दुनिया के ताकतवर देशों और ईरान के बीच विवादास्पद परमाणु
कार्यक्रम को लेकर आखिरकार समझौता हो ही गया। इस समझौते का स्वागत होना चाहिए।
इससे दुनिया के एक क्लेश पावर को दूर करने वाला यह समझौता इतने गुप्त तरीके से हुआ
कि किसी को कानों कान इसकी भनक तक नहीं लगी। जिनेवा में हुए इस समझौते में अमेरिका
और ईरानी वार्ताकारों के बीच चली गोपनीय मुलाकातों की अहम भूमिका रही। गोपनीयता का
इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन वार्ताओं की जानकारी अमेरिका ने इजरायल सहित
अपने निकटतम सहयोगियों तक को नहीं दी। सूत्रों की मानें तो राष्ट्रपति बराक ओबामा
ने निजी तौर पर ईरानी वार्ताकारों के साथ बातचीत को प्राधिकृत किया है। अमेरिका और
ईरानी वार्ताकारों के बीच ओमान और कुछ अन्य देशों के बीच कई दौर की बैठकें हुईं। इस समझौते से ईरान
को सात अरब डॉलर (करीब 44 हजार करोड़ रुपए) की राहत मिलेगी और उस पर छह महीने तक
कोई नया प्रतिबंध नहीं लगेगा। इस ऐतिहासिक समझौते की घोषणा रविवार को जिनेवा में
प्रमुख वार्ताकार कैथरीन ऐरटन और ईरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जावेद जरीफ ने की।
जरीफ ने कहा कि हम एक समझौते पर पहुंच गए हैं। इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा कि उनके
देश का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण कार्यों के लिए है और वह यूरेनियम संवर्द्धन
का अधिकार नहीं छोड़ेंगे। उधर ओबामा ने इसका स्वागत करते हुए कहा कि ईरान को
परमाणु हथियार बनाने से रोकने की दिशा में यह महत्वपूर्ण और पहला कदम है। इस
समझौते के खिलाफ सबसे बड़ी प्रतिक्रिया इजरायल की आई। इजरायल ने ईरान और पी-5+1 के
बीच हुए इस समझौते का विरोध करते हुए इसे ऐतिहासिक भूल करार दिया है। उसने कहा कि
यह सबसे खराब समझौता है, क्योंकि ईरान जो चाहता था उसने हासिल कर लिया। इजरायली
प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने जिनेवा में ऐतिहासिक समझौते के कुछ घंटे बाद
जारी एक बयान में कहा कि यह खराब समझौता है जो ईरान को वह प्रदान करता है जो वह
चाहता था। अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा कि समझौते के बाद ईरान के लिए
परमाणु हथियार बनाना और मुश्किल हो जाएगा। हमारे विशेषज्ञ उन पर नजर रखेंगे। अब अमेरिका
और उसके सहयोगी पूरी तरह सुरक्षित हैं। चीन के विदेश मंत्री वांग ची का कहना था कि
दुनिया में शांति बहाली के लिए यह समझौता अहम साबित होगा। इससे साफ हो गया है कि
ईरान भी सहयोग के लिए तैयार है। भारत ने इस समझौते का स्वागत करते हुए कहा कि भारत
समाधान की संभावना का स्वागत करता है। ईरान और छह देशों के बीच बनी सहमति भारत
द्वारा मामले पर अपनाए गए रुख के भी अनुरूप है। भारत यह कहता रहा है कि ईरान को
नाभिकीय तकनीक के शांतिपूर्ण इस्तेमाल का हक है, लेकिन उसे गैर-परमाणु हथियार
सम्पन्न देश बने रहने के अपने अंतर्राष्ट्रीय वादे को निभाना चाहिए। हालांकि यह
समझौता फिलहाल छह महीने के लिए है पर इसमें ईरान को अपनी नीयत साफ करने का मौका
जरूर मिलेगा। इन छह महीनों में यदि ईरान ने समझौते का पालन तय शर्तों के अनुरूप
किया तो दुनिया की मुख्यधारा में उसकी वापसी के आसार स्वर्णमय हो जाएंगे। समझौते
का तात्कालिक फायदा तो ईरान को ही मिलना है जो तमाम तरह के प्रतिबंधों के चलते
आर्थिक बदहाली की कगार पर पहुंच गया था। समझौता अगर चल निकला तो यह अमेरिका के लिए
भी एक बड़ी कूटनीतिक विजय होगी। ईरान पर आरोप है कि वह एटम बम बनाने की तैयारी कर
रहा है जिसके लिए वह गोपनीय तरीके से यूरेनियम का संवर्द्धन और संवर्द्धित
यूरेनियम के भंडार जमा कर रहा है। अब समझौते के तहत वह यूरेनियम का संवर्द्धन तो
कर पाएगा लेकिन इसकी सीमा पांच फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। समझौते में यह शर्त भी
है कि 20 फीसद से अधिक संवर्द्धित यूरेनियम को ईरान नष्ट कर देगा। इसके अलावा वह
अपने अराक न्यूक्लियर रिसर्च केंद्र को भी बंद करने पर सहमत हो गया है जिसे लेकर दुनियाभर में आशंका पनप रही थी। सबसे
महत्वपूर्ण पहलू शायद इस समझौते का यह है कि तीन दशक से भी अधिक समय से अमेरिका और
ईरान के बीच जो संवाद-सेतु बिल्कुल ठप-सा था वह इस समझौते से फिर चालू हो गया है।
उम्मीद की जा सकती है कि जहां एक और मध्य पूर्व में शांति स्थापना की उम्मीदें
बढ़ेंगी वहीं आने वाले दिनों में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध भी कायम हो
सकते हैं। समझौते का असर पेट्रोलियम की बढ़ती कीमतों पर तात्कालिक अंकुश के रूप
में भी दिखेगा, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
-अनिल
नरेन्द्र
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