Sunday, 3 November 2013

सुप्रीम कोर्ट का दूरगामी फैसला ः मौखिक आदेश न मानें नौकरशाह

गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक और ऐतिहासिक व दूरगामी प्रभाव डालने वाला फैसला सुनाया है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। नौकरशाही को सियासी दबाव से मुक्त करने की दिशा में कोर्ट ने कहा है कि नौकरशाहों को राजनीतिक आकाओं या अपने वरिष्ठ अफसर के मौखिक आदेशों पर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। मौखिक (जुबानी) आदेश पर कार्रवाई करने वाला अफसर अपने जोखिम पर ही ऐसा कर सकेगा। प्रशासन को बेहतर बनाने तथा उनमें पेशेवर दक्षता का संचार करने के लिए नौकरशाहों का न्यूनतम कार्यकाल तय किया जाए। ट्रांसफर, पोस्टिंग और सरकारी अफसरों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए तीन माह में केंद्र तथा राज्य स्तर पर सिविल सेवा बोर्ड के गठन का भी सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है। संसद को सुझाव दिया गया है कि देश में प्रशासनिक व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए सिविल सेवा अधिनियम पारित किया जाए। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और पिनाकी चन्द घोष की खंडपीठ ने देश के नामी-गिरामी 83 रिटायर्ड नौकरशाहों की याचिका पर यह आदेश दिए। नौकरशाही में गिरावट का मुख्य कारण राजनीतिक हस्तक्षेप को बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नौकरशाहों को राजनीतिक नेताओं द्वारा दिए गए मौखिक आदेशों पर कार्रवाई  नहीं करनी चाहिए तथा नौकरशाहों को नेताओं की ओर से दिए गए सभी आदेशों पर कार्रवाई उनसे मिले लिखित संवाद के आधार पर करनी चाहिए। आपात परिस्थितियों में मौखिक आदेश पर अमल किया जा सकता है लेकिन जुबानी आदेश के तत्काल बाद लिखित निर्देश जारी किया जाना अनिवार्य है। यह फैसला इसलिए भी स्वागत योग्य है कि शासन-प्रशासन संबंधी तमाम विसंगतियों को दूर करने में जुटी देश की शीर्ष अदालत ने एक बार फिर देश के राजनीतिक नेतृत्व को उनके कर्तव्यों की याद दिलाई है। आश्चर्य  नहीं कि इस फैसले को लेकर राजनेताओं का रुदन शुरू हो जाए या फिर वे आनाकानी पर उतर आएं। यह आशंका इसलिए है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी इसी तरह का फैसला पुलिस सुधारों के संबंध में दिया था जिस पर कुछ राज्यों को छोड़कर किसी ने भी सात सालों में अमल नहीं किया। केंद्र और राज्य सरकारें दर्जनों बहाने दे देंगी अमल नहीं करने के लिए। वह नहीं चाहेंगी कि इस आदेश पर अमल हो पर सुप्रीम कोर्ट की मजबूरी है कि वह सुझाव ही दे सकता है, सरकार चला नहीं सकता। नौकरशाहों में ही एक वर्ग ऐसा होता है जो अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखने के लिए सारी हदें पार कर जाते हैं। राजनेताओं को समझना चाहिए कि वे सत्ता के संचालन करने के नाम पर मनमानी नहीं कर सकते। उन्हें कायदे-कानून के हिसाब से चलना होगा। कई बार यहां तक देखा गया है कि नौकरशाह खुद ही फैसला ले लेते हैं और राजनीतिक नेतृत्व को उसका पता तक नहीं चलता। वह तो जब भांडा फूटता है तब जाकर नेताओं को पता लगता है। नौकरशाहों को याद रखना चाहिए कि वह भारत सरकार के मुलाजिम हैं न कि सत्ताधारी पार्टी के। उन्हें खुद को नौकरशाहों का आका मानना छोड़ना होगा। राजनेताओं का मूल काम समस्याओं के समाधान के तौर-तरीकों को खोजना, नीति निर्धारण करना और दिशा देना है। इसी तरह नौकरशाही का काम नीतियों पर सही तरह का अमल करना और जनता की समस्याओं के समाधान की राह आसान और भ्रष्टाचार मुक्त बनाना है।
-अनिल नरेन्द्र

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