Saturday, 16 November 2013

न तोते को और ताकत देंगे न ही पिंजरे से निकलने की इजाजत

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम जिस तरीके से केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सार्वजनिक रूप से फटकार लगा रहे हैं उससे साफ लगता है कि मनमोहन सरकार सीबीआई से खुश नहीं है और जिस तरह सीबीआई चीफ ने सरकार को नसीहत दी, यही कहा जाएगा कि दोनों में ठन गई है। लगता है कि कोयला घोटाले में सीबीआई की सक्रियता सरकार को नहीं भाई। सीबीआई के स्वर्ण जयंती के अवसर पर आयोजित सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने सीबीआई को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि बिना ठोस सबूत के सरकार के नीतिगत फैसलों पर अंगुली उठाने से बाज आए सीबीआई। हिंडाल्को को कोल ब्लॉक आवंटन मामले में एफआईआर दर्ज करने वाली सीबीआई को आड़े हाथों लेते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि फैसले में चूक को अपराध नहीं माना जाना चाहिए। मनमोहन सिंह ने सम्मेलन में जिस तरह सीबीआई को उसकी हदों की याद दिलाई वह सकते में डालने वाला है। पीएम सीबीआई को स्वायत्तता देने पर भी सहमत नहीं दिखे। तोता पिंजरे में ही रहेगा यह प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया। उनका यह कहना कि सीबीआई का कामकाज कार्यपालिका की देखरेख में ही चलना चाहिए यही संकेत देता है। पहले दिन गृहमंत्री और दूसरे दिन वित्तमंत्री भी ने इसके मंच से सीबीआई को सीमाओं का अतिक्रमण न करने की नसीहत दे डाली। शायद प्रधानमंत्री इस बात से तिलमिलाए हुए हैं कि हिंडाल्को को कोल ब्लॉक आवंटन मामले में पूर्व कोयला सचिव पीसी पारिख के खिलाफ मामला दर्ज होने के बाद जांच की आंच सीधे पीएमओ तक पहुंच गई है। पीएमओ तक ही नहीं खुद प्रधानमंत्री तक पहुंच गई है। पारिख ने कहा कि यदि वह आरोपी हैं तो प्रधानमंत्री को कैसे बख्शा जा सकता है जबकि उनकी देखरेख व दस्तखत से ही आवंटन को हरी झंडी मिली। प्रधानमंत्री का तर्प है कि बिना गलत इरादे के मौजूदा नीति के तहत लिए गए फैसलों को आपराधिक कदाचार करार देना ठीक नहीं है। लेकिन नीति और फैसलों के बीच की हद पार होने पर ही ऐसी नौबत आती है। उसी मंच से सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा का यह कहना कि नीतिगत फैसलों में गड़बड़ी की गुंजाइश ही नहीं छोड़नी चाहिए, सरकार के रवैये पर सवाल खड़े करती है। कोयला खदान आवंटन हो, 2जी स्पेक्ट्रम का मामला हो इनमें न तो नीतिगत पारदर्शिता दिखी और न ही फैसलों में। उलटे सरकार इन घोटालों को झुठलाने में लगी रही। यहां तक कि सीबीआई स्टेटस रिपोर्ट तक में बदलाव कर दिए गए। सीबीआई की स्वायत्तता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भले ही सुनवाई चल रही हो लेकिन सरकार की मंशा तोते को पिंजरे से आजाद करने की कतई नहीं है। यही नहीं सरकार अब सीबीआई के पर कतरने का भी इरादा रखती है। केंद्र की सीबीआई के निदेशक को सचिव के पदेन अधिकार देने और उन्हें सीधे प्रभारी मंत्री को रिपोर्ट करने की अनुमति देने की मांग बुधवार को उच्चतम न्यायालय ने अस्वीकार कर दी। केंद्र सरकार ने सीबीआई को अपना अधीनस्थ कार्यालय बताते हुए उसके निदेशक को अधिकार देने की मांग ठुकरा दी। केंद्र ने कहा कि ऐसा कानूनन गलत होगा क्योंकि इस तरह की मांग स्वीकारने का मतलब एक प्राधिकारी के पास अनियंत्रित अधिकार देना होगा। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल 23 पेज के हलफनामे में सरकार ने कहा कि हालांकि निदेशक सचिव के ग्रेड और वेतनमान में हैं लेकिन उन्हें पदेन अधिकार देने की मांग स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि इससे सरकार के विभागों और उसके अधीनस्थ कार्यालयों के बीच संगठनात्मक रिश्तों का समीकरण बदल जाएगा। कटु सत्य तो यह है कि सरकार पर तो खुद अकसर सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लगते रहते हैं, सरकार यदि अपनी हदों का ध्यान रखे तो शायद उसे सीबीआई को आज नसीहत देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। प्रधानमंत्री व उनके सिपहसालारों की नसीहत का अर्थ यह भी निकल सकता है कि भ्रष्टाचार के मामलों में सीबीआई की जांच को प्रभावित करना और एजेंसी पर नाजायज दबाव बनाना। सरकार यह आश्वासन देने की बजाय कि नीति और उसे  लागू करने में पारदर्शिता बरती जाएगी, उन्होंने नीति की आड़ में भ्रष्टाचार की जांच को लेकर सीबीआई को दबाव में लाने का प्रयास किया है। राज्यसभा में प्रतिपक्ष  के नेता अरुण जेटली ने कहा कि नीति बनाना कार्यपालिका  के अधिकार क्षेत्र में है और सीबीआई को नीतियों की जांच नहीं करनी चाहिए? उन्होंने सवाल किया कि अगर नीति भ्रष्ट उद्देश्यों के लिए हो तो...?


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