चारों तरफ समस्याओं से घिरी यूपीए सरकार अब एक और समस्या में फंस गई है। कांग्रेस नेतृत्व और सरकार के लिए नई समस्या पृथक तेलंगाना की मांग है। आंध्र प्रदेश के पृथक तेलंगाना प्रदेश को लेकर स्थिति गम्भीर मोड़ पर आ खड़ी हुई है। सोमवार तक कांग्रेस के 10 सांसदों और 47 विधायकों ने अपने-अपने इस्तीफे भेज दिए हैं। तेलंगाना राज्य बनवाने के लिए सभी दलों ने राजनीतिक मुहिम तेज कर दी है। विरोधी दल टीडीपी के भी 37 विधायकों ने विधानसभा स्पीकर को इस्तीफा भेज दिया है। भाजपा और कांग्रेस के विधायकों ने भी अपने इस्तीफे सौंप दिए हैं। इस्तीफा देने वालों में 9 सांसद भी हैं। कांग्रेस पार्टी के लिए अलग तेलंगाना का गठन गले की फांस बन गया है, जो न तो उगलते बन रहा है और न ही निगलते। यह बात कांग्रेस के प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने भी स्वीकार की है। हालांकि तेलंगाना की मांग नई नहीं है। तेलंगाना राज्य की मांग 50 साल से भी ज्यादा पुरानी है मगर हर सरकार इसे टालती रही है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में सत्ता में शामिल तेलुगूदेशम का दबाव था तो अपने घोषणा पत्र में तेलंगाना की मांग का समर्थन करने वाली यूपीए सरकार तथाकथित सर्वसम्मति न बना पाने के कारण इस मांग को पूरा करने में असफल रही और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेता चन्द्रशेखर राव को मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। अपनी मांग को लेकर की गई उनकी भूख हड़ताल की पृष्ठभूमि में दिसम्बर 2009 में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने तेलंगाना राज्य बनाने का आश्वासन दिया था जिसके बाद न्यायमूर्ति बीएन कृष्णा समिति का गठन किया गया था, जिसके अध्ययन के बाद कोई एक राय न देकर कई विकल्प सुझाए। इस बीच केंद्र सरकार तेलंगाना की मांग को एक बार फिर भूल गई। अब जब यह मांग फिर शुरू हुई है और इस्तीफों का सिलसिला फिर आरम्भ हुआ है तो कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली यूपीए सरकार एक बार फिर सोचने पर मजबूर हुई है। सरकार पांव पूंक-पूंक कर रख रही है। दरअसल मनमोहन सरकार को समझ नहीं आ रहा कि वह करे तो क्या करे? यदि वह अलग तेलंगाना का गठन करती है तो फिर कम से कम 6 स्वतंत्र राज्यों की मांग तेजी से उठेगी और यदि नहीं करती तो फिर आंध्र प्रदेश के साथ-साथ दिल्ली की सरकार पर भी संकट आ सकता है। कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद ने माना कि स्थिति जटिल है पर उन्हें उम्मीद है कि वह अपने सांसदों और विधायकों को मना लेंगे। वे उनकी भावनाओं को समझ रहे हैं और उन्हें थोड़ा इंतजार करने की सलाह दे रहे हैं। मनमोहन सरकार हो सकता है कि अन्ना हजारे मुद्दे की तरह इस मुद्दे पर भी सर्वदलीय बैठक बुलाए जिसमें तेलंगाना के मुद्दे पर दूसरे दलों की राय जानी जा सकती है। कांग्रेस और सरकार को डर इस बात का है कि अगर तेलंगाना की मांग स्वीकार की जाती है तो बुंदेलखंड, हरित प्रदेश, रुहेलखंड, पूर्वांचल विदर्भ, रॉयल सीमा और कोंकण जैसे क्षेत्रों में स्थिति बिगड़ने की सम्भावना बढ़ जाएगी जो कि फिलहाल कांग्रेस नहीं चाहती। दूसरी ओर आगर वह इस मांग को खारिज करती है तो बहुत बड़ा जोखिम उठाना होगा। आंध्र प्रदेश में जगन पहले से ही मुख्यमंत्री किरण रेड्डी की नाक में दम किए हुए हैं। केंद्र द्वारा मांग अस्वीकार करने से न केवल किरण रेड्डी सरकार ही गिर सकती है बल्कि आने वाले समय में उसके करीब एक दर्जन से अधिक सांसद कम हो जाएंगे और आने वाले समय में इस सबसे मजबूत गढ़ में कांग्रेस बेहद कमजोर हो जाएगी। कांग्रेस को मामले का लटकाने में ही फायदा है पर सवाल यह है कि क्या पृथक तेलंगाना की मांग करने वाले ऐसा होने देंगे?
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