही सभी की है। सीबीआई के जो आरोप पत्र वैधानिक आधार पर होते हैं उनकी तो अभियोजन दर लगभग 95 प्रतिशत है। किन्तु जो आरोप पत्र राजनीतिक आधार पर होते हैं उसके अभियोजन के बारे में खुद सीबीआई भी भरोसा नहीं करती। दरअसल सीबीआई को तीन तरह से मामले मिलते हैं। पहला  तो आर्थिक भ्रष्टाचार संबंधी होता है जो सीबीआई खुद ही रजिस्टर करती है। दूसरा राज्य या केंद्र सरकार के सिफारिश पर सीबीआई मामला दर्ज करती है। जबकि तीसरा है अदालतों के आदेश पर मामले को हाथ में लेती है। निश्चित तौर पर ये मामले ऐसे होते हैं जो राज्य सरकार की जांच एजेंसियों की क्षमता से परे होते हैं।
दरअसल मौजूदा व्यवस्था के अनुसार देखें तो सीबीआई मुख्यालय प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) का पुलिस स्टेशन है। पीएमओ किसी मामले को जैसे चाहता है वैसे ही निर्देशित एवं नियंत्रित करता है। चाहे बोफोर्स केस बन्द करने संबंधी मामला हो या 2जी स्पेक्ट्रम में 2 सालों तक मामले का या कॉमनवेल्थ गेम्स तैयारी में लूट का। सीबीआई को सिर्प उतनी ही छूट मिली जिससे कि भारत सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी के किसी व्यक्ति को प्रभावित न किया जा सके। बोफोर्स मामले में सीबीआई ने अदालत से इसलिए इसे बन्द करने का आदेश मांगा क्योंकि केंद्र सरकार बोफोर्स की बदनामी और ज्यादा झेलना नहीं चाहती। 2जी स्पेक्ट्रम में जब खुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ही बार-बार क्लीन चिट देते रहे और उन्होंने पहल नहीं की तो सीबीआई भी चुप रही। लेकिन जब पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई तब जाकर शीर्ष अदालत ने सीबीआई से प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया। यही नहीं, सरकार की हर व्यवस्था को सीबीआई से दूर भी रखा। यहां तक कि सीबीआई का पर्यवेक्षण सीवीसी के बजाय खुद अपने हाथ में रखा। सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री कार्यालय की उदासीनता को लेकर जो टिप्पणी की उसी से लगता है कि पीएमओ को भ्रष्टाचार, सीबीआई और जांच की कितनी चिन्ता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि `2जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रधानमंत्री की निक्रियता विचलित करने वाली है।'
कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले को ही लीजिए, सीबीआई ने कुछ लोगों को अन्दर जरूर किया है किन्तु उसके लिए यह संभव नहीं है कि संयुक्त सचिव स्तर एवं उसके स्तर के उपर के अधिकारियों के विरुद्ध स्वत  प्राथमिकी दर्ज करने का अधिकार नहीं है। इसके लिए उसे पहले  सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। स्वाभाविक है कि जब तक सरकार अनुमति देने की प्रक्रिया पूरी करेगी तब तक आरोपी बचने का कोई न कोई  विकल्प खोज लेगा। रही बात मुख्यमंत्री या मंत्री की तो उसके लिए उपराज्यपाल की अनुमति की जरूरत होती है। उपराज्यपाल पूरी तरह राजनीतिक पद होता है।
अन्ना हजारे का लोकायुक्त अवधारणा इन्हीं मकड़जालों को साफ करने के लिए है। किसी भ्रष्टाचारी के खिलाफ कार्रवाई के लिए इतनी औपचारिक निभाना और अन्त में कहीं न कहीं कानून के कमजोर कड़ी का फायदा उठाकर आरोपी के बच निकलने के अवसर पर ताला जड़ना ही हजारे आंदोलन का निचोड़ है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से परेशान कांग्रेस सरकार ने हजारे को ज्यादा प्रतीक्षा के लिए बैठने नहीं दिया। उसने विपक्ष को चुप करने के लिए और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी नीयत की ईमानदारी पेश करते हुए मनमोहन सरकार ने उनके प्रस्ताव को मानकर लोकायुक्त व्यवस्था को स्वीकृति दे दी। असल में सरकार समझती है कि हजारे को शांत रखने के लिए उन्हें उन्हीं के खेल में उलझाकर ही अपना सिर बचाया जा सकता है। इसीलिए सरकार ने लोकायुक्त विधेयक ड्राफ्ट कमेटी के बहाने पर्याप्त समय ले लिया। सच तो यह है कि अभी तक लोकायुक्त की एक सिफारिश को कांग्रेस की राज्य सरकारों ने माना नहीं है। असम के मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों के खिलाफ तो लोकायुक्त ने कई सिफारिशें कर रखी हैं किन्तु आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। असम की ही तरह कई राज्य और हैं जहां के लोकायुक्तों की रिपोर्ट धूल चाट रही हैं।
प्रधानमंत्री और उनका कार्यालय अच्छी तरह जानते हैं कि भ्रष्टाचार का स्रोत कारपोरेट सेक्टर हैं। उन्होंने पूरी राजनतीकि व्यवस्था को भ्रष्ट कर दिया है किन्तु जब किसी कारपोरेट हाउस के खिलाफ कार्रवाई की बात आती है तो प्रधानमंत्री कार्यालय न तो गहन छानबीन की अनुमति देता और न ही जांच का जल्द परिणाम आने की एजेंसी को अनुमति देता। रही सीबीआई अधिकारियों को बिना डर के जांच की बात तो इसकी हकीकत जगजाहिर है क्योंकि सीबीआई बहुत ही अधिक दबाव में प्रभावशाली लोगों की जांच करती है।
सवाल है नीयत का सीबीआई मुख्यालय में कर्तव्यबोध संबंधी लिखित भाषण से इस एजेंसी के कामकाज में सुधार आने वाला नहीं है। कमजोर लोगों के खिलाफ आरोपों की जांच में तो सीबीआई अव्वल है ही अतिविशिष्ट लोगों का गिरेबान पकड़ने की ताकत उन्हें सरकार दिलवाए तब तो जानें। लेकिन यह संभव नहीं है क्योंकि सत्ता असत्य के सिंहासन पर आसीन होता है वह सत्य का सहारा लेकर अपने सत्ता पर आघात नहीं करेगा। इसलिए सीबीआई मुख्यालय का उनका पढ़ा हुआ भाषण सिर्प पढ़ने के लिए ही था, क्योंकि `पर उपदेश कुशल बहुतेरे।' अर्थात् दूसरे को उपदेश देने के लिए तो बहुत सारे होते हैं किन्तु अपने लिए उस उपदेश को कोई भी लागू नहीं करता।

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