आखिरकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने मंत्रिमंडल में बहुचर्चित फेरबदल कर ही दिया। प्रधानमंत्री ने इसे अपने मंत्रिपरिषद का अंतिम फेरबदल घोषित करके स्थायित्व का संकेत तो दिया पर दुःख से कहना पड़ता है कि यह वही पुरानी बोतल में नई शराब डालने के समान है। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया साबित हुआ है यह फेरबदल। चारों तरफ से घिरी मनमोहन सरकार से उम्मीद की जाती थी कि वह ऐसा फेरबदल करेंगे जिससे आने वाले दिनों में इस प्रकार की गिरती छवि और विश्वसनीयता पर लगाम लगे। उम्मीद तो यह भी की जाती थी कि महत्वपूर्ण मंत्रालयों में जरूरी परिवर्तन करने का साहस दिखाएंगे जिससे मुंह झाड़ती समस्याओं से निपटने का संकल्प नजर आए पर प्रधानमंत्री फिर असहाय, गैर-राजनीतिज्ञ व रिमोट से चलने वाले प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। न तो वह वित्तमंत्री बदल सके, न गृहमंत्री। हां कुछ नए युवा चेहरों को जरूर शामिल किया गया है जिससे राहुल गांधी का बढ़ता प्रभाव साफ झलकता है। पर्यावरण मंत्रालय से जयराम रमेश का तबादला साफ संकेत देता है कि यह सरकार केवल उद्योगपतियों को खुश करने में लगी हुई है। जयराम रमेश को ग्रामीण विकास मंत्रालय देकर अपना सियासी फायदा देख रही मनमोहन सरकार को वेदांता, पॉस्को और लवासा समेत पर्यावरण से जुड़े तमाम मामलों में बढ़ते कारपोरेट जगत के दखल पर अंकुश लगाने वाले मंत्री को हटाने का जवाब देना पड़ सकता है। कैबिनेट फेरबदल ने प्रधानमंत्री के गठबंधन की उस सियासी मजबूरी को भी उजागर किया है जिसका जिक्र उन्होंने सम्पादकों के साथ की थी। द्रमुक के लिए दो मंत्री पद सुरक्षित रखने को गठबंधन धर्म बता रहे मनमोहन सिंह ने दरअसल उसी गठबंधन धर्म का प्रमाण दिया है जैसे ममता के दबाव में रेल मंत्रालय उन्हीं के प्रतिनिधि को दिया है, बेशक वह इस मंत्रालय के लिए काबिल हो या न हो। प्रधानमंत्री का यह मंत्रिमंडल फेरबदल महज राजनीतिक जरूरत के हिसाब से कुछ खाली जगह भरने की हेरफेर कवायद का आइना ही बनकर रह गया है। इसका साफ संदेश तो यही है कि प्रधानमंत्री पर सोनिया गांधी की यथास्थितिवादी मध्यमार्गी राजनीति भारी पड़ी। इसलिए गृह, वित्त, रक्षा और विदेश समेत तमाम बड़े महकमों में इधर-उधर करने की प्रधानमंत्री की चाहत कांग्रेस के सियासी चरित्र के बैरियर को तोड़ नहीं पाई। अगर बेनी प्रसाद वर्मा को कैबिनेट स्तर और राजीव शुक्ल को इसलिए शामिल किया कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं तो पंजाब का कोई प्रतिनिधि क्यों नहीं लिया गया? क्योकि चुनाव तो पंजाब में ही होने हैं? वीरप्पा मोइली को विधि मंत्रालय से हटाने के पीछे उनके अपने दायित्वों का सही निर्वहन रहा। क्या सरकार यह चाहती थी कि मोइली उसके सारे गलत कार्यों का बचाव करते? अगर यह प्रधानमंत्री का अंतिम फेरबदल है, जैसा उन्होंने खुद कहा है तो इसकी उम्मीद कम ही है कि सरकार का चाल-चलन बदलेगा और कुछ बेहतर होने की उम्मीद रखी जाए। इस फेरबदल के जरिये कोई सार्थक संदेश देने की कोशिश कर रही केंद्रीय सत्ता के लिए अशुभ और कुछ नहीं हो सकता कि दो नेता तो मंत्री पद की शपथ लेने ही नहीं पहुंचे और बाकियों में असंतोष का लावा फूट गया है। इस लीपापोती से पता नहीं यूपीए-2 सरकार और कांग्रेस पार्टी को कितना फायदा होगा?
Tags: Anil Narendra, Cabinet, Daily Pratap, Manmohan Singh, Prime Minister, Sonia Gandhi, UPA, Vir Arjun
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